पलामू: पिछड़ेपन और नक्सलियों का दंश, गरीबी और अशिक्षा की मार और ना जाने कितने ही समस्याओं से ग्रसित इलाके में बदलाव आना शुरू हो चुका है. समाज का ऐसा तबका जो दशकों से पिछड़ा हुआ और मुख्यधारा से कटा हुआ है. ऐसे तबके में बदलाव की सुबह हो चुकी है. इस बदलाव की वाहक तो महिलाएं बनी हैं. लेकिन इसका जरिया बांस बना है. ये कहना गलत नहीं होगा कि महिलाएं समाज में बांस से बहार ला रही हैं.
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महिलाएं बांस के उत्पाद बना कर सैकड़ो परिवारों के जीवन मे बदलाव ला रही हैं. ये सैकड़ों परिवार आम होते हुए भी आम नहीं हैं. बल्कि ये परिवार आदिम जनजाति के साथ-साथ नक्सल इलाकों के रहने वाले और नक्सल घटनाओं से पीड़ित परिवार हैं. नक्सलियों के कारण यहां कभी विकास पहुंचा ही नहीं, लेकिन अब इन परिवारों में विकास भी पहुंच रहा है. सरकारी योजनाएं भी पहुंच रही हैं और इन योजनाओं से लोग लाभान्वित भी हो रहे हैं.
कभी बांस के कारोबार के लिए चर्चित था यह इलाका: यहां जिन परिवारों की बात हो रही है. वे परिवार झारखंड की राजधानी रांची से करीब 165 किलोमीटर दूर पलामू के इलाके में निवास रहते हैं. 80 और 90 के दशक मे पलामू का इलाका बांस के कारोबार के लिए देश भर में चर्चित था, लेकिन बदलते वक्त के साथ यह व्यापार कमजोर हो गया. लेकिन एक बार फिर से बांस ने इलाके के लोगों के जीवन में उम्मीद की किरण जगाई है. पलामू के इलाके में महिलाएं बांस से जुड़े हुए उत्पाद को तैयार कर रही हैं. बांस से बने उत्पाद को बेचकर महिलाएं आज हजारों रुपए महीने कमा रही हैं और अपने परिवार का पेट पाल रही हैं. पलामू में 250 से अधिक महिलाएं इस बांस से बने कई सजावटी वस्तुओं को तैयार कर रही हैं. इन महिलाओं में अधिकतर आदिम जनजाति की परहिया परिवार की महिलाएं हैं.
नक्सल इलाके की महिलाएं बना रहीं बांस की सजावटी वस्तुएं: पलामू प्रमंडलीय मुख्यालय मेदिनीनगर से करीब 78 किलोमीटर दूर मनातू के चिड़ी में बांस के सजावटी सामग्री बनाने वाली महिलाओं के पास ईटीवी भारत की टीम जमीनी हकीकत जानने के लिए पहुंची. यह इलाका नक्सल हिंसा और पिछड़ेपन के लिए जाना जाता है. यहां आदिम जनजाति परहिया परिवार के सदस्य रहते हैं. चिड़ी की करीब 60 महिलाएं बांस से बनी सामग्री को तैयार करती हैं. जो विभिन्न ग्रुप में बंटी हुई हैं. इसके लिए झारखंड लाइवलीहुड प्रमोशन सोसाइटी (जेएसएलपीएस) के तहत महिलाओं को ट्रेनिंग दी गयी और उत्पादन के लिए अनुदान राशि उपलब्ध करवाई गई है. करीब 15 दिनों तक स्पेशल टीम ने महिलाओं को ट्रेनिंग दी थी, जिसके बाद महिलाओं ने खूबसूरत उत्पादों को अपने हाथ से तैयार करना शुरू किया है. चिड़ी की तरह ही पलामू के विभिन्न इलाकों में 250 से अधिक महिलाएं बांस की सामग्री बना रही हैं.
इन महिलाओं को ट्रेनिंग देने वाली ट्रेनर गीता देवी बताती हैं कि महिलाओं को ट्रेनिंग दी गयी है और ट्रेनिंग लेने के बाद महिलाएं काफी उत्साहित हैं. वह बांस के उत्पाद को तैयार कर रही हैं.
महिलाएं हर महीने कमा रही है 10 से 15 हजार रुपए: दरअसल बांस के विभिन्न सामग्री बनाने वाली महिलाएं पहले भी बांस का कारोबार करती थीं. लेकिन वे गर्मी, शादी-विवाह और विभिन्न त्यौहारों पर ही इसका कारोबार करती थी. लेकिन सजावटी सामग्री बनाने के बाद महिलाएं अब पूरे वर्ष इसका कारोबार कर रही हैं. संगीता देवी नाम की महिला ने बताया कि पहले वह विभिन्न त्यौहारों पर ही सामग्री को बेचती थी, लेकिन अब वर्ष भर इससे आमदनी हो रही है. सामग्री बनाने से पहले उन्होंने ट्रेनिंग ली थी. उनके जैसी दर्जनों महिलाएं इससे जुड़ी हुई हैं. महिलाएं बांस से लैंप, गुलदस्ता, ग्लोब लैंप, पाइन एप्पल लैंप, पेट्रोमैक्स लैंप तैयार कर रही हैं.
विभिन्न आयोजनों पर लगाए जा रहे स्टॉल: महिलाओं द्वारा हाथ से बनाए गए बांस की सामग्री बाजार में 700 से 1500 रुपये में बिक रही है. महिलाओं द्वारा तैयार सजावटी सामग्री में इस्तेमाल होने वाला बांस रामगढ़ के इलाके से मंगाया जाता है. झारखंड लाइवलीहुड प्रमोशन सोसाइटी बांस से बने हुए सामग्री का राज्य और राज्य से बाहर लगने वाले विभिन्न मेलों में स्टाल लगाती है और बेचती है. इससे होने वाला आय सीधे महिलाओं के खाते में जाता है. पलामू के उप विकास आयुक्त रवि आनंद ने बताया कि महिलाओं को पहले ग्रुप में जोड़ा गया था. उसके बाद धीरे-धीरे उत्पादन की जानकारी दी गई और उन्हें प्रशिक्षण दिया गया. महिलाओं द्वारा तैयार किए गए उत्पाद काफी खूबसूरत हैं. इन प्रोडक्ट्स को बेचने के लिए बेहतर मार्केटिंग की सुविधा उपलब्ध करवाने की पहल की जा रही है.