रांचीः गुलाम भारत में जंग-ए-आजादी की क्रांति की शुरुआत 1857 सिपाही विद्रोह को माना जाता है. इसके बाद ये आग धीरे धीरे पूरे भारत में फैलती चली गयी. भारत अंग्रेजों के चंगुल से छुड़ाने के लिए स्वतंत्रता संग्राम में लोग इसमें कूद गए. लेकिन सन 1857 से ठीक दो साल पहले यानी 1855 में अंग्रेजी शासन के खिलाफ विद्रोह का बिगुल बच चुका था. यहां के आदिवासियों ने हूल क्रांति कर दी. इस संथाल हूल क्रांति भी कहा जाता है. आदिवासी समुदाय के ये क्रांतिकारी अपने युद्ध कौशल और संदेश पहुंचाने के अनोखे तरीके से भी जाने जाते हैं.
हूल क्रांति के नायकः साहिबगंज के भोगनाडीह गांव के रहने वाले दो भाई सिदो और कान्हू इस हूल क्रांति के नायक थे. इस लड़ाई में सिदो-कान्हू के दो और भाई चांद-भैरव और दो बहन फूलो-झानो ने भी अपना पूरा योगदान दिया. आदिवासियों की यह लड़ाई अंग्रेजी हुकूमत के साथ-साथ महाजनी प्रथा के विरुद्ध सबसे बड़ी लड़ाई थी. अंग्रेजों के खिलाफ लड़ी गई इस लड़ाई में वर्तमान संथाल परगना के साथ-साथ बीरभूम, पुरुलिया के साथ-साथ हजारीबाग के लोगों ने भाग लिया. 30 जून 1855 को साहिबगंज के भोगनाडीह गांव में एक सभा हुई और यहां निर्णय लिया गया कि हम लोगों को अंग्रेजी हुकूमत के नीतियों के खिलाफ विद्रोह करना है.
आदिवासियों का पराक्रमः संथाल समुदाय की लड़ाई महाजनों से थी. महाजन अंग्रेजों के करीबी थी और यही वजह थी कि संथालियों को अंग्रेजों से सीधी जंग करनी पड़ी. संथालों को परास्त करने के लिए 1856 में तत्कालीन अनुमंडल पदाधिकारी सर मॉर्टिन ने रातों रात मार्टिलो टावर का निर्माण कराया, उसमें छोटे-छोटे छेद बनाए गए ताकि छुपकर संथालियों को बंदूक से निशाना बनाया जा सके. लेकिन आदिवासियों के पराक्रम को यह टावर नहीं दबा पाया. सिदो-कान्हो ने आखिरी दम तक अंग्रेजों के खिलाफ जंग लड़ा. आखिरकार अंग्रेजों ने दोनों भाइयों को पकड़ लिया और दोनों को फांसी दे दी.
नीलांबर-पीतांबर का योगदानः 1857 की क्रांति में नीलांबर-पीतांबर के योगदान का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पलामू में यह मशाल 1859 तक जलती रही. दोनों भाइयों ने गुरिल्ला तकनीक से अंग्रेजों को नाकों चने चबाने पर मजबूर कर दिया था. दोनों भाइयों के नेतृत्व में सैकड़ों लोगों ने 27 नवंबर 1857 को रजहरा स्टेशन पर हमला कर दिया. यहां से अंग्रेज कोयला की ढुलाई करते थे.
कर्नल डाल्टन ने दोनों को जाल में फंसायाः अंग्रेजों ने कमिश्नर डाल्टन को बड़ी फौज के साथ पलामू भेजा था. डाल्टन के साथ मद्रास इन्फेंट्री के सैनिक घुड़सवार और विशेष बंदूकधारी जवान शामिल थे. फरवरी 1858 में डाल्टन चेमो सान्या पहुंचा और जमकर तबाही मचाई. डाल्टन लगातार 24 दिनों तक चेमो सान्या में रुका था. डाल्टन की कार्रवाई के बाद नीलांबर-पीतांबर को काफी नुकसान हुआ. मंडल के इलाके में दोनों भाइयों ने अपने परिजनों से मुलाकात की योजना बनाई. इसकी भनक डाल्टन को लग गई. डाल्टन ने मंडल के इलाके से दोनों भाइयों को कब्जे में लिया. 28 मार्च 1859 को लेस्लीगंज में एक पेड़ पर दोनों भाइयों को फांसी दे दी गई.
भगवान बिरसा मुंडाः 18 नवंबर 1875 को खूंटी के उलीहातू गांव में बिरसा मुंडा का जन्म हुआ था. सूदखोरों और अंग्रेजों के आतंक के खिलाफ बिरसा ने ऐसी लड़ाई छेड़ी, जिससे कम उम्र में ही वो आदिवासियों के लिए मसीहा बन गए. उन्हें भगवान का दर्जा दिया गया. बिरसा थोड़ा-बहुत इलाज भी जानते थे. किसी को कोई बीमारी होती तो दवा से ठीक कर देते थे. लोगों को लगता कि बिरसा ने चमत्कार कर दिया है. इससे बिरसा लोगों के लिए भगवान बन गए. इसी आंदोलन के क्रम में 22 अगस्त 1895 को बिरसा पहली बार गिरफ्तार हुए थे.
जल-जंगल-जमीन के लिए आंदोलनः बिरसा ने जल-जंगल-जमीन को बचाने के लिए उलगुलान किया. जनवरी 1900 में डोंबरी पहाड़ पर बिरसा जब जनसभा को संबोधित कर रहे थे तब अंग्रेजों से लंबा संघर्ष हुआ और इसमें कई आदिवासी मारे गए. बाद में 3 मार्च 1900 को चक्रधरपुर में बिरसा की गिरफ्तारी हुई. 9 जून 1900 को बिरसा ने अंतिम सांस ली. वैसे तो बिरसा मुंडा के निधन का कोई प्रमाण नहीं है लेकिन, आरोप है कि अंग्रेजों ने जहर देकर उन्हें मार दिया था.
आजादी की लड़ाई लड़ने के अनोखे तरीकेः झारखंड में आदिवासी समुदाय अपने पारंपरिक वाद्य यंत्रों का इस्तेमाल स्वतंत्रता की लड़ाई में सूचना पहुंचाने के लिए करते थे. इस लड़ाई के दौरान संदेश पहुंचाने का तरीका अनूठा हुआ करता था. यहां के लोगों ने अपनी आदि परंपरा को स्वतंत्रता आंदोलन का हथियार बनाया. अपने लोक वाद्य यंत्रों को संचार का सशक्त माध्यम बनाया. हूल क्रांति में संचार का सबसे सशक्त माध्यम बना नगाड़ा और मांदर.
नगाड़े की आवाज से एकजुट होने का संदेशः मांदर और नगाड़ा, जिसे संथाली में टमाक कहा जाता है. आज भी आदिवासी संथाल बहुल इलाकों में यह परंपरा है कि अगर कहीं नगाड़ा बजता है तो उसका प्रतीक है कि लोगों को उस नियत स्थान तक पहुंचना है और उसका क्या संदेश है उसे जानना है. जब लोग एकजुट हो जाते हैं तो नगाड़ा बजा रहा शख्स बताता है कि समाज के सामने यह समस्या आ गई है और हमें एक निश्चित दिन एकजुट होना है, उस दिन एक सभा का आयोजन होना है. साहिबगंज के भोगनीडीह में इसी मांदर और नगाड़े की आवाज सुनकर हजारों की संख्या में लोग जमा हुए थे.
संदेश पहुंचाने के लिए पत्तों का इस्तेमालः आदिवासी समाज में अपनी पारंपरिक संचार प्रणाली (भरुवा) को तवज्जो देते हैं. आधुनिक संचार क्रांति के इस दौर में भी वो पुरानी व्यवस्था सारजोम सकाम यानी साल के पत्तों का सहारा विशेष परिस्थितियों में लेते हैं. जिसमें उन्हें एक जगह एकत्रित करने के लिए संदेश दिया जाता है. सिदो-कान्हू से लेकर भगवान बिरसा मुंडा तक इस संचार माध्यम का इस्तेमाल स्वतंत्रता आंदोलन में किया करते थे.
शिबू सोरेन का डुगडुगी आंदोलनः भारत को आजाद हुए कई वर्ष बीत चुके थे. लेकिन रूढ़ीवाद में जकड़ा भारत इन बेड़ियों से मुक्ति चाहता था. साहूकारी, महाजनी, छुआ-छूत समेत ऐसी कई सामाजिक बुराइयां थीं, जो स्वस्थ समाज को दीमक की तरह खोखला कर रही थी. आदिवासी बहुल झारखंड में भी महाजनी प्रथा का काफी प्रकोप था. जो आदिवासियों के जल, जंगल और जमीन को हथियाने में लगे थे. आजाद भारत में भी उनके खिलाफ भी एक और लड़ाई लड़ी गई थी. लेकिन आजाद भारत में शिबू सोरेन ने महाजनों के खिलाफ डुगडुगी बजाकर एक साथ हल्ला बोल दिया. महाजनी प्रथा, सूदखोरी और शराबबंदी के खिलाफ अभियान 1970 आते शिबू ने इस आंदोलन की कमान अपने हाथों में थाम ली.
धान कटनी आंदोलनः शिबू सोरेन ने रामगढ़, गिरिडीह, बोकारो और हजारीबाग जैसे इलाकों में महाजनों के खिलाफ आंदोलन शुरू किया. उस दौरान जमींदार, महाजन समुदाय के लोगों ने छल प्रंपच और जाली तरीकों से आदिवासियों की जमीन पर कब्जा कर रखा था. शिबू सोरेन ने आदिवासियों को जमा किया, मंडली बनाई और सामूहिक ताकत के दम पर खेत से धान की फसल काटने लगे, ये आंदोलन धनकटनी आंदोलन कहलाया.
झारखंड के सुदूर जंगल और गांवों में आज भी मांदर की थाप, नगाड़े का शोर और डुगडुगी की आवाज में प्रदेश के वीर आदिवासी सपूतों की गूंज सुनाई देती है. इस गूंज और अनुगूंज आज भी इस राज्य की आदि परंपरा को एक सूत्र में पिरोकर रखा है.