ग्वालियर। हिंदुस्तान की सियासत में जब भी नामी राजघरानों की बात होती है तो ग्वालियर रियासत का नाम अदब से लिया जाता है. राजे-रजवाड़ों का दौर रहा हो या लोकतंत्र, इस राजघराने की ताकत कभी कम नहीं हुई. ग्वालियर लोकसभा सीट पर भी इस घराने का वर्चस्व कभी कम नहीं हुआ. जहां एक ओर यहां की जनता ने सिंधिया राजघराने पर अपना प्यार लुटाया तो वहीं दूसरी ओर ग्वालियर की धरती से उठे नेताओं ने पूरे देश को अपनी चमक से रोशन किया.
अगर बात की जाए ग्वालियर लोकसभा सीट के चुनावी इतिहास की तो 1952 में इस सीट पर हुए पहले चुनाव में भारतीय हिंदू महासभा ने जीत दर्ज की. लेकिन, पांच साल बाद ही 1957 में पूरे देश की तरह ही यहां भी कांग्रेस का कब्जा हो गया. 1962 में राजमाता विजयराजे सिंधिया ने कांग्रेस की ओर से ग्वालियर सीट को फतेह करने की जिम्मेदारी अपने कंधों पर ली. लेकिन, 1967 में ये सीट जनसंघ के खाते में चली गई. 1971 में एक बार फिर अटल बिहारी वाजपेयी ने जनसंघ का झंडा बुलंद किया.
1977 और 1980 में एनके शेजवलकर पहले भारतीय लोकदल और बाद में जनसंघ से ग्वालियर के सांसद बने. 1984 में सिंधिया राजघराने के जरिये ये सीट एक बार फिर कांग्रेस के कब्जे में आई, क्योंकि इस बार राजमाता के बेटे माधव राव सिंधिया कांग्रेस की ओर से चुनावी मैदान में थे. खास बात ये कि इस चुनाव में माधवराव सिंधिया ने अटल बिहारी वाजपेयी को शिकस्त दी. 1984 के बाद, 1989, 1991, 1996 और 1998 तक पांच चुनावों में माधवराव सिंधिया ने इस सीट पर अपना कब्जा बरकरार रखा. हालांकि 1996 का चुनाव उन्होंने कांग्रेस की बजाय अपनी बनाई पार्टी मध्यप्रदेश विकास कांग्रेस से लड़ा था.
1999 के लोकसभा चुनाव में जयभान सिंह पवैया के जरिये ये सीट पहली बार बीजेपी के खाते में आई. 2004 में ही कांग्रेस ने यहां फिर से विजयी वापसी की. लेकिन, 2007 में हुए उपचुनाव में एक बार फिर ये सीट राजघराने और बीजेपी के हिस्से आ गई. यहां से बीजेपी ने यशोधरा राजे को प्रत्याशी बनाया था, जिन्होंने 2009 के लोकसभा चुनाव में भी अपना कब्जा बरकरार रखा. 2014 के लोकसभा चुनाव में भी बीजेपी के ही नरेंद्र सिंह तोमर ने ग्वालियर में पार्टी का दबदबा बनाए रखा.
अगर बात की जाए इस बार के लोकसभा चुनावों की तो चर्चा है कि यहां से ज्योतिरादित्य सिंधिया भी कांग्रेस की ओर से मोर्चा संभाल सकते हैं. अगर ऐसा होता है तो बीजेपी को सीट बचाने के लिए कड़ी चुनौती मिलने की संभावना है. वो भी तब ये बात और अहम हो जाती जब आंकड़े बताते हैं कि इस सीट पर कोई भी पार्टी जीते-हारे, सिंधिया राजघराने का प्रभाव कभी कम नहीं हुआ.