दमोह। जिले में एक ऐसा मंदिर है, जिसका इतिहास काफी रोचक और आश्चर्य से भरा हुआ है. यह मंदिर जिला मुख्यालय से करीब 30 किलोमीटर दूर, दमोह और छतरपुर मार्ग पर नरसिंहगढ़ से दाहिने हाथ पर सीता नगर के आगे मढ़कोले में बना हुआ है. मढ़कोले ग्राम काफी प्राचीन है. कहा जाता है कि यहां पर पहले पत्थर के मढ़ बने हुए थे, जिसके कारण यहां का नाम कालांतर में मढ़कोलेश्वर हो गया. यहां पर भगवान शंकर का हजारों वर्ष पुराना मंदिर है. इसलिए मढ़ के ईश्वर होने के कारण गांव का नाम भी मढ़कोलेश्वर हो गया. यह भारत का एकमात्र ऐसा मंदिर है, जिसमें आज तक कलश नहीं रखा गया. कई बार लोगों ने मंदिर पर कलश स्थापना करने की कोशिश भी की लेकिन वह उसमें असफल रहे.
मढ़कोले को लेकर किवदंतियां प्रचलिति हैं: मढ़कोले के संदर्भ में दो किवदंतियां बहुत ही प्रचलित हैं. ऐसा कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण स्वयं देवताओं ने एक रात में किया था. यहां पर स्थित स्वयंभू शिवलिंग है. जब यह शिवलिंग प्रकट हुआ तो देवताओं ने यहां पर मंदिर बनाने का निर्णय लिया. तदनंतर देवताओं ने मंदिर का निर्माण शुरू किया. सुबह होते-होते तक मंदिर का निर्माण पूरा हो गया. लेकिन जैसे ही वह मंदिर के शिखर पर कलश रखने वाले थे कि इतने में ही सुबह हो गई. इसी बीच गांव में रहने वाली एक वृद्ध महिला ने जैसे ही अनाज पीसने के लिए चक्की चलाई तो उसकी आवाज सुनकर देवता अंतर्ध्यान हो गए. तभी से यह मंदिर कलश विहीन है.
पांडव से जुड़ा इतिहास: एक अन्य कथा के अनुसार ऐसा कहा जाता है कि जब महाभारत काल में पांडव जुए में अपना सब कुछ हार गए. तब वह शर्त के मुताबिक 12 वर्ष का वनवास काटते हुए यहां पहुंचे थे. उन्होंने जब इस गांव में आकर भगवान शिव का विराट शिवलिंग खुले चबूतरे पर देखा तो तो स्वयं देवताओं ने उन्हें वहां पर मंदिर बनाने का आदेश दिया. साथ ही यह शर्त भी रखी की मंदिर तभी पूर्ण हो सकता है. जब वह एक ही रात में बनकर तैयार हो जाए. यदि मंदिर निर्माण के पूर्व सूर्योदय हो गया तो उसका काम वहीं पर रुक जाएगा. देवताओं से आदेश पाकर पांडवों ने वहां पर पाषाण का मंदिर बनाना शुरू कर दिया. पूरी रात में मंदिर का निर्माण तो पूरा हो गया, लेकिन जैसे ही वह कलश स्थापना करने वाले थे. तभी सूर्योदय हो गया और इस तरह मंदिर में कलश स्थापित नहीं हो सका.
1 हजार पुराना मंदिर: कुछ लोगों का मानना है कि यह मंदिर 1000 साल पुराना तो कुछ लोगों का मानना है. यह मंदिर पांडवों के समय से बना है जो कि करीब 5000 वर्ष पुराना है. लोगों के बसने लायक बना दिया. श्रावण मास में यहां पर हर समय भक्तों की भीड़ बनी रहती है. दूर दराज से लोग अपनी मनोकामना लेकर यहां पर आते हैं. भगवान भोलेनाथ से अपनी अर्जी लगाते हैं. मनोकामना पूरी होने के बाद यहां पर आकर कहे गए वचन अनुसार उसका पालन करते हैं. मंदिर के ठीक सामने नंदी महाराज उसके सामने माता पार्वती जी विराजमान हैं. दाईं तरफ हनुमान जी एवं कुछ प्राचीन प्रतिमाएं विराजमान है. श्रवण के अलावा संक्रांति एवं महाशिवरात्रि पर्व पर यहां पर विशाल मेला लगता है. भगवान के दर्शनों की बहाने लोग यहां पर त्रिवेणी संगम में चलने वाली वोटो से जल विहार का आनंद लेते हैं.
तीन नदियों का अदभुत संगम: मंदिर के दक्षिण भाग में 3 नदियों का संगम है. सुनार, कोपरा और जूड़ी नदी का त्रिवेणी संगम होने के कारण यहां पर विभिन्न पर्वों पर विशाल मेला लगते हैं. ऐसा कहा जाता है कि शिवलिंग इतना विराट है. उसे लंबी से लंबी भुजा वाला व्यक्ति भी दोनों हाथों से पूरी तरह भेंट नहीं कर सकता है. नासिक के अलावा पूरे भारत में यही एकमात्र ऐसा स्थान है, जहां पर कालसर्प दोष और पितृ दोष का पूजन होता है.
मंदिर के नीचे नदी: नगर के प्रकांड विद्वान पंडित महेश पांडे बताते हैं कि "कई 50 वर्ष पूर्व तक मंदिर के गर्भ ग्रह में एक छेद बना हुआ था. जिसमें लोग सिक्का डालते थे. जब सिक्का नीचे गिरता था. तब उसमें से डुप की आवाज आती थी, जैसे कोई वस्तु धीरे से पानी में गिरी हो. कुछ इसलिए कुछ लोगों का यह भी मानना है कि मंदिर के नीचे से भी गुप्त नदी बहती है और वहां से गिरने वाला सिक्का सीधा नदी में पहुंचता है. स्थानीय लोग बताते हैं कि "त्रिवेणी संगम की गहराई कई लोगों ने नापने की कोशिश की, लेकिन उसमें वह असफल रहे एक बार मुंबई से भी गोताखोर आ चुके हैं, लेकिन उन्हें भी निराशा ही हाथ लगी.
संत की कृपा से बसा गांव: बताते हैं कि मढ़कोले वीरान होने के बाद वहां से आबादी पूरी तरह खत्म हो गई थी. जंगली जानवरों की वह शरण स्थल बन गया था. तब कई वर्ष पूर्व शिवोहम महाराज नाम एक संत वहां पर आए और उन्होंने अपनी तप साधना से उस क्षेत्र को जागृत की. मंदिर के वर्तमान पुजारी नीरज पाठक बताते हैं कि "करीब 1000 वर्ष से पुराना मंदिर है. उनकी सातवीं पीढ़ी यहां पर सेवा कर रही है. एक ही रात का बनाया गया मंदिर है. अपने पूर्वजों से उन्होंने सुना है कि इस मंदिर का निर्माण देवताओं ने किया था, लेकिन शिखर पर कलश स्थापना नहीं हो सकी. उसके बाद कई बार लोगों ने प्रयास तो किया लेकिन कलश आज भी नहीं रखा जा सका.