भोपाल. पिछले एक दशक में बढ़ते तापमान को लेकर भारतीय विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान भोपाल ने संयुक्त तौर पर हैदाराबाद स्थित इंटरनेशनल मक्का और गेंहू सुधार केंद्र और मिशिगन विवि के साथ एक रिसर्च की है. इस रिसर्च में सैटेलाइट तकनीक का उपयोग किया गया है. इसके जरिए कृषि में जलाए जाने वाले अवशेषों से उत्पन्न ग्रीन हाउस गैसों के बारे में जानकारी जुटाई गई है. इसमें बताया गया है कि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के मामले में पंजाब और दूसरे नंबर पर मध्यप्रदेश है. बता दें, भारत में हर साल 87.0 मिलियन टन फसल अवशेषों को जलाया जाता है. यानि पड़ोसी देशों की पराली से भी ज्यादा है.
75% तक बढ़ा ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन: रिसर्च में पाया गया कि पिछले एक दशक में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में 75% आश्चर्यजनक बढ़ोत्तरी हुई है. इसमें सबसे ज्यादा 97% पराली चावल, गेहूं और मक्के की फसल से उत्पन्न हुई है, जिसके उत्सर्जन से इतनी बढ़ोतरी देखने को मिली है.
IISIR के रिसर्च स्कॉलर मोनिश देशपांडे ने बताया- भारत सरकार ने फसलों की पराली को जलाने की प्रक्रिया को कम करने के लिए की उपाय लागू किए हैं. इसमें किसानों को फसलों के अवशेष न जलाने के लिए प्रोत्साहन और जैव ईंधन को बढ़ावा देना शामिल है. इन मामलों में साल 2014-2015 में कमी भी देखने को मिली थी. लेकिन, साल 2016 में फिर बढ़ोतरी हुई. ऐसे में अब अधिक टिकाऊ नीतियों को अपनाने की जरूरत है.
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रिसर्च में कई बातें आई सामने: रिसर्च में पता चला है कि कैसे डेटा को सैटेलाइट के जरिए जुटाया गया है. इसके अलावा कैसे डेटा, लाइड और इलेक्ट्रोमैग्नेटिक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन का सटीक अनुमान लगा सकते हैं. इसके अलावा कई चुनौतियां बढ़ गई हैं. इनमें पराली जलाने का बंदोबस्त कैसे किया जाए. क्योंकि पराली जलाने से पर्यावरण पर संकट खड़ा हो रहा है.
भोपाल की असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. धान्यलक्ष्मी के. पिल्लई ने बताया- "फसलों के अवशेष जलाने के घातक परिणाम होते हैं. इससे वायुमंडल में प्रदूषण और ग्रीनहाउस गैसों में बढ़ोत्तरी होती है. इसका जलवायु, सार्वजनिक स्वास्थ्य और खाद्य सुरक्षा पर गंभीर और प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है. वर्तमान कृषि पद्धतियाँ टिकाऊ नहीं हैं और इनको बदलना आवश्यक है. इसलिए इसमें पर्याप्त तकनीक का इस्तेमाल करना अत्यंत महत्वपूर्ण हैं"
"अवशेष जलाने के पिछले आकलन किसानों द्वारा जलाए जाने वाले फसलों के अवशेषों के अनुमानों पर निर्भर थे. जबकि इस अध्ययन में उपग्रह और डेटा के अन्य रूपों का उपयोग किया गया ताकि यह पता चल सके कि कौन सी फसलें उगाई जाती हैं, और कब उगाई जाती हैं, और 2011 से 2020 तक वास्तविक जिला-स्तरीय कृषि जलाए गए क्षेत्र और संबंधित उत्सर्जन पर ध्यान केंद्रित करते हुए विभिन्न जिलों में इस प्रौद्योगिकी का उपयोग कैसे किया गया है."
आईआईएस्ईआर भोपाल की अगुवाई में हुई रिसर्च: रिसर्च को लीड करने वाले रिसर्चर मोनिश देशपांडे का कहना है कि इस शोध में आईआईएसईआर भोपाल के मैक्स प्लांक पार्टनर ग्रुप की सहायक प्रोफेसर और हेड डॉ. धान्यलक्ष्मी के. पिल्लई ने मार्गदर्शक की भूमिका निभाई है. इस अध्ययन को प्रतिष्ठित पीयर-समीक्षित पत्रिका "साइंस ऑफ़ टोटल इनवॉयरर्मेंट" में प्रकाशित किया गया है. इस पेपर को तैयार करने में मोनिश विजय देशपांडे, नीतीश कुमार, डॉ. धान्यलक्ष्मी के. पिल्लई, विजेश वी. कृष्णा और मीहा जैन की विशेष भूमिका रही है. यह सभी शोधकर्ता आईआईएसईआर भोपाल, अंतर्राष्ट्रीय मक्का और गेहूं सुधार केंद्र (हैदराबाद) एवं मिशिगन विश्वविद्यालय से संबंधित हैं.