मंडला। कुछ तारीखें और लोग इतिहास के पन्नों में दर्ज हो जाते हैं, लेकिन कुछ को वो स्थान नहीं मिल पाता, जिसके वो हकदार होते हैं. ऐसी ही गाथा है देश की आजादी के लिए लड़ाई लड़ने वाले मंडला के रणबांकुरों का, जिनकी धुंधली कहानी आज भी जनवाणी में तो है, लेकिन इतिहास के पन्नों में इन्हें स्थान नहीं मिल पाया. शायद मण्डला पूरे मुल्क का एकमात्र ऐसा गढ़ होगा जो 1857 की क्रांति के पहले ही आजाद हो गया था और इसके लिए कई लड़ाकों ने फांसी के फंदे को गले लगाया था.
रानी अवंती बाई ने किया शंखनाद
आजादी की लड़ाई में मंडला क्षेत्र का बहुत बड़ा योगदान है, जिसकी जानकारियां लोगों के सामने नहीं आई. महाकौशल क्षेत्र में आजादी की क्रांति में मंडला की अग्रणी भूमिका रही है, इसकी शुरुआत देखा जाए तो रानी अवंती बाई के नेतृत्व में रामगढ़ (डिंडौरी) से शरू हुई थी. सबसे पहले आजादी का सपना उन्होंने ही देखा और आजादी के शंखनाद में महत्यपूर्ण योगदान दिया. अवन्ति बाई लोधी ने शंकर शाह की अध्यक्षता में एक सम्मेलन किया, जिसमें करीब 300 लोग जुटे और सबने ये शपथ ली कि अब अंग्रेजों को भगा कर ही दम लेंगे.
![avanti mahal](https://etvbharatimages.akamaized.net/etvbharat/prod-images/8398842_thum4.png)
आजादी की वो दास्तान जो खुद इतिहास बन गई
रामगढ़ में आयोजित रानी अवंती बाई के सम्मेलन में जो 300 लोग इकट्ठा हुए, वो लोग कौन थे और कहां कहां से आए थे इसकी जानकारी नहीं मिलती, लेकिन माना जाता है कि ये सभी आजादी के परवाने थे, जो इतिहास में गुम हो गए. इन्हें कभी लिखा नहीं गया, बस ये लोगों के बीच कहानियों में जिंदा हैं.
![neck noose](https://etvbharatimages.akamaized.net/etvbharat/prod-images/8398842_thu.jpg)
1857 से पहले आजाद हो गया था मंडला
रामगढ़ सम्मेलन से ही आजादी के आंदोलन की रणनीति बनी और धीरे-धीरे शहपुरा के जमींदार विजय, मंडला के जमींदार उमराव सिंह जिनका मुख्यालय खरदेवरा था और नारायणगंज के जमींदार सभी ने रानी अवंती बाई के साथ मिलकर अंग्रेजो के खिलाफ विद्रोह कर दिया और अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए. इतिहासकार नरेश जोशी के अनुसार एक समय ऐसा भी आया, जब 22 या 23 नवंबर को अट्ठारह सौ सत्तावन में मंडला के खैरी में आजादी के इन जांबाज योद्धाओं की सेना और अंग्रेजी सेना के बीच एक भीषण युद्ध हुआ, जिसमें अंग्रेजी सेना परास्त हो गई और मंडला का डिप्टी कमिश्नर वाडिंग्टन को जान बचाकर भागना पड़ा, जिसके बाद यहां के तहसीलदार और थानेदार भी भाग खड़े हुए और मंडला पूरी तरह से अंग्रेजी हुकूमत की गुलामी से स्वतंत्र हो गया.
![Rani Avanti Bai fight for independence](https://etvbharatimages.akamaized.net/etvbharat/prod-images/8398842_thum.jpg)
फिर शुरू हुआ बदले का दौर
सिवनी जाकर छिपे मंडला के डिप्टी कमिश्नर वाडिंग्टन ने एक बार फिर से मंडला पर कब्जा करना चाहा और लौटते हुए नागपुर के साथ ही जबलपुर की सेनाओं की मदद ली. लौटते हुए सबसे पहले वाडिंग्टन और अंग्रेजी सेना ने पहलवान आत्मजीत सिंह जाट को नारायणगंज में फांसी पर लटकाया. कहा जाता है कि आत्मजीत सिंह इतने बड़े पहलवान थे कि 24 घंटे फांसी पर लटकने के बाद भी उनकी मृत्यु नहीं हुई, तब दोबारा उन्हें अंग्रेजी सेना ने फांसी पर लटकाया था. वाडिंग्टन स्वतंत्रता के सूरवीरों को अकेला देख उन्हें फांस पर लटकाते हुए आगे बढ़ने लगा. इसी क्रम में उसने निवास के मुकास में जमींदार खुमान सिंह की भी हत्या कर दी.
आज भी मौजूद है रणबांकुरों के शहादत की निशानी
डिप्टी कमिश्नर वाडिंग्टन की इस करतूत के बारे में जब मण्डला के जमींदार को खबर मिली तो वे अपने साथियों को साथ रामनगर विधि के घने जंगलों में जाकर छिप गए, लेकिन इनके जंगल मे छिपे होने की खबर अंग्रेजी सेना को भी मिल गई और अंग्रेजी सैनिकों ने सभी को जंगल से पकड़ लिया और इन्हें मंडला लाकर तत्कालीन मलतू मोची की दुकान और आज का बड़ा चौराहा के पास लगे बरगद के पेड़ पर 2 दिसम्बर 1857 को लोहे की मोटी सांकल के सहारे फांसी पर लटका दिया, जिसकी निशानियां आज भी उस बरगद के पेड़ पर मौजूद हैं.
इसलिए नहीं है लिखित इतिहास
वाडिंग्टन मंडला का डिप्टी कमिश्नर था और उस समय जबलपुर के कमिश्नर इरस्किन थे. बरसात के समय मण्डला एक टापू में तब्दील हो जाता था, जिसके चलते डिप्टी कमिश्नर वाडिंग्टन का मुख्यालय जबलपुर रहता था और वहां से खबरें उनके खबरियों के जरिए आया जाया करती थी. यही वजह है कि बहुत सारे आजादी के विद्रोह या लड़ाई का उल्लेख नहीं मिल पाया. एक कारण और है कि मंडला क्षेत्र अन्य क्षेत्रों से कटा हुआ था, यहां लिखने से ज्यादा वीरों ने लड़ाई लड़ी, इस कारण आज उस दौर का इतिहास भी कम तर मिलता है.