साहिबगंज: इतिहास के पन्नों को पलटें तो आजादी के लिए पहला बिगुल फूंकने का जिक्र 1857 में मिलता है. लेकिन, इससे दो साल पहले ही झारखंड में संथालों ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आजादी की जंग छेड़ दी थी. संथालों ने नारा दिया था "करो या मरो, अंग्रेजों हमारी माटी छोड़ो" और नारा देने वाले थे सिदो-कान्हो. अंग्रजों के खिलाफ जिस तरह सिदो-कान्हो ने मोर्चा खोला था और उसके छक्के छुड़ा दिए थे उसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि साहिबगंज में लोग इन्हें भगवान की तरह पूजते हैं. आदिवासियों और गैर-आदिवासियों को महाजनों और अंग्रेजों के अत्याचार से मुक्ति दिलाने में अहम भूमिका निभाई थी. ब्रिटिश हुकूमत की जंजीरों को तार-तार करने वाले इन वीर सपूतों के शहादत की याद में हर साल 11 अप्रैल को जयंती समारोह मनाया जाता है. इसमें देश के कई प्रांतो से विद्वान, लेखक और इतिहासकार भोगनाडीह पहुंचते हैं और शहीदों के जीवन वृतांत पर प्रकाश डालकर उनके बलिदान की याद करते हैं.
बरगद के पेड़ के नीचे फूंका था आजादी का बिगुल
करीब 200 साल पहले 1820 में बहरेड प्रखंड के भोगनाडीह गांव में चुनू मुर्मू के घर सिदो का जन्म हुआ था. इसके 12 साल बाद छोटे भाई कान्हो का जन्म हुआ. दो और भाई चंद्राय मुर्मू और भैरव मुर्मू भी थे. अंग्रेजों और साहूकारों का अत्याचार देख खून खौल उठता था. देश को अंग्रेजी हुकूमत से आजाद कराने की ठानी और 30 जून 1855 को पंचकठिया में बरगद के पेड़ के नीचे संथाल हूल का बिगुल फूंका था. सिदो ने अपने दैवीय शक्ति का हवाला देते हुए लोगों को साल की टहनी भेजकर हूल में शामिल होने का आमंत्रण भेजा था. 400 गांव के 50 हजार से ज्यादा संथाल इसमें शामिल हुए थे. अपने अदम्य वीरता, साहस और विश्वास के साथ सिदो-कान्हो ने धनुष-बाण के बल पर ब्रिटिशर्स के छक्के छुड़ा दिए. भाई चंद्राय-भैरव और बहन फूलो-झानो ने भी पूरा साथ दिया.
बंदूक और टैंक के सामने धनुष-बाण से किया था मुकाबला
संथालों के बचने के लिए अंग्रेजों ने पाकुड़ में मार्टिलो टॉवर का निर्माण कराया था जो आज भी स्थित है. अंग्रेजों के साथ संथालों की जबरदस्त लड़ाई हुई. संथाल के लोगों की धनुष-बाण की कला ने अंग्रेज को पानी पिला दिया. बंदूक और टैंक के सामने भी संथालों ने डटकर मुकाबला किया. हालांकि, इस मुठभेड़ में संथालों की हार हुई और अंग्रेजों ने बरगद के पेड़ पर सिदो-कान्हो को फांसी दे दी. आज भी यह पेड़ पंचकठिया में स्थित है जिसे शहीद स्थल कहा जाता है. इस लड़ाई ने अंग्रेजों की जड़ें हिलाकर रख दी थी. इस जंग में 20 हजार से ज्यादा आदिवासियों की जान गई थी. दोनों भाइयों की शहादत पर हर साल 30 जून को हूल दिवस के रूप में मनाया जाता है और भोगनाडीह में विकास मेले का आयोजन किया जाता है.
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आज भी बुनियादी सुविधाओं से महरूम हैं लोग
जिस संथाल परगना के लोगों के अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंकने के लिए पहला बिगुल फूंका था उसी इलाके में गरीबों का विकास राजनैतिक रस्साकशी और अफसरशाही के नीचे रुक गया है. संथाल समाज के लोग आज भी बुनियादी सुविधाओं से महरूम हैं. बिहार से अलग होने के बाद शहीद सिदो-कान्हो के वंशज और भोगनाडीह में रहने वाले आदिवासी समाज को सरकारी योजना से जोड़ने के लिए शहीद ग्राम विकास योजना के तहत राज्य सरकार फंड देने लगी लेकिन विकास धीमी गति से हो रहा है. हालांकि, सिदो-कान्हो के एक वंशज का कहना है शहीद ग्राम विकास योजना के तहत आवास मिला है. पानी के लिए नलकूप की व्यवस्था की गई है और गैस सिलेंडर भी मिला है. साहिबगंज कॉलेज और अन्य जगह शहीद के वंशज को नौकरी भी मिली है. लेकिन, जिस रफ्तार से विकास होना चाहिए वह नहीं हुआ.
फूलो-झानो की भी लगेगी प्रतिमा
उपायुक्त रामनिवास यादव ने कहा कि पचकठिया में शहीद स्थल पर 11 अप्रैल को सिदो-कान्हो की जयंती के अवसर पर तोरण द्वार का उदघाटन किया जाएगा. शहीद के पैतृक गांव बरहेट के भोगनाडीह में सरकार की हर योजना पहुंचाई जा रही है. गांव में दो डीप बोरिंग की स्वीकृति मिली है जिसे जल्द कराया जाएगा. फूलो-झानो की प्रतिमा लगवाने को लेकर भी पहल की गई है. साहिबगंज के स्टेडियम में झारखंड के सभी स्वतंत्रता सेनानी की प्रतिमा लगाई जाएगी.