झांसी: महारानी लक्ष्मीबाई करीब 164 साल पहले अंग्रेजों से युद्ध करते समय वीरगति को प्राप्त हुई थी, मगर आज न सिर्फ झांसी बल्कि पूरा देश उनकी शौर्यगाथा को नहीं भूला है. आज भी समाज की कोई महिला अपना पराक्रम दिखाती है, तो बरबस ही लोग उसे झांसी की रानी बोल उठते हैं. सदियां बीत गईं मगर झांसी की रानी लक्ष्मीबाई आज भी शौर्य, पराक्रम और मातृत्व धर्म की पहचान बनी है.
महारानी लक्ष्मी बाई का जन्म काशी में 19 नवंबर 1835 को हुआ था. उनके पिता मोरोपंत तांबे चिकनाजी अप्पा के आश्रित थे. उनकी माता का नाम भागीरथी बाई था. महारानी के पितामह बलवंत राव भी बाजीराव पेशवा की सेना में सेनानायक थे. इसक कारण मोरोपंत पर भी पेशवा की कृपा रहने लगी थी. लक्ष्मी बाई अपने बाल्यकाल में मनुबाई के नाम से जानी जाती थी. सन 1838 में गंगाधर राव को झांसी का राजा घोषित किया गया. गंगाधर राव विधुर थे. सन 1850 में मनुबाई से उनका विवाह हुआ. सन 1851 में उनको पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई. 4 माह बाद ही उनके बेटे का निधन हो गया, इससे सारी झांसी शोक में डूब गई. बेटे की मौत से आहत राजा गंगाधर राव बीमार रहने लगे और 21 नवंबर 1853 को उनका निधन हो गया.
महाराजा का निधन महारानी के लिए असहनीय था लेकिन उन्होंने विवेक नहीं खोया. राजा गंगाधर राव ने अपने जीवन काल में ही अपनी परिवार के बालक दामोदर राव को दत्तक पुत्र घोषित किया. रानी ने इस फैसले की जानकारी ईस्ट इंडिया कंपनी को दी. इतिहासकार एस के दुबे के अनुसार, फरवरी 1854 को लॉर्ड डलहौजी ने दामोदर राव को झांसी का वारिस मानने से इनकार कर दिया और झांसी को अंग्रेजी राज्य में मिलाने की घोषणा कर दी. जब रानी लक्ष्मीबाई को पॉलिटिकल एजेंट से यह जानकारी मिली तो उन्होंने ऐलान कर दिया कि "मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी"
7 मार्च 1854 को झांसी पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया . झांसी की रानी ने पेंशन अस्वीकृत कर दी और नगर के राजमहल में निवास करने लगी. यहीं से भारत की प्रथम स्वाधीनता क्रांति का बीज प्रस्फुटित हो गया. राजे राजवाड़ों पर कब्जा करने की नीति के कारण उत्तरी भारत के नवाब और महाराजे असंतुष्ट हो गए. फिर पूरे देश में विरोध की चिंगारी सुलगने लगी. रानी लक्ष्मीबाई ने इसको स्वर्ण अवसर माना और क्रांति की लौ को ज्वाला में बदल दिया.
उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह करने की योजना बनाई. अवध के नवाब वाजिद अली शाह की बेगम हजरत महल, अंतिम मुगल सम्राट की बेगम जीनत महल, मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर, नानासाहेब के वकील अजीमुल्ला शाहगढ़ के राजा, भानपुर के राजा मर्दन सिंह और तात्या टोपे आदि महारानी लक्ष्मीबाई को सहयोग देने की कोशिश की. तय किया गया कि 31 मई 1857 को विद्रोह को संगठित रूप से शुरू किया जाएगा, मगर भारत की जनता में विद्रोह की ज्वाला भभक गई. 7 मई 1857 को मेरठ में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह मुखर हो गया. 4 जून 1857 को कानपुर में विद्रोह का बिगुल बज गया था.
28 जून 1857 को कानपुर स्वतंत्र हो गया. अंग्रेजों के कमांडर सर ह्यूरोज ने अपनी सेना के साथ विद्रोह को दबाने की कोशिश की. अंग्रेजों ने सागर गढ़ाकोटा, शाहगढ़, मदनपुर, मडखेड़ा, वानपुर और तालबेहट पर कब्जा कर लिया और इन इलाकों में अत्याचार शुरू कर दिए. फिर अंग्रेजी सेना झांसी की ओर बढ़ी और कैमासान पहाड़ी के मैदान में पूर्व और दक्षिण के बीच मोर्चाबंदी कर दी. इतिहासकार एस के दुबे के अनुसार, रानी लक्ष्मीबाई पहले से ही सतर्क थी. उन्हें वानपुर के राजा मर्दन सिंह से भी इस युद्ध की सूचना तथा उनके आगमन की सूचना प्राप्त हो चुकी थी.
23 मार्च 1858 को झांसी का ऐतिहासिक युद्ध आरंभ हुआ. कुशल तोपची गुलाम गौस खां ने झांसी की रानी के आदेशानुसार तोपों के लक्ष्य साध कर ऐसे गोले फेंके की पहली बार में ही अंग्रेजी सेना के छक्के छूट गए. रानी लक्ष्मीबाई ने 7 दिन तक वीरता पूर्वक झांसी की सुरक्षा की, और अपनी छोटी सी सशस्त्र सेना से अंग्रेजों का बड़ी बहादुरी से मुकाबला किया. रानी ने खुले रूप से शत्रु का सामना किया और युद्ध में अपनी वीरता का परिचय दिया. वह अकेले ही अपनी पीठ के पीछे दामोदर राव को कस कर घोड़े पर सवार हो अंग्रेजों से युद्ध करती रहीं.
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बहुत दिन तक युद्ध का क्रम इस प्रकार चलना असंभव था. सरदारों का आग्रह मानकर रानी ने कालपी प्रस्थान किया। वहां जाकर वे शांत नहीं बैठी उन्होंने नानासाहेब और उनके योग सेनापति तात्या टोपे से संपर्क स्थापित किया. रानी की वीरता और साहस का लोहा अंग्रेज मान गए. अंग्रेजों ने रानी का पीछा किया. रानी का घोड़ा बुरी तरह घायल हो गया और अंत में वीरगति को प्राप्त हुआ. रानी झांसी ने साथ नहीं छोड़ा और शौर्य का प्रदर्शन किया कालपी में महारानी और तात्या टोपे ने योजना बनाई . अंत में नाना साहब शाहगढ़ के राजा भानपुर के राजा मर्दन सिंह आदि सभी ने रानी का साथ दिया. रानी ने ग्वालियर पर आक्रमण किया और वहां के किले पर अधिकार कर लिया. विजयोल्लास उत्सव कई दिनों तक चलता रहा. लेकिन रानी उत्सव के विरुद्ध थी. वह इस समय में अपनी शक्ति और संगठित कर अगला कदम बढ़ाने की तैयारी करना चाहती थीं.
इस बीच अंग्रेजों का कमांडर सर ह्यूरोज अपनी सेना के साथ संपूर्ण शक्ति से रानी का पीछा करता रहा. आखिरकार वह दिन भी आ गया जब उसने ग्वालियर का किला घमासान युद्ध करके अपने कब्जे में ले लिया. रानी लक्ष्मीबाई ने इस युद्ध में भी अपना जौहर दिखाया. 18 जून 1858 को ग्वालियर का अंतिम युद्ध हुआ. उसी समय अंग्रेजों ने उन पर हमला कर दिया. इसी दौरान रानी का एक सैनिक उनको लेकर पास के एक सुरक्षित मंदिर में पहुंचा, जहां पुजारी से रानी ने बेटे दामोदर की रक्षा करने का वचन मांगा. साथ में यह हिदायत दी कि अंग्रेजों को उनका शरीर नहीं मिलना चाहिए. इतना कहते हुए रानी ने प्राण त्याग दिए. वीरगति के बाद वहां मौजूद रानी के अंग रक्षकों ने आनन-फानन में लकड़ियां इकट्ठा कर रानी के पार्थिव शरीर का अंतिम संस्कार कर दिया. रानी तो बहादुरी से लड़ते हुए चली गईं मगर अपने पीछे स्वतंत्रता के लिए बलिदान का संदेश छोड़ गईं.
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