दमोह। छात्र राजनीति से अपनी दिशा और दशा तय करने वाले केंद्रीय राज्य मंत्री प्रहलाद पटेल एक बार फिर सुर्खियों में आ गए हैं. बुंदेलखंड और महाकौशल ही नहीं बल्कि पूरे प्रदेश में एकमात्र कद्दावर लोधी नेता के रूप में अपनी पहचान और धाक रखने वाले पटेल के साथ आखिर ऐसा क्या हुआ कि वह अपनी ही सरकार के निशाने पर आ गए? हाल ही में देश के कई नामचीन नेताओं के साथ केंद्रीय मंत्री पटेल और उनके स्टाफ के 18 लोगों के नाम पेगासस मामले (Pegasus Case) में सामने आए हैं. वे कौन से कारण थे जिन्होंने पटेल को ऊंचाइयां तो दीं, लेकिन साथ ही उन ऊंचाइयों से उनका विवाद भी जुड़ता गया. इसे जानने के लिए हमें चलना पड़ेगा कई साल पीछे राजनीति के उस दौर में जब स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी देश की प्रधानमंत्री हुआ करते थे.
सत्ता दिलाई पर सुख नहीं मिला
वर्ष 2003 में जब मध्यप्रदेश में आम चुनाव हुए तो, मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में केंद्रीय मंत्री उमा भारती को बीजेपी ने प्रोजेक्ट किया था. साथ ही साथ चुनाव के 1 साल पहले उमा भारती के उत्तराधिकारी के रूप में प्रहलाद पटेल को केंद्रीय कोयला राज्य मंत्री बना दिया गया. माना जाता है कि उमा और प्रहलाद की जोड़ी ने तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को सत्ता से बेदखल किया था, लेकिन उनकी यह जोड़ी लंबे समय तक नहीं टिक पाई.
नहीं बन सके सीएम
दरअसल, हुआ यह कि उमा भारती के मुख्यमंत्री बनने के कुछ दिन बाद ही हुबली की अदालत ने उन्हें तिरंगा अपमान के मामले में दोषी करार दिया था. तब केंद्र और प्रदेश के कुछ नेताओं ने मिलकर उमा भारती को पद से हटाने के लिए एक नई नीति पर अमल शुरू किया. उसका असर यह हुआ कि उमा भारती ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और वह निकल गई तिरंगा यात्रा पर. साथ ही उत्तराधिकारी के रूप में उन्होंने पटेल का नाम हाईकमान के सामने रखा, लेकिन बात कुछ बन नहीं सकी और बाबूलाल गौर को मुख्यमंत्री पद की कमान सौंप दी गई, लेकिन वह भी ज्यादा समय तक सत्ता का सुख नहीं भोग सके और शिवराज सिंह चौहान को मुख्यमंत्री बना दिया गया.
जब जनशक्ति ने किया बीजेपी का नुकसान
बता दें कि जब उमा भारती की तिरंगा यात्रा खत्म हुई तो उन्होंने एक बार पुनः अटल बिहारी वाजपेई और लालकृष्ण आडवाणी के समक्ष मुख्यमंत्री बनने की इच्छा जताई, लेकिन राह में रोड़े बहुत थे और वह मुख्यमंत्री नहीं बन सकी. सुषमा स्वराज, अरुण जेटली और प्रमोद महाजन नहीं चाहते थे कि उमा की पुनः वापसी हो. इसके अलावा शिवराज सिंह चौहान भी आसानी से पद छोड़ने वालों में से नहीं थे. लिहाजा मुख्यमंत्री पद की कुर्सी उनके हाथ से जाती रही. हालांकि, हाईकमान ने उन्हें पार्टी का महासचिव बना दिया, लेकिन वह इतने पर ही मानने को तैयार नहीं थी. बात होते-होते इतनी बढ़ गई कि उन्होंने पार्टी की बैठक में खुलेआम बगावत कर दी. अलबत्ता सदस्यों के दबाव में तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी ने उन्हें निष्कासित कर दिया.
जब पटेल ने बीजेपी में न जाने की खाई थी कसम
माना जाता है कि उमा भारती को नई पार्टी बनाने के लिए प्रेरित करने वाले यही दमोह सांसद एवं केंद्रीय राज्य मंत्री प्रहलाद पटेल थे. उन्होंने मदन लाल खुराना, पटेल और कुछ अन्य नेताओं को साथ लेकर जनशक्ति पार्टी का ऐलान कर दिया, लेकिन राह इतनी आसान नहीं थी जितनी कि उमा भारती समझ रही थी. समय बीतता गया और लोकसभा चुनाव निकट आ गए. हिंदुत्ववादी नेताओं और आरएसएस तथा स्वयं आडवाणी के दखल के बाद उमा भारती ने अपनी सारे प्रत्याशी मैदान से वापस हटा लिए. पेंच फंसा हुआ था तो केवल गुजरात में, क्योंकि उस समय गुजरात के प्रभारी थे पटेल और, उन्होंने स्पष्ट शब्दों में प्रत्याशियों के नामांकन वापस कराने या भाजपा को समर्थन देने से इंकार कर दिया था. इतना ही नहीं उन्होंने अपने एक बयान में यह भी कहा था कि अब वह जीवन में भूलकर भाजपा में कभी वापस नहीं जाएंगे, लिहाजा उस चुनाव में भाजपा को बहुत नुकसान उठाना पड़ा था।
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उमा की वापसी और प्रहलाद पटेल की यात्रा
गुजरात में पार्टी के प्रत्याशियों के नाम वापस न करने की बात को लेकर उमा भारती और प्रह्लाद पटेल में मनमुटाव इस कदर बढ़ गया कि, बाद में उमा भारती तो भाजपा में वापस लौट आईं. लेकिन पटेल नाराज होकर नर्मदा परिक्रमा पर निकल गए. हालांकि बाद में उनकी भी पार्टी में सम्मानजनक वापसी हो गई लेकिन दोनों के मन में पल रही खटास कम नहीं हुई. तब से चला आ रहा यह अलगाव अभी तक बरकरार हैं. गुजरात चुनाव में प्रत्याशी वापस न करने के कारण ही पहली बार मोदी कैबिनेट में प्रहलाद पटेल को जगह नहीं मिल सकी थी.