होशंगाबाद। श्राद्ध पक्ष पूर्णिमा से अश्वनी माह की अमावस्या के 16 दिनों तक कौवा हर घर की छत पर मेहमान रहता है. यह 16 दिन श्राद्ध पक्ष के दिन माने जाते हैं. इन दिनों कौवे अन्य जल देना बहुत ही पुण्य का काम माना जाता है. पितृ कौवे के रूप में आकर श्राद्ध का अन्य ग्रहण करते हैं. इस पक्ष में कौवे को भोजन कराना अर्थात अपने पितरों को भोजन कराना माना गया है, लेकिन वातावरण के दूषित होने और प्रकृति में हो रहे बदलाव के चलते गिद्ध, सारस और चील के बाद अब कौवे का भी अस्तित्व खत्म होता जा रहा है. श्राद्ध पक्ष में लोगों को कौआ दिखाई नहीं दे रहे हैं.
अतिथि के आगमन की सूचना देने वाले और अपने पितरों तक श्राद्ध पहुंचाने वाले कौवे दिखाई नहीं देते हैं. पर्यावरण संरक्षण तथा प्रकृति का संतुलित बनाए रखने में कौवे की भूमिका महत्वपूर्ण होती है. कौवों के बचाव के लिए उपाय नहीं किए जा रहे हैं.
कौवे का श्राद्ध पक्ष मे धार्मिक महत्व
श्राद्ध पक्ष में शास्त्रों के अनुसार पिंडदान के साथ पंच ग्रास का महत्व बताया गया है. जिसमें गाय, श्वान, कौआ, मछली और कीट पतंगों को भोजन देने का महत्व है. जिसमें कौवे का भोजन महत्वपूर्ण माना गया है, मान्यता है कि, कौवा यमराज का प्रतीक है. धार्मिक मान्यताओं के अनुसार यदि कौआ आपके श्राद्ध का भोजन ग्रहण कर लेता है, तो आपके पितृ आपसे प्रसन्न और तृप्त माने जाते हैं यदि कौआ भोजन नहीं करता है तो इसका अर्थ है आपके पितृ आप से नाराज और अतृप्त हैं. धार्मिक मान्यताओं के अनुसार कौवे को देवपुत्र माना जाता है. व्यक्ति जब शरीर का त्याग करता है और उसके प्राण निकल जाते हैं, तो वो सबसे पहले कौवे का जन्म लेता है.
जाने कैसे पहुंची कम होने की कगार पर कौवों की प्रजाति
इन दिनों शहरों में पितृपक्ष के दिनों में कौवे के महत्व के चलते लोग घरों की छतों पर अन्य जल रख रहे हैं, लेकिन कौवे शहर में दिखाई नहीं दे रहे हैं, जो कि अब खत्म होने की कगार पर पहुंच गए हैं. जीव विज्ञान के प्रोफेसर रवि उपाध्याय बताते हैं कि, फसलों में डाली जाने वाले रसायन और चूहा मारने वाली दवा के चलते कौवे की मौत हो रही है. वहीं दुधारू पशुओं में दूध निकालने की क्षमता बढ़ाने के लिए दिए जाने वाला डाईक्लोफेन्स सोडियम रसायन से पक्षियों के अंडे के खोल खराब हो जाते हैं और बच्चे पैदा होने से ही पहले मर जाते हैं. गिद्ध और कौवा की संख्या कम होने का बहुत बड़ा कारण इसी दवा को माना जाता है.