रांची: विश्व आदिवासी दिवस के दिन राज्य सरकार के स्तर पर रंगारंग आयोजन को लेकर आदिवासी संगठन बंटे नजर आ रहे हैं. कई पक्ष ऐसे हैं जो खुलकर इस आयोजन का विरोध कर रहे हैं तो कई पक्ष समर्थन में सामने आ गये हैं. दोनों पक्षों की अपनी-अपनी दलीलें हैं. मतभेद की यह रेखा पहली बार दिख रही है. अब सवाल है कि इस मतभेद की आखिर क्या वजह है.
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विरोध करने वाले गुटों का तर्क: आदिवासी जनपरिषद के अध्यक्ष प्रेमशाही मुंडा का कहना है कि मणिपुर में आदिवासी समाज पर अत्याचार हो रहा है. हाल के लिए दिनों में राज्य में कई आदिवासियों की हत्याएं हुई हैं. आदिवासी समाज का शोषण हो रहा है. ऐसे में भला विश्व आदिवासी दिवस को खुशी के रूप में कैसे सेलिब्रेट किया जा सकता है. उनका कहना है कि जनपरिषद से जुड़े लोग करमटोली के धुमकुड़िया में जुटेंगे. प्रबुद्धजन समाज के उत्थान और कमियों पर मंथन करेंगे. इस दिन किसी तरह का सांस्कृतिक कार्यक्रम नहीं होगा. सरकार को शोक दिवस के रूप में मनाना चाहिए. सरकार राजनीतिक इस्तेमाल कर रही है. सरकार के कार्यक्रम में भी नहीं जाएंगे.
आदिवासी समन्वय समिति के संयोजक सह पूर्व विधायक देवकुमार धान का कहना है कि हालिया माहौल में खुशी नहीं मनाई जा सकती. उन्होंने कहा कि समिति से जुड़े लोग विश्व आदिवासी दिवस के दिन मोरहाबादी से अलबर्ट एक्का चौक तक मार्च निकालेंगे. अपने हक और आदिवासियों पर हो रहे जुल्म के खिलाफ आवाज बुलंद करेंगे. उस दिन किसी तरह का जश्न नहीं मनाया जाएगा. कोई ढोल-नगाड़ा नहीं बजेगा. सरकार इस आयोजन की आड़ में राजनीति कर रही है.
कोल्हान आदिवासी एकता मंच के अध्यक्ष सह मंझगांव विधानसभा सीट से चार बार विधायक, दो बार मंत्री रह चुके डीएन चंपिया ने कहा कि विश्व आदिवासी दिवस को खुशी के रूप में मनाने का कोई औचित्य नहीं है. उन्होंने कहा कि यूएनओ ने आदिवासियों के अधिकार और सुरक्षा बरकरार रखने और एकता के लिए विश्व आदिवासी दिवस मनाने की शुरूआत की. संविधान की 5वीं अनुसूची, सीएनटी एक्ट, एसपीटी एक्ट, पेसा कानून का कोई पालन ही नहीं हो रहा है. उन्होंने कहा कि यूएनओ ने विश्व आदिवासी दिवस की घोषणा की, उस प्रस्ताव पर भारत सरकार ने भी हस्ताक्षर किया है. इसके बावजूद आदिवासियों को हक नहीं मिल रहा है. मणिपुर में आदिवासी महिलाओं को प्रताड़ित किया गया है. फिर हम खुशी कैसे मना सकते हैं. सरकार जरूर मनाए लेकिन गलत ढंग से मना रही है. सरकार को आदिवासियों के अधिकार की चिंता करनी चाहिए.
आयोजन का समर्थन करने वाले गुटों की दलील: विश्व आदिवासी दिवस के दिन रंगारंग कार्यक्रम को लेकर दूसरे आदिवासी संगठनों की अलग दलील है. केंद्रीय सरना समिति के अध्यक्ष अजय तिर्की ने कहा कि मणिपुर की घटनाओं को लेकर हमारा संगठन विरोध जरूर प्रकट करेगा, साथ में रंगारंग कार्यक्रम भी करेगा. उन्होंने कहा कि अलबर्ट एक्का चौक पर समिति के बैनर तले आदिवासी बच्चियां कार्यक्रम प्रस्तुत करेंगी.
उन्होंने कहा कि रघुवर दास की सरकार ने कभी भी इस दिन की अहमियत नहीं समझी. इसको हेमंत सोरेन की सरकार ने आदिवासी प्रतिष्ठा से जोड़ा. हेमंत सरकार ने विश्व आदिवासी दिवस के दिन राजकीय अवकाश घोषित किया. उन्होंने कहा कि दूसरे संगठन जो भी कर रहे हैं, वो उनका अपना विचार हो सकता है. लेकिन वर्तमान सरकार की पहल से पूरा देश आदिवासी दर्शन से रूबरू हो रहा है. देशभर से इस आयोजन की सराहना की जा रही है. उन्होंने कहा कि सरकार के इस आयोजन को अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद, 22 पड़हा सांगा जतरा समिति, झा. क्षेत्रीय पड़हा समिति, राजी पड़हा प्रार्थना सभा, हटिया विस्थापित समिति, एयरपोर्ट विस्थापित समिति, बिरसा विकास जनकल्याण समिति समेत अन्य संगठनों का समर्थन है.
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विश्व आदिवासी दिवस का इस साल का थीम: संयुक्त राष्ट्र महासभा ने International Day of the World's Indigenous People, 2023 यानी विश्व आदिवासी दिवस को Indigenous Youth as Agents of Change for Self-determination (आत्मनिर्णय के लिए परिवर्तन के एजेंट के रूप में स्वदेशी युवा) के रूप में मनाने की घोषणा की है. इसका मतलब है कि आदिवासी नौजवानों को एक एजेंट के रूप में अपने समाज में बदलाव के लिए आत्मनिर्णय करना है.
कुल मिलाकर देखें तो संयुक्त राष्ट्र महासभा के इस साल के थीम पर कोई चर्चा नहीं हो रही है. राज्य सरकार के आयोजन पर विपक्षी दल भी खुलकर बोलने से बच रहे हैं. इसकी वजह है वोट बैंक. दरअसल, राज्य में 28 सीटें एसटी के लिए रिजर्व हैं जो किसी भी दल को सत्ता की कुर्सी तक पहुंचाने में अहम भूमिका अदा करती हैं. लिहाजा, आदिवासी वोट बैंक को साधने की होड़ मची है. मोदी सरकार ने भगवान बिरसा मुंडा की जयंती को आदिवासी गौरव के रूप में जोड़ा और द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनाकर भाजपा को आदिवासी हितैषी के रूप में पेश किया. अब भाजपा 2024 के चुनाव पर नजर गड़ाए बैठी है. बाबूलाल मरांडी के जरिए ट्राइबल कार्ड को मजबूत करने का दांव खेला गया है. लेकिन हेमंत सोरेन भी अपने परंपरागत वोट बैंक को एकजुट बनाए रखने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं.