रांचीः उत्तर भारत में फागुन का महीना प्रेम मिलन और गवाई रंग में राग का महीना कहा जाता है. इस राग को चार चांद लगाते हैं फगुआ गाने वाले वह फनकार जिसमें फगुआ के गीत और उसमें होने वाला छंद समाज को जोड़ता है. गवाई राग का दोहा प्रेम और सौहार्द को जोड़ता है. फगुआ की चौपाई कला संस्कृति और समाज के संस्कार को मूर्त रूप देती है. यही है फागुन के महीने में फाग का राग जिसके रंग में आने पर फिजा भी कहने लगती है कि लगता है फागुन का महीना और होली आ गई है.
फागुन के महीने में पड़ने वाली होली हमारी सभ्यता और संस्कृति की एक ऐसी धरोहर है जो सजीव रूप में अपने इष्ट को खुश करने के लिए पूरा समाज प्रेम और सौहार्द के रंग में जुड़ कर के गीत गाता था. हंसी ठिठोली करता था. गांव की चौपाल हो या नदी का किनारा, मंदिर का प्रांगण हो या फिर घर का दलान, हर जगह फागुन का राग होता था. आंचलिकता ने जिस धरोहर को इतने दिनों तक सजाए रखा उस के सबसे बड़े खेवनहार फगुआ के गाने वाले वह फनकार थे. आज उनकी यह कला विलुप्त होती जा रही है. फाग का राग समाज को जोड़ता था और इसके लिए विधिवत तैयारी भी होती थी. लेकिन अब यह तैयारी आधुनिक भारत में वैश्विक गतिविधि की तरफ जा रही पूरी बाजार वाली संस्कृति ने पूरी तरह भटका दिया है. अब तो डीजे पर बजने वाले गाने होली में भी गाते हैं.. डिस्को वाले दीवाने हो गए और भोजपुरी में गाने शायद परिवार के साथ सुना नहीं जा सकता है..
ठिठोली और हंसी राग: होली में जिस तरह से गाने की परम्परा रही है उसके हर राग में ठिठोली और हंसी होती है . अब एक बार फिर इस विषय पर विचार करने की जरूरत है कि जो हमारी संस्कृति है हमारी धरोहर है जिससे हमारा समाज जुड़ता है प्रेम और सौहार्द की नई नीव खड़ी होती है. कला संस्कृति समाज का सोपान बनता है. और इसे बनाने वाले वह फनकार अगर नहीं रहे तो देश नई संस्कृति को तो जरूर अपना लेगा लेकिन हमारे पुराने संस्कार जिसमें हिंदुस्तान की आत्मा दिखती है लगभग खत्म हो जाएगा. विचार हर बार इस बात का करना होगा हर साल होली का कौन सा रंग हमें अपने रंग में रंगता है. देश के विकास देने वाली रफ्तार निश्चित तौर पर आज की जरूरत है.. आधुनिकता की बातें किसी भी देश के लिए जरूरी भी है. अगर वैश्विक बाजार में देश मजबूती से खड़ा नहीं रहा तो बहुत कुछ अपने देश को नहीं मिल पाएगा. लेकिन देश को जो मिला है अगर उसे भी देश ने छोड़ दिया तो देश की आत्मा जिंदा नहीं रह पाएगी. जिस महीने में हम हैं वह फागुन का है. फगुआ का राग सिर्फ एक गीत नहीं इस महीने की मूल अत्मा है.
रामचंद्र शुक्ल, भिखारी ठाकुर और होली हुड़दंग: आंचलिकता की हनक का अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि होली को विधिवत फगुआ के उस रंग से सरोवर किया जाता था. जिसमें आचार्य रामचंद्र शुक्ल की आंचलिकता की गीते जिसमें विभेद भी हालांकि बहुत रहा समाज का प्रेम अपने इष्ट का गायन.. देवर भाभी की मजाक वाले गीत कीचड़ से खेली जाने वाली होली सब कुछ होता था.. उसमें गुलाल का उस रूप में उड़ना जो पूर्वी भारत में लवंडा नाच के तौर पर होली को चार चांद लगाता था यह फगुआ के फनकार ही पूरा कर पाते थे. आज समाज जरूर बदला है और कई मंच पर लड़के लड़कियों का कपड़ा पहनकर के लोगों को हंसाने का काम कर रहे हो. और करोड़ों का कमा रहे हों लेकिन जिसने इस विधा को शुरू किया उस भिखारी ठाकुर की आंचलिकता का पूरा स्वरूप ही बदल गया है. समाज और संस्कृति बनी रहे और संस्कार मूल समाज के विकास के दिशा देने वाले स्वरूप में जिंदा रहेगी हम कह सकें कि हम हिंदुस्तानी हैं और यही रंग भिखारी ठाकुर का होली के इस गीत के साथ शुरू होता था इसमें कहा जाता था. जोगीरा सारारारा . जोगी जी धीरे धीरे. जो आज भी है लेकिन उसमें शायद अपने पन वाला रंग नहीं है जो चौपाल के साथ था.
फगुआ गीत नहीं जीवन दर्शन: फगुआ कोई गीत नहीं बल्कि एक सामाजिक दर्शन है. फगुआ गाने वाले लोगों की टोली समाज को जोड़ने का काम करती थी. एक लोक कला जो समाज के लिए मनोरंजन और जीवन के उल्लास का रंग था. यह एक बड़े समाज की जीविकोपार्जन का साधन भी था जो चैता से शुरू होता था और कजरी के गीतों तक लगातार चलता था. अगर ब्रज को छोड़ कर के अवध की बात करें तो अवध के गंगा जमुनी तहजीब से लेकर के मिथिलांचल के आंचल तक सिमटा उत्तर भारत फाग के राग में आज भी डूब जाता है. हमारे आंचलिक स्वरूप का यह रंग सबसे मजबूत होता था.
हुल्लड़ फैजाबादी की लाइन में, महके जब दिग दिगंत को समझौ बसंत है, बहकै लगे जो संत को समझो बसंत है. प्रकृति और उससे जुडे मानव जाति के जिस जोड को लिखा गया है वह फागुन महीने का है. महाकवि फणीश्वरनाथ रेणु की देवर भौजाई को लेकर लिखी गई पान की चौपाई. फगुआ में परिवार और समाज को पोषित करने की बड़ी परम्परा का ध्वज वाहक है.
उत्तर भारत में फगुआ गाने वालों की आबादी करीब 10 लाख से ऊपर होती थी. इतने लोगों को रोजगार सिर्फ आंचलिकता में गाए जाने वाला गाना देता था. वरिष्ठ पत्रकार रवि उपाध्याय के अनुसार जब हमारा समाज अपनी संस्कृति को गाता था तो इसके लिए विधिवत सट्टा दिया जाता था. फगुआ गाने वाली मंडली बुक की जाती थी और वह लोग आकर के गाना गाते थे एक मंडली में 7 से 10 लोग हुआ करते थे और उत्तर भारत की अगर बात कर ले तो ऐसी लाखों मंडलिया हुआ करती थी. जिनके जीविकोपार्जन का साधन मनोरंजन का यह आंचलिक गाना हुआ करता था. इनके गीतों में समाज और संस्कृति जिंदा रहती थी.
होली अवध में श्री रामचंद्र खेलते थे जो लोग गाने आते थे उनके लिए जो साज सज्जा का इंतजाम होता था. उसमें भी एक बड़ा रोजगार था चाहे ढोलक पर चमड़ा चढ़ाने वाले की बात हो या फिर मंजीरे को आवाज देने वाले की नगाड़े की लकड़ी बनाने वाले की बात हो या फिर मृदंग के लिए गुटका गढ़ने की यह एक इतनी बड़ी आबादी थी जो समाज में समाज के रंग को गा करके सामाजिकता को जिंदा रखती थी. आज आधुनिकता ने इसको पूरे तौर पर खत्म कर दिया. यह कहा जा सकता है कि आज सिर्फ फाग का राग नहीं खत्म हुआ बल्कि एक युग का अंत हो गया जिसमें रोजगार 4 लाख लोगों का गया कि 10 लाख लोगों का यह तो सरकार के आंकड़े में अलग अलग तरीके से होगा लेकिन यह बिल्कुल सही है कि लाखों की आबादी की कमाई इस फगुआ और चेता की राग से चलता था जो खत्म हो गया।
आज के समाज में विकास की गति काफी तेज हो चली है ऐसा बताया जा रहा है लेकिन विकास का रंग तब तक अधूरा ही रहेगा जब तक हम अपनी मूल संस्कृति और धरोहर को अपने जीवन की डोर से पिरो कर नहीं रखेंगे. आने वाली पीढ़ी को शायद ही इस बात की जानकारी हो कि कुछ फगुआ होता था और उसके फनकार. होली अब टीवी के गानों में है, बस किसी भी राहगीर से यह बोलने की परम्परा खत्म हो गई है कि बुरा न मानो होली है.