होशंगाबाद: भगवान शिव को विश्व में अनेकों रूपों में पूजा जाता है, शिव के विभिन्न रूपों और ज्योतिलिंगों को विभिन्न नामों से संबोधित भी किया जाता है. नर्मदापुरम में एक अनोखा प्राचीन शिव मंदिर स्थित, जिसे तिलक सिंदूर के नाम से पहचाना जाता है. होशंगाबाद से करीब 36 किलोमीटर की दूरी पर सतपुड़ा की सुरम्य वादियों के बीच-ओ-बीच बसा यह भोलेनाथ का प्रसिद्ध धाम तिलक सिंदूर महादेव है.
भगवान शिव की अराधना सिंदूर से की जाती है
कहने को तो सिंदूर शिव के ही अवतार हनुमान जी को अर्पित किया जाता है, लेकिन नर्मदापुरम के इटारसी में महादेव के इस मंदिर में भगवान शिव की आराधना और अभिषेक सिंदूर से किया जाता है. इस अलौकिक मंदिर में पंडित नहीं आदिवासी ही शिव का पूजन करते हैं. सिंदूर को लेकर यहां के आदिवासियों में कई मान्यता और दन्तकथाएं हैं. इनमें से एक कथा है कि प्राचीन समय में यहां सिंदूर के पेड़ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थे, जो गोंडवाना क्षेत्र कहा जाता था. यहां के राजा दलवत सिंह उईके ने सतपुड़ा के जंगल से लाकर सिंदूर से भगवान शिव की आराधना की थी और इसे शिवरात्रि के बाद आने वाली होली से भी जोड़कर मनाने की मान्यता है. इसीलिए यहां भगवान को सिंदूर से अभिषेक किया जाता है.
भस्मासुर से बचने के लिए कंदरा में भगवान शिव ने ली थी शरण
यहां भगवान के विराजमान होने को लेकर मान्यता है कि भगवान शिव भस्मासुर को अपने दिए हुए वरदान के चलते ही शरण लेने के लिए सतपुड़ा के दुर्गम जंगल की कंदरा में ठहरे थे. भस्मासुर भगवान शिव को भस्म करना चाहता था, वह ढूंढता हुआ इस स्थान पर पहुंच गया और बहगवां भोलेनाथ यहां विराजित हुए थे उसके बाद यहां से गुफा के माध्यम से पचमढ़ी पहुंच कर अपनी जान बचाई.
इस मंदिर का इतिहास किसी को नहीं मालूम
पंडित लीलाधर शर्मा के अनुसार यह बहुत पुराना मंदिर है, इसका इतिहास किसी को मालूम नहीं है. दुनिया में कहीं के भी शिवलिंग पर सिंदूर नहीं चढ़ाया जाता है. यहां सिंदूर चढ़ाने से अखंड सौभाग्य की प्राप्ति होती है, यहां महिलाएं और पुरुष दोनों सिंदूर चढ़ाते हैं. महाशिवरात्रि पर यहां प्रदेश सहित कई स्थानों से लाखों की संख्या में लोग पहुंचते हैं. महाशिवरात्रि पर यहां मेले का आयोजन भी होता है. पौराणिक मान्यता के अनुसार यह भी बताया गया है कि भस्मासुर राक्षस से बचने के लिए भोलेनाथ परिवार सहित इस स्थान पर रुके हुए थे. सिंदूर नामक एक दैत्य उसने पार्वती का हरण किया था. इसके बाद इसी स्थान पर सिंदूर राक्षस से गणेश का युद्ध हुआ और भगवान गणेश से सिंदूर नामक राक्षस का वध कर उसके रक्त से भगवान शिव का अभिषेक किया गया था. जिसके बाद भगवान शंकर को सिंदूर चड़ाया जाने लगा.
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आज भी यहां आदिवासी भौमका करते हैं पूजा
आज भी यहां पर प्रथम पूजा का अधिकार आदिवासी समाज के प्रधान भौमका के परिवार को है. यहां आज भी ब्राह्मण समाज का पंडित भगवान का अभिषेक पूजा कराने के लिए नहीं पहुंचता है. आदिवासी समुदाय भगवान भोलेनाथ को बड़े देव के नाम से पूजते हैं.
तांत्रिक पहुंचते हैं तिलक सिंदूर
कहा जाता है कि तांत्रिक क्रिया करने वाले साधक यहां बड़ी संख्या में पहुंचते हैं. यहां पर मंदिर के तालाब के उस पार 15 आदिवासी गांवों का श्मशान भी है. जहां विशेष पर्वों पर तांत्रिक क्रियाएं भी की जाती हैं. भक्तों के बीच भी इस प्राचीन तिलक सिंदूर महादेव का अपना एक अलग ही महत्व है. (Tilak Sindoor Mahadev of Hoshangabad) (Sindoor offered to lord shiva in Hoshangabad)