रांचीः सरहुल दो शब्दों से बना हुआ है 'सर' और 'हुल'. सर का मतलब सरई या सखुआ फूल होता है. वहीं, हुल का मतलब क्रांति होता है. इस तरह सखुआ फूलों की क्रांति को सरहुल कहा गया है. सरहुल में साल और सखुआ वृक्ष की विशेष तौर पर पूजा की जाती है. झारखंड, ओड़िशा और पश्चिम बंगाल के आदिवासी द्वारा इस साल 4 अप्रैल को सरहुल का जुलूस निकाला जाएगा. यह उत्सव चैत्र महीने के तीसरे दिन चैत्र शुक्ल तृतीया को मनाया जाता है. इसमें वृक्षों की पूजा की जाती है. यह पर्व आदिवासियों के नए साल की शुरुआत का भी प्रतीक माना जाता है. सरहुल को लेकर उपवास में रहकर रविवार को पूजा की गई. सरहुल की मुख्य पूजा आज होगी और इसके बाद पारंपरिक लोक गीतों के साथ शोभा यात्रा निकाली जाएगी.
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सरहुल से जुड़ी प्राचीन कथाः सरहुल से जुड़ी कई कहानियां प्रचलित हैं. उन से एक महाभारत से भी जुड़ी कथा है. किवदंतियों के अनुसार जब महाभारत का युद्ध चल रहा था, तब आदिवासियों ने युद्ध में कौरवों का साथ दिया था, जिस कारण कई मुंडा सरदार पांडवों के हाथों मारे गए थे. इसलिए उनके शवों को पहचानने के लिए उनके शरीर को साल के वृक्षों के पत्तों और शाखाओं से ढका गया था. इस युद्ध में ऐसा देखा गया कि जो शव साल के पत्तों से ढका गया था, वो शव सड़ने से बच गए थे और ठीक थे. लेकिन जो अन्य चीजों से ढके हुए थे वो शव सड़ गए थे. ऐसा माना जाता है कि इसके बाद आदिवासियों का विश्वास साल के पेड़ों और पत्तों पर बढ़ गया, जो वर्तमान रुप में सरहुल पर्व के रूप में जाना जाता है. जिसमें साल के पेड़ का और पत्ता सबसे ज्यादा महत्व रखता है.
पूजन की विधिः चैत्र शुक्ल पक्ष तृतीया को मनाया जाने वाला प्रकृति पर्व सरहुल की मुख्य पूजा उनके धर्मगुरु जो पहान कहलाते हैं, वो अखरा में विधि-विधान पूर्वक अपने आदिदेव सिंगबोंगा की पूजा अनुष्ठान करते हैं. दो दिन के इस अनुष्ठान में कई तरह की रस्म निभाकर विधि-विधान से पूजा संपन्न की जाती है. इस दौरान सुख समृद्धि के लिए मुर्गा की बलि देने की परंपरा निभाई जाती है. ग्राम देवता के लिए रंगवा मुर्गा अर्पित किया जाता है. पहान देवता से बुरी आत्मा को गांव से दूर भगाने की कामना करते हैं. पूजा के पहले दिन शाम में दो घड़े का पानी देखकर वार्षिक वर्षा की भविष्यवाणी करते हैं. पहान लोगों को बताते हैं कि इस वर्ष कैसी बारिश होगी.
इस अनुष्ठान से एक दिन पहले प्रकृति पूजक उपवास रहकर केकड़ा और मछली पकड़ने जाते हैं. परंपरा के अनुसार विभिन्न मौजा के पहान भी केकड़ा और मछली पकड़ने की रस्म निभाते हैं. परंपरा है कि घर के नए दामाद या बेटा केकड़ा पकड़ने खेत जाते हैं. पकड़े गए केकड़े को साल पेड़ के पत्तों से लपेटकर चूल्हे के सामने टांगा जाता है. आषाढ़ माह में बीज बोने के समय केकड़ा का चूर्ण बनाकर बीज के साथ खेत में बोया जाता है. इस परंपरा को लेकर ऐसी मान्यता है कि केकड़ा के पैर की तरह फसल में वृद्धि होगी. आदिवासी समाज में ऐसी मान्यता है कि ऐसा करने से घर में खुशहाली आती है.
सरहुल को लेकर इस पूजा के बाद शाम में विभिन्न मौजा के पाहनों के द्वारा ढोल-मांदर बजाते हुए कुएं या पास के तालाब से दो घड़ा पानी लाकर जल रखाई की रस्म निभाते हैं. पास के नदी, तालाब या कुएं से दो घड़े में पानी लाकर सरनास्थल के उत्तर और दक्षिण दिशा में उन्हें रखा जाता है. पानी की गहराई को साल के तनी से नापा जाता है. जिसके बाद दूसरे दिन घड़े में पानी को उसी तनी से नापा जाता है. पानी के कम होने या ना होने पर इस साल वर्षा का अनुमान किया जाता है.
सरहुल में लोक नृत्य और परिधान का महत्वः सरहुल को लेकर प्रचलित है कि जे नाची से बांची यानी जो नाचेगा वही बचेगा. इसको लेकर मान्यता है कि नृत्य ही संस्कृति है. सरहुल में पूरे झारखंड में जगह-जगह नृत्य उत्सव होता है. महिलाएं सफेद में लाल पाड़ की साड़ी पहनती हैं ऐसा इसलिए क्योंकि सफेद पवित्रता और शालीनता का प्रतीक है और लाल संघर्ष का. सफेद सर्वोच्च देवता सिंगबोंगा और लाल बुरुबोंगा का प्रतीक है. इसलिए सरना झंडा भी लाल और सफेद ही होता है.
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झारखंड के 5 समुदाय अलग-अलग तरह से मनाते हैं सरहुलः सेनगे सुसुन, काजिगे दुरंग... यानी जहां चलना नृत्य और बोलना गीत-संगीत है. यही झारखंड का जीवन है. जीतोड़ मेहनत के बाद रात में पूरा गांव अखड़ा में साथ-साथ नाचता-गाता है. ऐसे में बसंत में सरहुल को खुशियां का पैगाम माना जाता है. इस समय प्रकृति यौवन पर होता है. फसल से घर और फल-फूल से जंगल भरा रहता है. ऐसी मान्यता है प्रकृति किसी को भूखा नहीं रहने देती है.
सरहुल दो शब्दों से बना है, सर और हूल. सर मतलब सरई या सखुआ फूल और हूल का मतलब क्रांति से है. इस तरह सखुआ फूलों की क्रांति को सरहुल कहा गया. मुंडारी, संथाली और हो-भाषा में सरहुल को बा या बाहा पोरोब, खड़िया में जांकोर, कुड़ुख में खद्दी या खेखेल बेंजा, नागपुरी, पंचपरगनिया, खोरठा और कुरमाली भाषा में इस पर्व को सरहुल कहा जाता है.
मुंडारी, बहा पोरोब में पूर्वजों का सम्मानः मुंडा समाज में बहा पोरोब का विशेष महत्व है. मुंडा प्रकृति के पुजारी हैं. सखुआ, साल या सरजोम वृक्ष के नीचे मुंडारी खूंटकटी भूमि पर मुंडा समाज का पूजा स्थल सरना होता है. सभी धार्मिक विधि-विधान इसी सरना स्थल पर पहान द्वारा संपन्न किया जाता है. जब सखुआ की डालियों पर सखुआ फूल भर जाते हैं तब गांव के लोग एक निर्धारित तिथि पर बहा पोरोब मनाते हैं. बहा पोरोब के पूर्व से पहान (पहंड़) उपवास रखता है. यह पर्व विशेष तौर पर पूर्वजों के सम्मान में मनाते हैं. धार्मिक विधि के अनुसार पहले सिंगबोगा परम परमेश्वर को फिर पूर्वजों और ग्राम देवता की पूजा की जाती है. पूजा की समाप्ति पर पहान को नाचते-गाते उसके घर तक लाया जाता है. सभी सरहुल गीत गाते हुए नाचते-गाते हैं.
हो समुदाय, तीन दिन तक बा पोरोब मनाते हैंः बा का शाब्दिक अर्थ है फूल अर्थात फूलों के त्योहार को ही बा पोरोब कहलाता है. बा पर्व तीन दिन तक मनाया जाता है. सर्वप्रथम बा:गुरि, दूसरे दिन मरंग पोरोब और अंत में बा बसि मनाया जाता है. बा गुरि के दिन नए घड़े में भोजन तैयार होता है. घर का मुखिया रसोईघर में मृत आत्माओं, पूर्वजों एवं ग्राम देवता को तैयार भोजन, पानी, हड़िया अर्पित कर घर-गांव की सुख-समृद्धि की कामना अपने देवता सिंगबोंगा (ईश्वर) से करते हैं. दूसरे दिन जंगल जाकर साल की डालियां फूल सहित काटकर लाते हैं और पूजा के बाद आंगन-चौखट में प्रतीक स्वरूप खोंसते हैं. तीसरे दिन बा बसि में सभी पूजन सामग्रियों को विसर्जित किया जाता है और रात में पुन: नाच-गान शुरू होता है.
उरांव, धरती-सूर्य का विवाह खेखेल बेंजाः सरहुल के दिन सृष्टि के दो महान स्वरूप शक्तिमान सूर्य एवं कन्या रूपी धरती का विवाह होता है. जिसकी कुड़ुख या उरांव में खेखेल बेंजा कहते हैं. इसका प्रतिनिधित्व क्रमश: उरांव पुरोहित पहान (नयगस) और उनकी धर्मपत्नी (नगयिनी) करते हैं. इनका स्वांग प्रतिवर्ष रचा जाता है. उरांव संस्कृति में सरहुल पूजा के पहले तक धरती कुंवारी कन्या की भांति देखी जाती है. धरती से उत्पन्न नए फल-फूलों का सेवन वर्जित है. इस नियम को कठोरता से पालन किया जाता है.
इसके अलावा पहान घड़े का पानी देखकर इस साल बारिश की भविष्यवाणी करते हैं. पहान सरना स्थल पर पूजा संपन्न करता है और तीन मुर्गों की बलि दी जाती है और खिचड़ी बनाकर प्रसाद के रूप में खाते हैं. फिर पहान प्रत्येक घर के बुजुर्ग या गृहिणी को चावल एवं सरना फूल देते हैं ताकि किसी प्रकार का संकट घर में ना आए. सरहुल के एक दिन पहले केकड़ा खोदने का रिवाज है. केकड़ा को पूर्वजों के रूप में बाहर लाकर सूर्य और धरती के विवाह का साक्षी बनाया जाता है. सरहुल के बाद ही खरीफ फसल की बोआई के लिए खाद और बीज डाला जाता है.
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संथाल, विशेष राग-ताल में बाहा नृत्यः बाहा संथालों के प्रकृति से प्रेम को दर्शाता है. प्राचीन काल से साल और महुआ को देव स्वरूप मानकर पूजने की प्रथा चली आ रही है. बाहा फागुन का चांद निकलने के पांचवें दिन शुरू होता है और पूरे महीने चलता है. जाहेरथान (पूजन स्थल) में ईष्ट देव की पूजा पारंपरिक विधि के साथ की जाती है. मुर्गा बलि के बाद खिचड़ी बनाई जाती है जिसे प्रसाद के रूप में लोग ग्रहण करते हैं. दूसरे दिन लोग जाहेरथान में उपस्थित होते हैं. नायकी सखुआ फूल एवं पारंपरिक सामग्री संग पूजा करते हैं. तीसरे दिन फागु या बाहा सेंदरा मनाया जाता है. घर के पुरुष सेंदरा से लौटते हैं तो धनुष और सारे अस्त्र-शस्त्र को खोला जाता है. इसमें बाहा नृत्य होता है, जिसमें महिलाएं अकेली नृत्य करती हैं, पुरुष वाद्ययंत्र बजाते हैं. विशेष राग में गीत और नृत्य किया जाता है.
खड़िया, जांकोर में घड़े के पानी से बारिश की भविष्यवाणीः खड़िया समुदाय जांकोर पर्व मनाता है. जांग+एकोर अर्थात फलों-बीजों का क्रमवार विकास. यह पर्व फागुन पूर्णिमा के एक दिन पहले शुरू हो जाता है. इसी दिन उपवास रखा डाता है. पुरुष दिन में शिकार करने चले जाते हैं. उसी शाम को दो नए घड़ों में पानी ले जाकर रख दिया जाता है. दूसरे दिन पहान पूजा के बाद बलि देते हैं. दोनों घड़े का पानी देखकर पहान पूर्ण वर्षा होने या ना होने की भविष्यवाणी करते हैं. पहान लोगों को सखुआ फूल देकर आशीर्वाद देते हैं. कार्यक्रम के आरंभ से अंत तक ढोल, नगाड़े और शहनाई भी बजते रहते हैं. इसी दिन शाम में पहान सेमल वृक्ष में धाजा-फागुन काटते हैं. फिर इस डाली को लोग अपने घरों में खोंस देते हैं. तीसरे दिन फूलखोंसी की रस्म प्रत्येक गांव में निभाई जाती है.
आदिवासियों का त्योहार सरहुल, भारतीय समाज के किसी विशेष भाग के लिए प्रतिबंधित नहीं है. अन्य विश्वासी और समुदाय जैसे हिंदू, मुस्लिम, ईसाई लोग नृत्य करने वाले भीड़ को बधाई देने में भाग लेते हैं. सरहुल सामूहिक उत्सव का एक आदर्श उदाहरण प्रस्तुत करता है, जहां हर कोई प्रतिभागी है. आदिवासी प्रकृति प्रेमी होते हैं. प्रकृति के प्रति अपनी आस्था और प्रेम प्रदर्शित करने के लिए झारखंड के आदिवासी जनजातियां सरहुल का त्योहार मनाते हैं. पारंपरिक वेष-भूषा और वाद्य यंत्रों के साथ लोक नृत्य करते हुए आदिवासी समुदाय के लोग सरहुल जुलूस और शोभा यात्रा निकालते हैं.