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दिल्ली विश्वविद्यालय के 100 साल पूरे होने पर पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह ने साझा कीं पुरानी यादें

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Published : Jul 4, 2022, 5:53 PM IST

1922 में बनी दिल्ली यूनिवर्सिटी इस साल सौ बरस की हो चुकी है. इस यूनिवर्सिटी की शुरुआत तीन कॉलेजों सेंट स्टीफेंस, रामजस और हिंदू कॉलेज से हुई थी. 'ईटीवी भारत' के नेशनल ब्यूरो चीफ राकेश त्रिपाठी ने इस मौके पर मशहूर राजनेता और पूर्व विदेश मंत्री कुंवर नटवर सिंह (Natwar Singh) से बातचीत की. नटवर सिंह ने 1948 से 1951 तक सेंट स्टीफेंस में बीए की पढ़ाई की और फिर आगे की पढ़ाई के लिए कैंब्रिज यूनिवर्सिटी चले गए. पंडित नेहरू के करीब रहे और बाद में भारतीय विदेश सेवा में सेलेक्ट हुए. उन्होंने अपने पुराने कॉलेज के दिनों की यादें हमसे साझा कीं. आप भी देखिए.

natwar singh
कुंवर नटवर सिंह

नई दिल्ली : पूर्व केंद्रीय मंंत्री और पूर्व कांग्रेस नेता कुंवर नटवर सिंह ने अपने पुराने कॉलेज के दिनों की यादें ताजा कीं. कॉलेज का पहला दिन कैसा बीता इसके बारे में बताया. वहां की टेनिस, फुटबॉल, क्रिकेट, हॉकी, एथलेटिक्स सभी खेलों का हिस्सा रहे नटवर सिंह का मानना है कि कॉलेजों में स्टूडेंट्स की संख्या अगर बढ़ती है तो उत्कृष्टता प्रभावित होती है. पाकिस्तान में तैनात रहने का अनुभव कैसा रहा इसे भी साझा किया. कुंवर नटवर सिंह ने ये भी बताया कि पाकिस्तान के जनरल ज़िया-उल-हक़ को फख्र था कि वह दिल्ली यूनिवर्सिटी से पढ़े हैं.

नटवर सिंह से खास बातचीत

सवाल- दिल्ली यूनिवर्सिटी 100 साल की हो गई है. आप उसी दिल्ली यूनिवर्सिटी के मशहूर कॉलेज सेंट स्टीफेंस के छात्र रहे हैं. कैसे याद करते हैं अपने यूनिवर्सिटी के दिनों को.
जवाब- सेंट स्टीफेंस नॉर्थ इंडिया में नंबर वन कॉलेज है, इसमें कोई दो राय नहीं. जब मैं 1948 में दाखिल हुआ था, 390 स्टूडेंट्स थे. 120 हॉस्टल में और बाकी डे स्कॉलर. इंग्लिश स्टाफ में तीन टीचर थे. हालांकि है क्रिश्चियन कॉलेज, लेकिन वो किसी को इस बात के लिए प्रभावित करने की कोशिश नहीं करते थे कि आप हमारा धर्म अपना लीजिए. इसका बड़ा फर्क पड़ता था. एकेडेमिक रिकॉर्ड कॉलेज का बहुत बढ़िया था, इसमें भी कोई दो राय नहीं है. मैं खुद कॉलेज में हिस्ट्री लेकर फर्स्ट क्लास आया. मैं कॉलेज की स्टूडेंट यूनियन का प्रेसिडेंट भी था. मैं दिल्ली यूनिवर्सिटी का टेनिस चैम्पियन था, दिल्ली स्टेट का जूनियर टेनिस चैम्पियन भी था, मैं फुटबॉल टीम में था, हॉकी में था, क्रिकेट टीम में था, एथलेटिक्स की टीम में भी था. फिर आईएएस, आईएफएस और फौज जैसी दूसरी बड़ी नौकरियों में भी सेंट स्टीफेंस के छात्र खूब सेलेक्ट होते थे. अब तो वहां करीब 1200 छात्र हो गए हैं, जो कि बहुत ज़्यादा है. अगर मैं होता प्रिंसिपल तो मैं संख्या बढ़ने नहीं देता. When numbers increase, excellence suffers.

सवाल- आपका जो पहला दिन था अपने कॉलेज का, कुछ याद है आपको?
जवाब- मैं तो हॉस्टल में था. पहले दिन तो वो रैंगिंग-वैगिंग होती है थोड़ी सी, वही हुई. किसी को कह दिया कि गाना सुनाओ या किसी को गलत बस नंबर दे दिया. रैगिंग एक-दो हफ्ते बाद खत्म हो गई. रैगिंग कोई मार-पीट वाली नहीं होती थी, बहुत सिविलाइज़्ड तरीके से होती थी. फिर अगले साल हमने की जूनियर्स की रैगिंग. तीन साल मैंने दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ाई की, फिर मैं आगे की पढ़ाई के लिए कैंब्रिज यूनिवर्सिटी चला गया.

सवाल- अपने कॉलेज फिर कभी जाना हुआ आप का ?
जवाब- मैं अक्सर जाता रहा. 20 बरस पहले तक जाता रहा सेंट स्टीफेंस. जब तक हमारे वक्त के टीचर्स रहे वहां. अब तो कुछ गुज़र गए, कुछ रिटायर हो गए, लेकिन कॉलेज छोड़ने के करीब 20-25 साल बाद तक मैंने सीधा सम्पर्क रखा कॉलेज और यूनिवर्सिटी के साथ.

सवाल-आपके कॉलेज के ही जनरल जिया-उल-हक भी थे. कभी नौकरी के दौरान या राजनीति में आने के बाद आपकी मुलाकात उनसे हुई?
जवाब- मैं तो पाकिस्तान में एम्बेसेडर था. ज़िया-उल-हक़ साहब को बड़ा फख्र था कि वो सेंट स्टीफेंस के पढ़े हैं. उनसे काफी मुलाकातें मेरी हुईं. सब काम छोड़ के वो कॉलेज की बात करने लगते थे. एक बार सेंट स्टीफेंस के छात्रों का एक दल पाकिस्तान घूमने गया. मैं उन दिनों इस्लामाबाद में ही भारत का एम्बेसेडर था और प्रेसीडेंट साहब से मेरे अच्छे ताल्लुकात थे. मैंने उनसे कहा, सर सेंट स्टीफेंस कॉलेज के कुछ लड़के और कॉलेज के प्रिंसिपल आए हैं और आपसे मिलना चाहते हैं, दस मिनट का समय दे दीजिए. जनरल साहब बोले- दस मिनट ? मैं खाना खिलाऊंगा उनको शाम को. We will have dinner with them. मैंने उन लोगों को बताया नहीं वर्ना वे तो विश्वास ही नहीं करते कि उन्हें पाकिस्तान के प्रेसिडेंट के साथ डिनर का मौका मिल रहा है. खैर शाम को जब डिनर के लिए गए, तो वहां चार कैबिनेट मिनिस्टर्स थे, पांच वाइस चांसलर्स भी मौजूद थे. लड़के दंग रह गए कि हमारे लिए ये इतना बड़ा डिनर रख लिया प्रेसिडेंट ने. प्रिंसिपल साहब अपने साथ 1942 का एक ग्रुप फोटो लाए थे, जिसमें ऊपर एक कोने में ज़िया-उल-हक खड़े दिख रहे थे. प्रिंसिपल ने बताया कि इस फोटो में ये आप हैं. वो फोटो उन्होंने अपनी आंखों से लगाया कि भई मेरे पास तो ये फोटो था ही नहीं. क्योंकि उस समय इस फोटो के लिए मुझे दो रुपये देने पड़ते, जो मेरे पास थे नहीं. उन्होंने शुक्रिया कहा. फिर जनरल साहब ने उन लड़कों से पूछा कि आप कहां जा रहे हैं. लड़कों ने बताया कि हम कल मोहनजोदाड़ो जाएंगे और फिर कराची जाएंगे. जनरल साहब ने पूछा कि कैसे जा रहे हैं आप लोग. लड़कों ने बताया कि ट्रेन से जाएंगे. डिया-उल-हक ने अपने एडीसी को बुलाया और कहा – ये मेरे पर्सनल हवाई जहाज़ में जाएंगे. ऐसी मोहब्बत थी दिल्ली यूनिवर्सिटी के लिए. भारत-पाकिस्तान के रिश्ते अच्छे नहीं थे, लेकिन इतनी तहज़ीब मैंने किसी में नहीं देखी.

सवाल- लेकिन वो तो बड़े गुस्से वाले माने जाते थे?
जवाब- नहीं, बड़ी तहज़ीब वाले थे. मैं तो एम्बेसेडर था वहां. मुलाकात के बाद मुझे छोड़ने आते थे कार तक. मैं कहता था सर ये क्या कर रहे हैं आप. वो कहते थे कि नहीं, आप यहां आए हैं तो मेरे मेहमान हैं. मैं कहता था कि सर बात ये है कि मेरा ड्राइवर जो है, बहुत घबरा रहा है. वो गाड़ी नहीं चला पाएगा. वो हंसते हुए कहते थे, नहीं-नहीं, ऐसी बात नहीं, चलाएगा वो. जनरल जिया-उल-हक सभी के साथ बड़ी तहज़ीब से पेश आते थे.

सवाल- कॉलेज में कितने साल सीनियर रहे होंगे वो आपसे ?
जवाब- वो 1947 में पाकिस्तान चले गए थे. मैं सेंट स्टीफेंस में 1948 में दाखिल हुआ. उनकी सारी शिक्षा यहीं दिल्ली में ही हुई थी. एक बार का वाक़या है कि हर साल गुरु नानक देव के जन्मदिन पर पांच-छह सिखों का जत्था यहां से ननकाना साहब जाता था. ननकाना साहब से वो जत्था इस्लामाबाद भी जाता था प्रेसीडेंट साहब से मिलने के लिए. उनके साथ हमारे विदेश मंत्रालय का एक अंडर सेक्रेटरी भी जाता था, लेकिन मेरे बतौर एम्बेसेडर वहां रहने के दौरान ये सिख जत्था जब प्रेसिडेंट से मिलता था, तो उस मीटिंग में हमारे विदेश मंत्रालय का कोई अफसर नहीं रहता था. मेरे समय में जो अंडर सेक्रेटरी जत्थे के साथ आईं वो लक्ष्मी पुरी थीं. प्रेसिडेंट साहब के पास से मेरे पास सूचना आई कि वे लक्ष्मी पुरी से मिलेंगे नहीं. जनरल साहब थोड़े स्ट्रिक्ट थे और औरतों से मुलाकात नहीं करते थे. फिर भी मैं लक्ष्मी पुरी को अपने साथ ले गया. जनरल साहब से जब भी मेरी मुलाकात होती थी, वो मुझे हमेशा ‘कुंवर साहब’ कह कर बुलाते थे. उस दिन जब मैं लक्ष्मी पुरी के साथ उनसे मिलने गया, तो पहली बार उन्होंने मुझे ‘मिस्टर एम्बेसेडर’ कह कर संबोधित किया. मेरे साथ गईं लक्ष्मी पुरी को उन्होंने पूरी तरह इग्नोर किया. चाय – वाय के लिए गए तो लक्ष्मी पुरी को मैंने अपने बगल में बैठा लिया. तभी मैंने देखा कि सामने से प्रेसिडेंट का एडीसी आ रहा है. मैंने सोचा कि अब ये लक्ष्मी पुरी को बाहर ले जाएगा. और अगर ये गईं तो मैं भी बाहर चला जाऊंगा इसके साथ. लेकिन मैंने देखा कि वो दरअसल लक्ष्मी को बाहर ले जाने के लिए नहीं आया था. बेगम ज़िया-उल-हक ने दरअसल चाय तैयार कर रखी थी लक्ष्मी पुरी के लिए, एडीसी इसके लिए लक्ष्मी पुरी को बुलाने आया था. तो I made my point he (Gen Zia-ul-Haq) made his point. तो अपने कॉलेज के सीनियर और पाकिस्तान के राष्ट्रपति की ये बातें कभी मुझे नहीं भूलतीं.

सवाल- बात चल पड़ी है तो मैं ये भी पूछ लूं कि कैसा रहा आपका पाकिस्तान का अनुभव ?
जवाब- बड़ी चैलेंजिंग पोस्टिंग है पाकिस्तान. सबकी निगाहें भारत के राजदूत पर रहती हैं. वो नज़र रखते हैं कि कहां जा रहे हैं, किससे मिल रहे हैं. पाकिस्तानी अफसरों को छोड़ दें तो औसत पाकिस्तानी आपके घर खाना खाने नहीं आएगा. इतना डर है उनको. इंटीमेसी नहीं है कोई. और फिर उर्दू प्रेस बहुत खिलाफ है. अंग्रेज़ी अखबार भी बहुत सावधानी बरतते हैं. लेकिन अगर कराची जाएं आप, तो वहां बहुत फर्क है, क्योंकि भारत से वहां बहुत से लोग गए हैं, जिन्हें वहां मुहाज़िर कहते हैं, वे उर्दू बोलते हैं. कराची जाने पर इंडियन एम्बेसी के लोगों की बड़ी खातिर होती है. बहुत से लोग मिलने आते हैं लेकिन ये लाहौर और इस्लामाबाद में नहीं होता.

पढ़ें- 'कैप्टन से BJP को होगा फायदा, राजस्थान-छत्तीसगढ़ से भी जा सकती है कांग्रेस सरकार'

नई दिल्ली : पूर्व केंद्रीय मंंत्री और पूर्व कांग्रेस नेता कुंवर नटवर सिंह ने अपने पुराने कॉलेज के दिनों की यादें ताजा कीं. कॉलेज का पहला दिन कैसा बीता इसके बारे में बताया. वहां की टेनिस, फुटबॉल, क्रिकेट, हॉकी, एथलेटिक्स सभी खेलों का हिस्सा रहे नटवर सिंह का मानना है कि कॉलेजों में स्टूडेंट्स की संख्या अगर बढ़ती है तो उत्कृष्टता प्रभावित होती है. पाकिस्तान में तैनात रहने का अनुभव कैसा रहा इसे भी साझा किया. कुंवर नटवर सिंह ने ये भी बताया कि पाकिस्तान के जनरल ज़िया-उल-हक़ को फख्र था कि वह दिल्ली यूनिवर्सिटी से पढ़े हैं.

नटवर सिंह से खास बातचीत

सवाल- दिल्ली यूनिवर्सिटी 100 साल की हो गई है. आप उसी दिल्ली यूनिवर्सिटी के मशहूर कॉलेज सेंट स्टीफेंस के छात्र रहे हैं. कैसे याद करते हैं अपने यूनिवर्सिटी के दिनों को.
जवाब- सेंट स्टीफेंस नॉर्थ इंडिया में नंबर वन कॉलेज है, इसमें कोई दो राय नहीं. जब मैं 1948 में दाखिल हुआ था, 390 स्टूडेंट्स थे. 120 हॉस्टल में और बाकी डे स्कॉलर. इंग्लिश स्टाफ में तीन टीचर थे. हालांकि है क्रिश्चियन कॉलेज, लेकिन वो किसी को इस बात के लिए प्रभावित करने की कोशिश नहीं करते थे कि आप हमारा धर्म अपना लीजिए. इसका बड़ा फर्क पड़ता था. एकेडेमिक रिकॉर्ड कॉलेज का बहुत बढ़िया था, इसमें भी कोई दो राय नहीं है. मैं खुद कॉलेज में हिस्ट्री लेकर फर्स्ट क्लास आया. मैं कॉलेज की स्टूडेंट यूनियन का प्रेसिडेंट भी था. मैं दिल्ली यूनिवर्सिटी का टेनिस चैम्पियन था, दिल्ली स्टेट का जूनियर टेनिस चैम्पियन भी था, मैं फुटबॉल टीम में था, हॉकी में था, क्रिकेट टीम में था, एथलेटिक्स की टीम में भी था. फिर आईएएस, आईएफएस और फौज जैसी दूसरी बड़ी नौकरियों में भी सेंट स्टीफेंस के छात्र खूब सेलेक्ट होते थे. अब तो वहां करीब 1200 छात्र हो गए हैं, जो कि बहुत ज़्यादा है. अगर मैं होता प्रिंसिपल तो मैं संख्या बढ़ने नहीं देता. When numbers increase, excellence suffers.

सवाल- आपका जो पहला दिन था अपने कॉलेज का, कुछ याद है आपको?
जवाब- मैं तो हॉस्टल में था. पहले दिन तो वो रैंगिंग-वैगिंग होती है थोड़ी सी, वही हुई. किसी को कह दिया कि गाना सुनाओ या किसी को गलत बस नंबर दे दिया. रैगिंग एक-दो हफ्ते बाद खत्म हो गई. रैगिंग कोई मार-पीट वाली नहीं होती थी, बहुत सिविलाइज़्ड तरीके से होती थी. फिर अगले साल हमने की जूनियर्स की रैगिंग. तीन साल मैंने दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ाई की, फिर मैं आगे की पढ़ाई के लिए कैंब्रिज यूनिवर्सिटी चला गया.

सवाल- अपने कॉलेज फिर कभी जाना हुआ आप का ?
जवाब- मैं अक्सर जाता रहा. 20 बरस पहले तक जाता रहा सेंट स्टीफेंस. जब तक हमारे वक्त के टीचर्स रहे वहां. अब तो कुछ गुज़र गए, कुछ रिटायर हो गए, लेकिन कॉलेज छोड़ने के करीब 20-25 साल बाद तक मैंने सीधा सम्पर्क रखा कॉलेज और यूनिवर्सिटी के साथ.

सवाल-आपके कॉलेज के ही जनरल जिया-उल-हक भी थे. कभी नौकरी के दौरान या राजनीति में आने के बाद आपकी मुलाकात उनसे हुई?
जवाब- मैं तो पाकिस्तान में एम्बेसेडर था. ज़िया-उल-हक़ साहब को बड़ा फख्र था कि वो सेंट स्टीफेंस के पढ़े हैं. उनसे काफी मुलाकातें मेरी हुईं. सब काम छोड़ के वो कॉलेज की बात करने लगते थे. एक बार सेंट स्टीफेंस के छात्रों का एक दल पाकिस्तान घूमने गया. मैं उन दिनों इस्लामाबाद में ही भारत का एम्बेसेडर था और प्रेसीडेंट साहब से मेरे अच्छे ताल्लुकात थे. मैंने उनसे कहा, सर सेंट स्टीफेंस कॉलेज के कुछ लड़के और कॉलेज के प्रिंसिपल आए हैं और आपसे मिलना चाहते हैं, दस मिनट का समय दे दीजिए. जनरल साहब बोले- दस मिनट ? मैं खाना खिलाऊंगा उनको शाम को. We will have dinner with them. मैंने उन लोगों को बताया नहीं वर्ना वे तो विश्वास ही नहीं करते कि उन्हें पाकिस्तान के प्रेसिडेंट के साथ डिनर का मौका मिल रहा है. खैर शाम को जब डिनर के लिए गए, तो वहां चार कैबिनेट मिनिस्टर्स थे, पांच वाइस चांसलर्स भी मौजूद थे. लड़के दंग रह गए कि हमारे लिए ये इतना बड़ा डिनर रख लिया प्रेसिडेंट ने. प्रिंसिपल साहब अपने साथ 1942 का एक ग्रुप फोटो लाए थे, जिसमें ऊपर एक कोने में ज़िया-उल-हक खड़े दिख रहे थे. प्रिंसिपल ने बताया कि इस फोटो में ये आप हैं. वो फोटो उन्होंने अपनी आंखों से लगाया कि भई मेरे पास तो ये फोटो था ही नहीं. क्योंकि उस समय इस फोटो के लिए मुझे दो रुपये देने पड़ते, जो मेरे पास थे नहीं. उन्होंने शुक्रिया कहा. फिर जनरल साहब ने उन लड़कों से पूछा कि आप कहां जा रहे हैं. लड़कों ने बताया कि हम कल मोहनजोदाड़ो जाएंगे और फिर कराची जाएंगे. जनरल साहब ने पूछा कि कैसे जा रहे हैं आप लोग. लड़कों ने बताया कि ट्रेन से जाएंगे. डिया-उल-हक ने अपने एडीसी को बुलाया और कहा – ये मेरे पर्सनल हवाई जहाज़ में जाएंगे. ऐसी मोहब्बत थी दिल्ली यूनिवर्सिटी के लिए. भारत-पाकिस्तान के रिश्ते अच्छे नहीं थे, लेकिन इतनी तहज़ीब मैंने किसी में नहीं देखी.

सवाल- लेकिन वो तो बड़े गुस्से वाले माने जाते थे?
जवाब- नहीं, बड़ी तहज़ीब वाले थे. मैं तो एम्बेसेडर था वहां. मुलाकात के बाद मुझे छोड़ने आते थे कार तक. मैं कहता था सर ये क्या कर रहे हैं आप. वो कहते थे कि नहीं, आप यहां आए हैं तो मेरे मेहमान हैं. मैं कहता था कि सर बात ये है कि मेरा ड्राइवर जो है, बहुत घबरा रहा है. वो गाड़ी नहीं चला पाएगा. वो हंसते हुए कहते थे, नहीं-नहीं, ऐसी बात नहीं, चलाएगा वो. जनरल जिया-उल-हक सभी के साथ बड़ी तहज़ीब से पेश आते थे.

सवाल- कॉलेज में कितने साल सीनियर रहे होंगे वो आपसे ?
जवाब- वो 1947 में पाकिस्तान चले गए थे. मैं सेंट स्टीफेंस में 1948 में दाखिल हुआ. उनकी सारी शिक्षा यहीं दिल्ली में ही हुई थी. एक बार का वाक़या है कि हर साल गुरु नानक देव के जन्मदिन पर पांच-छह सिखों का जत्था यहां से ननकाना साहब जाता था. ननकाना साहब से वो जत्था इस्लामाबाद भी जाता था प्रेसीडेंट साहब से मिलने के लिए. उनके साथ हमारे विदेश मंत्रालय का एक अंडर सेक्रेटरी भी जाता था, लेकिन मेरे बतौर एम्बेसेडर वहां रहने के दौरान ये सिख जत्था जब प्रेसिडेंट से मिलता था, तो उस मीटिंग में हमारे विदेश मंत्रालय का कोई अफसर नहीं रहता था. मेरे समय में जो अंडर सेक्रेटरी जत्थे के साथ आईं वो लक्ष्मी पुरी थीं. प्रेसिडेंट साहब के पास से मेरे पास सूचना आई कि वे लक्ष्मी पुरी से मिलेंगे नहीं. जनरल साहब थोड़े स्ट्रिक्ट थे और औरतों से मुलाकात नहीं करते थे. फिर भी मैं लक्ष्मी पुरी को अपने साथ ले गया. जनरल साहब से जब भी मेरी मुलाकात होती थी, वो मुझे हमेशा ‘कुंवर साहब’ कह कर बुलाते थे. उस दिन जब मैं लक्ष्मी पुरी के साथ उनसे मिलने गया, तो पहली बार उन्होंने मुझे ‘मिस्टर एम्बेसेडर’ कह कर संबोधित किया. मेरे साथ गईं लक्ष्मी पुरी को उन्होंने पूरी तरह इग्नोर किया. चाय – वाय के लिए गए तो लक्ष्मी पुरी को मैंने अपने बगल में बैठा लिया. तभी मैंने देखा कि सामने से प्रेसिडेंट का एडीसी आ रहा है. मैंने सोचा कि अब ये लक्ष्मी पुरी को बाहर ले जाएगा. और अगर ये गईं तो मैं भी बाहर चला जाऊंगा इसके साथ. लेकिन मैंने देखा कि वो दरअसल लक्ष्मी को बाहर ले जाने के लिए नहीं आया था. बेगम ज़िया-उल-हक ने दरअसल चाय तैयार कर रखी थी लक्ष्मी पुरी के लिए, एडीसी इसके लिए लक्ष्मी पुरी को बुलाने आया था. तो I made my point he (Gen Zia-ul-Haq) made his point. तो अपने कॉलेज के सीनियर और पाकिस्तान के राष्ट्रपति की ये बातें कभी मुझे नहीं भूलतीं.

सवाल- बात चल पड़ी है तो मैं ये भी पूछ लूं कि कैसा रहा आपका पाकिस्तान का अनुभव ?
जवाब- बड़ी चैलेंजिंग पोस्टिंग है पाकिस्तान. सबकी निगाहें भारत के राजदूत पर रहती हैं. वो नज़र रखते हैं कि कहां जा रहे हैं, किससे मिल रहे हैं. पाकिस्तानी अफसरों को छोड़ दें तो औसत पाकिस्तानी आपके घर खाना खाने नहीं आएगा. इतना डर है उनको. इंटीमेसी नहीं है कोई. और फिर उर्दू प्रेस बहुत खिलाफ है. अंग्रेज़ी अखबार भी बहुत सावधानी बरतते हैं. लेकिन अगर कराची जाएं आप, तो वहां बहुत फर्क है, क्योंकि भारत से वहां बहुत से लोग गए हैं, जिन्हें वहां मुहाज़िर कहते हैं, वे उर्दू बोलते हैं. कराची जाने पर इंडियन एम्बेसी के लोगों की बड़ी खातिर होती है. बहुत से लोग मिलने आते हैं लेकिन ये लाहौर और इस्लामाबाद में नहीं होता.

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