मंडला । शादी का नाम सुनते लोगों के चेहरे पर एक अलग ही भाव आ जाता है, लेकिन शादी की सही उम्र क्या होनी चाहिए, इसको लेकर अब भी कई सवाल खड़े होते हैं. शादी सिर्फ दो लोगों के बीच का संबंध नहीं बल्कि दो परिवार का मिलन होता है. देश में आज भी एक सवाल है कि आखिर लड़कियों की शादी की उम्र क्या होनी चाहिए. 2006 के बाद एक बार फिर यह देश का अहम मुद्दा बन गया है और संसद के मानसून सत्र में इस मुद्दे पर दोबारा चर्चा होने की पूरी उम्मीद है. जया जेटली की अध्यक्षता में 10 सदस्यों की सौंपी गई रिपोर्ट में कहा गया है कि लड़कियों की शादी 21 साल के बाद होनी चाहिए, ना कि 18 के बाद. ऐसे में ईटीवी भारत ने समाज के उन लोगों से चर्चा की जो समाज को बारीकी से समझते हैं.
सन 1929 में शारदा कमेटी की सिफारिश पर लड़कियों की शादी की उम्र 14 साल और लड़कों की 18 साल पर इसका कानून बना था, जिसमें 1978 में संशोधन किया गया और लड़िकयों की शादी की उम्र को बढ़ा कर 18 साल और लड़कों की उम्र 21 साल तय कर दी गई. बाल विवाह पर रोक लगाने के लिए 2006 में सख्त कानून बना और इसके बाद अब फिर से लड़कियों की शादी की उम्र 18 से बढ़ाकर 21 साल किए जाने की तैयारी है.
क्या है विशेषज्ञों की राय
इस मुद्दे पर महिला एवं बाल विकास विभाग से रिटायर्ड अधिकारी और इस मामले की जानकार नारायणी तिवारी कहती हैं कि शादी की उम्र बढ़ाने से लड़कियों को पढा़ई और खुद का भविष्य बनाने का ज्यादा मौका मिलेगा. जिले की 80 फीसदी आबादी आदिवासियों की है और ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है. यहां शादी की उम्र बढा़ने या घटाने की बजाय जागरूकता पर बात करनी चाहिए. जब तक लड़की का मन मजबूत और शरीर मातृत्व के लिए परिपक्व नहीं हो जाता तब तक माता-पिता को उसकी शादी नहीं करनी चाहिए.
परिपक्व हो तन और मन
शिशु रोग विशेषज्ञ और समाजसेवी डॉ. एस के बरकड़े का कहना है कि जरूरी नहीं है कि हर एक 18 साल या 21 साल की युवती शादी के बंधन में बंधकर सामाजिक तौर पर आए परिवर्तन को झेल सके. युवतियों के तन-मन का विकास अलग उम्र में होता है, उन्हें यह समझ नहीं होती कि उन्हें कब मां बनना है. ऐसे में युवतियों की शादी के पहले यह जानना जरूरी है कि, परिवार संभालने और उसे आगे बढ़ाने में वे सक्षम हैं या नहीं. यदी ऐसा नहीं होता है तो, महिलाओं में मातृ मृत्यु दर, एनीमिया, कुपोषण, बच्चादानी और पैदा होने वाले बच्चे में कुपोषण जैसी बीमारियों की आशंका ज्यादा होती है.
आखिर क्यों पड़ रही जरूरत
80 साल के शिक्षाविद पीआर श्रीवात्री का कहना है कि विभिन्न राज्यों की परम्पराएं अलग-अलग होती हैं. कुछ क्षेत्रों में लड़कियों की जल्द शादी की परम्पराएं हैं, जिन्हें यह समझाने की जरूरत है कि आज वक्त बदल रहा है और युवतियां किसी मामले में लड़कों से पीछे नही हैं. ऐसे में बहस इस बात पर होनी चाहिए कि लड़की जब अपना भविष्य संवार ले, अपने पैरों पर खड़ी हो जाए, तभी उसकी शादी की जानी चाहिए. एक समझदार लड़की दो परिवार को संभालने के साथ मायके और ससुराल दोनों को शिक्षित कर सकती है. इस दिशा में सरकार को सभी को भरोसे में लेना होगा और जाति, धर्म, रीतिरिवाजों, परंपराओं से ऊपर उठकर यह समझाना होगा कि सही उम्र में लड़की की शादी उसकी सेहत, भविष्य और समाज को संवारने में सहायक होगा.
इतना बदलाव ही नहीं है काफी
आज भी बाल विवाह जैसी कुरीतियां समाज में मौजूद हैं. ग्रामीण क्षेत्र में माता-पिता लड़कियों को पढ़ाने की बजाय घर का काम सिखाने पर ज्यादा जोर देते हैं. लड़कों को हर बात की छूट होती है, लेकिन लड़कियों पर घर के छोटे सदस्य तक की मर्जी थोप दी जाती है. ऐसे में ये लड़कियां न तो खुल कर अपनी भावनाओं को व्यक्त कर पाती हैं और ना यह बात समझ पाती हैं कि आने वाले वक्त में वे खुद मां बनकर समाज को नया भविष्य देने वाली हैं. सरकार का काम है लोगों की भावनाओं और जरूरत के हिसाब से कानून बनाए. गांव हो या शहर हर जगह युवतियों को खुल कर जीने और मनपसंद जीवन साथी का भी चुनाव करने की आजादी मिलनी चाहिए.