भोपाल। पैडमैन का वो फेमस डॉयलॉग तो आप अभी सभी ने सूना होगा जिसमें फिल्म की अभिनेत्री राधिका आप्टे कहती है " हम औरतों के लिए बीमारी से मरना शर्म के साथ जीने से बेहतर है.
लेकिन, फिल्म पैडमैन देखने के बाद भी हमारे समाज में महिलाएं माहवारी जैसे विषय पर खुलकर बोलने से कतराती है. जिसका एक बड़ा कारण है शर्म.इसी को लेकर रिपोर्टर नीलम गुरवे ने राजधानी भोपाल में यूथ से इसी विषय को लेकर बात की तो लड़कियों का कहना था शर्म और जागरुकता के अभाव में पैड का इस्तेमाल न करने से लेकर महिलाओं गंभीर बीमारियों से गुजर रही है.
मनसा नाम की संस्था के सदस्य अमय का कहना है भारत में पीरियड्स और सेक्सुअल हेल्थ को इनोर किया जाता है इसके बार में खुलकर बात या ऐजुकेट नहीं करते. मासिक धर्म या माहवारी को लेकर अब भी कई तरह ही भ्रंतियां हमारे समाज में फैली हुई है. हाल ही में गुजरात में घटती एक घटना में कॉलेज की लड़कियों को इनरवियर के लिए हटाने के लिए कहा गया. वो भी ये जानने के लिए कि उन्हें माहवारी हो रही है या नहीं. जिसका कॉलेज की छात्राओं ने विरोध भी किया.
बस्तियों की गरीब महिलाओं, लड़कियों को यह तक नहीं जानकारी है कि माहवारी होती क्या है और इससे जुड़ी बीमारियां कितनी घातक साबित होती है. महिलाओं और किशोरियों में इस विषय से जुड़ी जागरूकता लाने के लिए राजधानी भोपाल के कुछ युवाओं ने मिलकर एक समूह 'मनसा' बनाया है. इस समूह के सदस्यों ने बताया कि अब भी कई ऐसे पिछड़े क्षेत्र है जहां जागरूकता की बहुत ज्यादा जरूरत है.
समूह की सदस्य सौम्या ने बताती है कि महिलाएं और लड़कियां इस बारे में बात करने में अब भी हिचकिचाती है. समाज के शिक्षित वर्ग में इस बारे में जानकारी और जागरूकता है पर वहीं एक वर्ग ऐसा भी है जहां सूचनाओं का अभाव है.
लड़कियों को पता ही नहीं है कि माहवारी क्यों होती है.वहीं दीक्षा ने बताया कि हर महीने जब भी माहवारी का समय होता है हर एक लड़की को कई तरह ही स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं से गुजरना पड़ता है. यह बहुत मुश्किल होता है क्योंकि इसके लिए कोई छुट्टी भी नहीं मिलती.
हमें खुद ही सब मैनेज करके संभालना पड़ता है. पर अब ऐसा हुआ है कि पुरुषों में भी इस विषय को लेकर जागरूकता आयी है. समूह की एक अन्य सदस्य आकृति ने अपना अनुभव साझा करते हुए बताया कि जब हमने काम करना शुरू किया तो देखा कि ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं को अब भी इस बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है.
यहां तक कि शहरी क्षेत्रों में भी मजदूरी करने वाली महिलाएं भी कपड़े का इस्तेमाल करती है. सेनेटरी नेपकिन के बारे में न तो ज्यादा जानकारी है और न ही वह इसका इस्तेमाल करती है. वहीं योगिता का कहना है कि सरकार की जो योजनाएं महिलाओं को जागरूक करने और उन्हें सेनेटरी नेपकिन उपलब्ध कराने के लिए चलाई जा रही है असल मे तो उनका फायदा उन्हें मिल ही नहीं रहा है.
अमय का मानना है कि इस बात को अब भी टैबू मानते है जबकि मुझे नहीं लगता कि यह ऐसी कोई बड़ी बात है. यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया है और यह बात समझने की जरूरत है कि पुरुष और महिला दोनों वर्गों को इस विषय को लेकर समाज में फैली कुरीती को मिटाने में मदद करने चाहिए.