रांची: गुजरात विधानसभा 2022 के चुनाव (Gujarat Election 2022) के पहले चरण के मतदान के लिए जिस 89 विधानसभा सीटों पर 01 दिसंबर को मतदान होना है वहां चुनाव प्रचार का शोर आज थम गया. 27 वर्ष से गुजरात की सत्ता पर काबिज भारतीय जनता पार्टी एक तरफ फिर राज्य में कमल खिलाने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी. पार्टी के राष्ट्रीय स्तर के नेताओं, मंत्री, सांसद, विधायक तक चुनावी रणनीति को अमलीजामा पहनाने के लिए जमे हैं यही वजह है कि झारखंड से भी रांची की मेयर आशा लकड़ा सहित कई मंच और मोर्चा के नेताओं ने गुजरात मे ही डेरा जमा रखा है. लेकिन इस सब के बीच झामुमो नेता कांग्रेस के लिए प्रचार करने के लिए गुजरात नहीं गए जिसपर कई सवाल खड़े हो रहे हैं.
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गुजरात में ताबड़तोड़ चुनाव प्रचार और अपने सबसे बड़े नेता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भरोसे बीजेपी फिर से गुजरात में सरकार बनाने का दावा जनता के बीच कर चुकी है. वहीं कांग्रेस अपनी नीतियों को लेकर के भी जनता के बीच पहले चरण में अपने फतेह का हर फार्मूला लगा चुकी है. गुजरात की राजनीति में जो कुछ हो रहा है उसका बड़ा मापदंड पूरे देश की सियासत में इस रूप में भी देखा जा रहा है कि गुजरात के परिणाम किस बदलाव की कहानी लिखते हैं. यह बदलाव कि जिस धुरी को लेकर देश में राजनीति चल रही है उसी तरह का कोई परिणाम गुजरात देश के सामने रखता है या फिर गुजरात से राज्य और देश की राजनीति कोई नई राजनीतिक संभावनाओं की राह खोलेगी.
इन तमाम चीजों के बीच महागठबंधन की सियासत पर झारखंड की राजनीति में इस बात को लेकर टटोली जा रही है कि गुजरात की राजनीति में झारखंड की हिस्सेदारी इतनी मजबूती से क्यों नहीं दिखी, क्योंकि कम से कम कांग्रेस के दावे में एक सरकार जो झारखंड में चल रही है उसकी मजबूत हिस्सेदारी भी है. जिस जनजातीय समुदाय के सबसे अग्नि पंक्ति में खड़े होने का दावा भाजपा के नेता गुजरात में कर रहे हैं उसका एक भी भेद भी झारखंड की महागठबंधन में शामिल राजनीतिक पार्टियों को सियासत के रूप में रखना चाहिए था. चाहे वह कांग्रेस हो, झारखंड मुक्ति मोर्चा हो या फिर गुजरात के सूरत जैसे कुछेक इलाकों की में बड़ी संख्या में रहने वाले वे लोग हो जिनके बीच लालू की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल की अच्छी पकड़ के दावे गाहे बगाहे किये जाते रहे हों, लेकिन हैरान करने वाली बात यह रही कि 27 साल से गुजरात की सत्ता पर काबिज भाजपा को सत्ता से बेदखल करने की कोशिशों में लगी कांग्रेस की झारखंड इकाई और उसके सहयोगी दल के नेताओं ने गुजरात से दूरी बनाए रखी.
गुजरात में आदिवासियों की एक बड़ी आबादी है और उनके लिए 27 अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीटें हैं, गुजरात चुनाव की घोषणा के बाद झामुमो के कार्यकारी अध्यक्ष और मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन के गुजरात दौरे पर आदिवासी बहुल इलाकों में कांग्रेस के पक्ष में चुनावी सभाएं करने की बात भी गाहे बगाहे झामुमो के नेताओं ने की थी. परंतु अब जब पहला चरण के मतदान के लिए चुनाव प्रचार समाप्त हो गया. हेमंत सोरेन तो क्या कोई झामुमो कोटे के मंत्री-विधायक भी गुजरात के आदिवासी बहुल इलाके में कांग्रेस के लिए चुनावी सभा करने नहीं गया.
झारखंड मुक्ति मोर्चा के केंद्रीय समिति सदस्य और शिबू सोरेन के बेहद करीबी सुप्रियो भट्टाचार्या ने इस मुद्दे पर ईटीवी भारत से फोन पर कहा कि सहयोगी दल कांग्रेस के नेताओं के साथ गुजरात में हमारे नेता के चुनावी सभाओं को लेकर कोऑर्डिनेशन नहीं बना. राज्य में भी भारतीय जनता पार्टी के इशारे पर केंद्रीय एजेंसियों द्वारा ऐसी राजनीतिक स्थिति बना दी गयी कि हमारे नेता विधायक गुजरात नहीं जा सके. सुप्रियो भट्टाचार्या ने यह भी कहा कि अगर कांग्रेस की ओर से चुनाव के दूसरे चरण के लिए चुनावी सभाओं को लेकर कोई ब्लू प्रिंट मिले तो जरूर हमारे नेता गुजरात जाएंगे. उन्होंने कहा कि झामुमो का आकलन है कि गुजरात के ग्रामीण इलाकों में कांग्रेस अच्छा प्रदर्शन करेगी.
वहीं, सूरत, राजकोट और अन्य वैसे इलाके जहां बड़ी संख्या में बिहार, पूर्वांचल और झारखंड के लोग रोजी रोजगार के लिए बसे हैं. वहां राष्ट्रीय जनता दल का मजबूत जनाधार और पकड़ का दावा करने वाली लालू प्रसाद की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल के नेता क्यों नहीं गए, इस सवाल के जवाब में राजद के प्रदेश प्रवक्ता अनिता यादव कहती हैं कि निश्चित रूप से अगर हमारे युवा नेता तेजस्वी यादव की सभाएं गुजरात मे होती तो उसका फायदा कांग्रेस को मिलता, लेकिन इसका समन्वय का काम कांग्रेस का था, अब कांग्रेस के नेता ही यह बता पाएंगे कि गुजरात को लेकर उनकी रणनीति क्या थी.
झारखंड कांग्रेस से बंधु तिर्की ही एक मात्र ऐसे नेता हैं जो गुजरात गए हैं. झारखंड सरकार में शामिल कोई भी मंत्री, प्रदेश अध्यक्ष, विधायक दल के नेता गुजरात नहीं गए. छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री की कई सभाएं गुजरात मे हुई परंतु झारखंड के कांग्रेसी नेताओं की गुजरात की दूरी क्यों बनी रही, इस सवाल के जवाब में कांग्रेस के प्रदेश प्रवक्ता राकेश सिन्हा ने कहा कि राष्ट्रीय स्तर से जो कार्यक्रम आता है उसी के अनुरूप कार्यक्रम बनता है. रांची की पूर्व मेयर रमा खलखो और अन्य नेता हिमाचल प्रदेश चुनाव में गए थे, गुजरात को लेकर जैसा निर्देश मिला उसके अनुकूल निर्णय लिया गया.
ऐसे में पहले चरण के चुनाव प्रचार के समाप्त होने के बाद झारखंड की राजनीति में इस बात की चर्चा शुरू हो गई है कि आखिर राष्ट्रीय जनता दल और झारखंड मुक्ति मोर्चा ने देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के साथ मंच साझा क्यों नहीं किया. इंदौर में राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा में शामिल होने के लिए झारखंड कांग्रेस के नेता चले गए और झारखंड मुक्ति मोर्चा की तरफ से मंत्री मिथिलेश ठाकुर को झारखंड मुक्ति मोर्चा का प्रतिनिधि और मुख्यमंत्री के प्रतिनिधि के तौर पर भेज दिया गया. लेकिन जिस गुजरात फतेह कर कांग्रेस या यूं कहें विपक्ष, देश को एक संदेश दे सकती थी उस गुजरात को लेकर सत्ता में साथ रहकर भी झामुमो-कांग्रेस-राजद दूर दूर क्यों रहे.
भारत की राजनीति में बदलाव की कहानी अब लिखी जाने लगी है इसका स्वरूप गुजरात की राजनीति में किसी मंच पर नहीं दिखा, झारखंड में यह चर्चा अब होने लगी है कि आखिर महागठबंधन का कौन सा संदेश पार्टियां राष्ट्रीय स्तर पर देश की जनता के सामने रख पाएंगे, क्योंकि जब जहां चुनाव होते हैं वहां गठबंधन की एकजुटता बिखरी हुई दिखती है.
विपक्ष की कहानी बताने के लिए भाजपा के कई नेता हेमंत सरकार के भ्रष्टाचार को लेकर लगातार हमलावर हैं, गुजरात तक में कैंप करके चले आए तो कुछ अभी वहीं बने हुए हैं, उन्होंने इस बात को बताया भी कि गुजरात में आदिवासी किस तरीके से हैं और उनकी आजीविका के साथ ही रोजगार और देश के विकास में उनकी भूमिका क्या है, लेकिन झारखंड के आदिवासी किस रूप में हैं इसे बताने के लिए झारखंड सरकार का कोई नुमाइंदा वहां तक नहीं पहुंचा. संभवत कांग्रेस को यह बताने के लिए अकेले ही खड़ा होना पड़ा कि जहां उनकी सरकार है, जहां पर उनकी सरकार चल रही है वहां पर आदिवासियों के लिए बहुत काम किया जा रहा है.
अगर झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता वहां पहुंचे होते तो इस बात को वहां और मजबूती से रखा जा सकता था कि कैसे झारखंड की सरकार ओल्ड पेंशन स्कीम, यूनिवर्सल पेंशन स्कीम, जनजातीय समुदाय के लिए विशेष योजनाओं को धरातल पर उतारने में सफल रही है, तो जनजातीय और वंचित समाज के लोगों के मेधावी बच्चों को पढ़ाई के लिए विदेश भेज रही है, कोरोना काल में जब पूरी दुनिया परेशान थी तब उनकी ही सरकार ने हवाई चप्पल वाले अपने लोगों को हवाई जहाज से घरवापसी करवाई. इन बातों से गुजरात की जनता को कांग्रेस के पक्ष में आकर्षित किया जा सकता था, लेकिन पहले चरण के चुनाव के खत्म होने के बाद भी झारखंड की राजनीति में गुजरात चुनाव को लेकर के अगर बीजेपी की बात छोड़ दी जाए तो बाकी राजनीतिक दलों में जिस तरीके की राजनीतिक शिथिलता दिख रही है, उससे लगता नहीं है कि आगे के चुनाव प्रचार के लिए इन पार्टियों का कोई रणनीति बनी है.
गुजरात मे पहले चरण के लिए 89 विधानसभा सीट पर 01 दिसंबर को मतदान होना है जहां 788 प्रत्याशियों की किस्मत दांव पर लगी है. 5 दिसंबर को 93 विधानसभा सीट पर दूसरे चरण में मतदान होगा और वहां 833 उम्मीदवारों की किस्मत दांव पर लगी होगी. गुजरात विधानसभा में 27 सीटें अनुसूचित के जनजाति के लिए और 13 सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है.