भोपाल। करतूत तो बीजेपी के कार्यकर्ता की थी...सीएम शिवराज को माफी क्यों मांगनी पड़ी...वो भी आदिवासी के पैर धोकर...इसमें दो राय नहीं कि ये शर्मनाक घटना थी...इस अमानवीय हरकत पर आरोपी को सख्त से सख्त सजा दी जाती, क्या इतना काफी नहीं था...क्यों सीएम को आदिवासी के पैरों तक आना पड़ा...ये वाकई एक आदिवासी के आत्मसम्मान की बात है, या ये फिक्र है कि आदिवासी पर जो बहाया गया, उसमें बीजेपी के आदिवासी वोट भी ना बह जाएं. जो कमजोर बेबस दिखाई दिया. उस आदिवासी की ताकत इतनी है कि वो 47 सीटों पर सीधे और 30 से ज्यादा सीटों पर अपनी प्रभावी मौजूदगी से सत्ता पलट की ताकत रखता है.
उस बेबस आदिवासी के पीछे की ताकत क्या है: जिस बेबस आदिवासी के साथ बदसलूकी की गई. उसके सुदामा बन जाने की कहानी क्या उसके जख्मों पर मरहम बन जाने तक की है. क्या सिर पर गिरी पेशाब का अपमान आघात पैर धोने से साफ हो जाएगा. कांग्रेस समेत विपक्षी दल सियासी गलियारों में इन सवालों के साथ हैं. सवाल ये कि इस हद तक संभालने की नौबत क्यों आई. अव्वल तो कानूनी एक्शन ही बहुत था. क्या सीधी के आदिवासी के पैर धोकर बीजेपी पर आए दाग धोने की कोशिश की गई. चुनाव एन पहले हुई ये घटना बीजेपी के लिए कितना बड़ा जोखिम है.
जयस ने उठाई आवास: जयस संगठन के प्रमुख हीरालाल अलावा कहते हैं आदिवासी की ताकत बहुत बड़ी है. अब तक वो कांग्रेस बीजेपी के बीच झूलता रहा लेकिन अब उसकी अपनी आवाज अपना संगठन जयस है. अब पढ़ा लिखा आदिवासी जागरुकता के साथ वोट बैंक की राजनीति में नहीं उलझने वाला है. वो जानता है कि उसका हित किसमें है. बीजेपी के रात में नेमार हत्याकांड से लेकर नीमच बमौरी आप देखिए एक के बाद एक आदिवासियों पर तेजी से अत्याचार बढ़े हैं. शिवराज सरकार आदिवासियों को सुरक्षा नहीं दे पा रही है. अलावा कहते हैं सीधी की घटना ने तो आदिवासियों को हिला दिया है. आदिवासी की चुनावी ताकत भी समझ लेनी चाहिए 47 रिजर्व सीटों के अलावा 30 से 35 सीटें ऐसी हैं, जहां सामान्य सीटों पर भी आदिवासी वोटर की संख्या तीस हजार से अस्सी हजार के लगभग है. अलावा बताते हैं जयस ने मध्यप्रदेश के सभी जिलों में सीधी के आरोपी पर कार्रवाई के लिए ज्ञापन दिया है.
आदिवासी अत्याचार के बढ़ते मामले और सीधी कांड: वरिष्ठ पत्रकार अरुण दीक्षित कहते हैं आदिवासियों पर अत्याचार के मामले में कटघरे में चल रहे शिवराज के लिए यह बहुत बड़ा झटका है. सरकार की छवि ठीक करने के साथ-साथ अब आदिवासी वोटरों को साधना उनके लिए बड़ी चुनौती है. इसी का सामना करने के लिए उन्होंने सीधी के आदिवासी को घर बुलाकर उसके पांव पखारे हैं. धोवन को माथे से लगाया है. साथ ही पूरी दुनिया को दिखाया है, जिस पानी को वे माथे से लगा रहे थे, उसमें वे आदिवासी मतदाताओं की छवि देख रहे होंगे. बीजेपी का एक कमजोर पक्ष यह भी है कि आज एमपी में उसके पास एक सर्वमान्य आदिवासी नेता नहीं है. राज्य के आदिवासी भी यह जानते हैं. अब उनकी जागरूकता का डर भी बीजेपी को परेशान कर रहा है.
उपवास के बाद पांव पखार लिए नया क्या किया: वरिष्ठ पत्रकार दिनेश गुप्ता कहते हैं सीएम शिवराज इस तरह की सियासत के मास्टर माने जाते हैं. जब मंदसौर में किसानों पर गोली चली थी. तब उपवास पर बैठे थे. हर बार वे नए अवतार में आते हैं और ये अवतार दाग छिपाने के लिए होता है. सरकार के चेहरे की चमक बढ़ाने के लिए. बलात्कार के मामले में फांसी इसी तरह के फैसले हैं. इस समय ओबीसी मध्यप्रदेश में बंट चुका है. उच्च जातियां जो हैं, वो भी बीजेपी से खिसकी हैं. ऐसे में आदिवासी की नाराजगी का जोखिम बीजेपी नहीं ले सकती.
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सत्ता के लिए हर एक आदिवासी जरुरी होता है: राजनीति में जैसे जहां दम वहां हम का मामला है. वैसे ही एमपी में जहां आदिवासी वहां सत्ता पक्की मानिए. मध्यप्रदेश में 47 सीटें तो सीधे तौर पर आदिवासी आरक्षित सीटे हैं. लेकिन अगर 35 के करीब उन सामान्य सीटों को भी जोड़ लिया जाए, जहां आदिवासी वोटर तीस हजार से अस्सी हजार की क्षमता के साथ प्रभावी वोटर हैं तो ये संख्या 82 तक पहुंचती है. 2018 में कांग्रेस की जीत की बड़ी वजह पार्टी का आदिवासी सीटों पर अच्छा परफार्मेंस था. बीजेपी ने 80 से ज्यादा आदिवासी बाहुल्य वाली सीटों में से केवल 34 सीटों पर जीत दर्ज की. हालांकि 2013 में ये आंकड़ा 59 के करीब था.
ये हैं वो सामान्य सीटें जहां आदिवासी निर्णायक: मध्यप्रदेश की 47 सीटें तो पूरी तरह आदिवासी वर्ग की आरक्षित सीटे हैं, लेकिन जिन सीट पर सामान्य होने के बावजूद आदिवासी वोटर निर्णायक स्थिति में है. उनमें गुना सीट, बम्हौरी सीट, दमोह की जबेरा विधानसभा सीट, धार की बदनावर, रायसेन जिले की सिलवानी सीट, सिवनी मालवा के अलावा भोजपुर की सीट है, जहां 25 हजार से 80 हजार तक आदिवासी वोटर प्रभावी हैं.