पलामू: 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ हुई क्रांति की जब भी चर्चा होगी पलामू के शहीद जवान नीलांबर और पीताम्बर का नाम उसमें जरूर शामिल होगा. राजधानी रांची से करीब 250 किलोमीटर और पलामू प्रमंडलीय मुख्यालय से 90 किलोमीटर दूर स्थित है चेमो सान्या गांव. इस गांव के रहने वाले थे शहीद जवान नीलांबर और पीताम्बर. 1857 की क्रांति में इन दोनों भाइयों के योगदान का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पलामू में यह मशाल 1859 तक जलती रही. दोनों भाइयों ने गुरिल्ला तकनीक से अंग्रेजों को पानी पिला दिया था.
जागीरदारों के साथ मिलकर शुरू की थी गुरिल्ला लड़ाई
नीलांबर-पीताम्बर के पिता चेमो सिंह खरवार ने चेमो और सान्या गांव को बसाया था और वे यहां के जागीरदार थे. पिता की मौत के बाद नीलांबर ने ही छोटे भाई पीताम्बर को पाला था. 1857 के सैन्य विद्रोह के दौरान पीताम्बर रांची में थे. वहां से लौटने के बाद दोनों भाइयों ने अंग्रेजो के खिलाफ जंग की योजना तैयार की. उस दौरान दोनों भाइयों ने भोक्ता, खरवार, चेरो और आसपास के कुछ जागीरदारों के साथ मिलकर गुरिल्ला लड़ाई शुरू की. दोनों भाइयों के नेतृत्व में सैकड़ों लोगों ने 27 नवंबर 1857 को रजहरा स्टेशन पर हमला कर दिया. यहां से अंग्रेज कोयला की ढुलाई करते थे. इससे अंग्रेज बौखला गए. लेफ्टिनेंट ग्राहम के नेतृत्व में एक फौज पलामू पहुंची और नीलांबर-पीताम्बर का ठिकाना पलामू किले पर हमला कर दिया. इस हमले से नीलांबर-पीताम्बर के लड़ाकों का काफी नुकसान हुआ. इसमें नीलांबर-पीताम्बर के सहयोगी शेख भिखारी और उमराव सिंह पकड़े गए थे और दोनों को फांसी दे दी गई.
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कर्नल डाल्टन ने मचाई थी तबाही, दोनों भाइयों को फंसाया था जाल में
नीलांबर-पीताम्बर की गुरिल्ला लड़ाई से परेशान अंग्रेजो ने कमिश्नर डाल्टन को बड़ी फौज के साथ पलामू भेजा था. डाल्टन के साथ मद्रास इन्फेंट्री के सैनिक घुड़सवार और विशेष बंदूकधारी जवान शामिल थे. फरवरी 1858 में डाल्टन चेमो सान्या पहुंचा और जमकर तबाही मचाई. डाल्टन लगातार 24 दिनों तक चेमो सान्या में रुका था. पत्रकार सतीश सुमन बताते हैं कि दोनों भाइयों को गुरिल्ला वार में महारत हासिल थी. दोनों भाइयों के पास पारंपरिक हथियार ज्यादा थे लेकिन, कई के पास बंदूक भी थी. डाल्टन की कार्रवाई के बाद नीलांबर-पीताम्बर को काफी नुकसान हुआ. मंडल के इलाके में दोनों भाइयों ने अपने परिजनों से मुलाकात की योजना बनाई. इसकी भनक डाल्टन को लग गई थी. डाल्टन ने मंडल के इलाके से दोनों भाइयों को कब्जे में लिया. 28 मार्च 1859 को लेस्लीगंज में एक पेड़ पर दोनो भाइयों को फांसी दे दी गई.
आज भी उपेक्षित है गांव
इतिहास में नीलांबर-पीताम्बर को उतनी जगह नहीं मिली जितने वे इसके हकदार थे. आज भी नीलांबर-पीताम्बर का गांव चेमो सान्या उपेक्षित है. यहां तक पहुंचते-पहुंचते विकास की सारी योजनाएं ठप हो जाती है. यह इलाका अब नक्सल हिंसा के लिए चर्चित है और बूढ़ापहाड़ के नजदीक है. चेमो सान्या निर्माणाधीन मंडल डैम के डूब क्षेत्र में आता है. आज पूरा इलाका नीलांबर-पीताम्बर की धरती को बचाने के लिए लड़ाई लड़ रहा है. मंडल डैम बनने के बाद यह गांव डूब जाएगा.
चेमो सान्या और पलामू के मेदिनीनगर में दोनों भाइयों का एक छोटा स्मारक है जबकि दोनों भाइयों से जुड़ी किसी भी सामग्री को बचाया नहीं जा सका है. दोनों भाइयों के नाम पर यूनिवर्सिटी जरूर बनी है लेकिन यूनिवर्सिटी में उनकी प्रतिमा तक नहीं है. पत्रकार सतीश सुमन बताते हैं कि एक छोटा सा स्मारक बनाया गया है जो काफी उपेक्षित है. इस दिशा में पहल करने की जरूरत है ताकि शहीदों को सम्मान मिले.
कई जागीरदारों की आंख की किरकिरी बन गए थे दोनों भाई
नीलांबर-पीताम्बर के गांव से ताल्लुक रखने वाले प्रकाश तिर्की बताते हैं कि चेमो सान्या उपेक्षित है. डूब क्षेत्र होने के कारण 1986 के बाद से कोई विकास योजना शुरू नहीं हुई है. नीलांबर-पीताम्बर के इतिहास के बारे में ग्रामीण भी कम ही जानते हैं. सितंबर 2020 से गांव में फोटो रख तक ग्रमीणों को दोनों के बारे बताया जा रहा है. नीलांबर-पीताम्बर पर किताब लिखने वाले देवेंद्र गुप्ता बताते हैं कि अंग्रेजो के खिलाफ लड़ाई का दोनों भाइयों ने बिगुल फूंका था जिससे कई जागीरदार नाराज हो गए थे. दोनों भाई कई जागीरदारों की आंख की किरकिरी बने हुए थे और इसी वजह से कई ने अंग्रेजों का साथ दिया था.