भिंड। जिस चंबल को कभी डाकुओं के लिए पहचाना जाता था, अपराध की दुनिया में आज भी उसका उतना ही खौफ है. लेकिन ऐसा भी नहीं है कि चंबल की छवि कभी बदलने की कोशिश नहीं की गई हो. शासन-प्रशासन ने यहां विकास के लिए तमाम कोशिशें की, योजनाएं चलाईं. लेकिन उसे धरातल पर उतारना सबसे बड़ी चुनौती साबित हुआ. भिंड में देश की सबसे स्वच्छ चंबल नदी है. घड़ियाल सेंचुरी है. चंबल नदी में डोलफिन जैसी दुर्लभ प्रजाति की मछलियां तक देखने को मिल जाती हैं. यही वजह थी कि, कछुआ पालन प्रोजेक्ट जैसी महत्वपूर्ण योजना भिंड में शुरू की गई. लेकिन देखते ही देखते ये योजना ठंडे बस्ते में चली गई.
गंगा की सफाई के लिए शुरू हुआ था प्रोजेक्ट
साल 2016 में भिंड के बरही गांव में चंबल नदी किनारे राष्ट्रीय चंबल अभ्यारण्य में मांसभक्षी कछुआ संरक्षण योजना के तहत कछुआ पालन केंद्र का शुभारंभ किया गया था. केंद्र को स्थापित करने का उद्देश्य था, विशेष और विलुप्त प्रजाति के कछुओं और उनके अंडों को संरक्षित कर उन्हें बड़ा करना. कछुओं के बड़े पर इन्हें गंगा नदी में छोड़ा जाना था. ताकि ये मांसाहारी कछुए गंगा नदी में मारे हुए जीव जंतुओं को खाकर उसकी सफाई करें.
चंबल में मिलते हैं विलुप्त प्रजाति के कछुए
राष्ट्रीय चंबल अभ्यारण्य में 9 प्रजाति के कछुए पाए जाते हैं, जिनमें ज्यादातर विलुप्त प्रजातियों के हैं. मांसभक्षी कछुआ संरक्षण योजना के तहत बरही केंद्र पर 3 विशेष प्रजातियों के कछुओं को शामिल किया गया था. पहला, रेड क्राउन-रूफ्ड टर्टल जिसे बाटागुर भी कहते हैं, दूसरा इंडियन नेरो-हेडेड सॉफ्टशेल टर्टल जिसे सिंतार नाम से भी जाना जाता है, और तीसरी प्रजाति इंडियन सॉफ्टशेल टर्टल है जिसे निल्सोनिया भी कहते हैं. इन तीनों प्रजातियों के 500 से ज्यादा अंडे और कुछ कछुए चंबल नदी और सांकरी हेचरी से लाए गए थे.
अनदेखी से नष्ट हुए अंडे
डेढ़ करोड़ रुपए की लागत से शुरू हुए इस प्रोजेक्ट पर फॉरेस्ट और चंबल सेंचुरी के अधिकारियों ने काफी मेहनत भी की थी. इन अंडों और कछुओं के अनुसार माहौल भी तैयार किया गया. विशेष केज बनाए गए. लेकिन फिर अधिकारियों की इस ओर सक्रियता कम होती गई. और महज चंद कर्मचारी और एक डॉक्टर के भरोसे पूरा केंद्र छोड़ दिया गया. जिसका नतीजा यह रहा कि, साल 2018-19 तक 400 से ज्यादा अंडे नष्ट हो गए. कछुओं के बच्चे भी धीरे-धीरे मरने लगे.
मामले को दबाने की हुई कोशिश
कछुओं के बच्चे और अंडे जब नष्ट होने लगे, तो अधिकारियों ने बचे हुए करीब 270 अंडे और बच्चों को मुरेना के देवरी सेंटर में शिफ्ट कर दिया. राष्ट्रीय स्तर की योजना का जिस तरह से भंटाधार हुआ, इसकी खबर ना फैले इसलिए जिस डॉक्टर को जिम्मेदारी सौंपी गई थी उनका ट्रांसफर कर दिया गया. आज इस केंद्र पर एक भी कछुआ नहीं है. इसकी देखरेख भी महज एक प्रभारी और एक कर्मचारी के भरोसे है. वहीं मसले पर एक कर्मचारी का कहना था कि, योजना की लागत जरूर डेढ़ करोड़ थी लेकिन शुरुआती दौर में 70 लाख रुपए का ही फंड मिला था. उसके बाद कोई फंड भी रिलीज नहीं किया गया.