लोहरदगा: जिले से लेकर बगड़ू थाना अंतर्गत नीचे बगड़ू सहित आसपास के क्षेत्रों में गड़ेरी परिवार के कई सदस्य निवास करते हैं. इनके लिए भेंड़ पालन और भेंड़ से ऊन निकालना ही रोजगार का एकमात्र जरिया है. इसी काम में पूरा का पूरा परिवार लगा रहता है.
आज भी गड़ेरी समुदाय के सदस्य झारखंड राज्य के अलग-अलग क्षेत्रों में निवास करते हैं. घर के सबसे छोटे सदस्य से लेकर सबसे बुजुर्ग सदस्य भेंड़ पालन के सहारे ही अपनी जिंदगी काट रहे हैं. व्यापारी घर आकर ऊन खरीद कर ले जाते हैं. अच्छी कीमत मिलती है, परंतु वर्तमान समय में जो खर्च एक परिवार को चलाने में होता है, वह खर्च शायद अब मिल नहीं पाता. परिवार के वृद्ध सदस्य ऊन से कंबल बनाने का काम करते हैं. साल में 5-6 कंबल आराम से बना लेते हैं. इससे 5 से 6 हजार रुपए की आमदनी तो हो जाती है. इसके अलावा भेड़ की बिक्री, गोबर की बिक्री, भेंड़ के घी की बिक्री और उन की बिक्री से भी आमदनी होती है. भेंड़ का घी हड्डियों के लिए काफी बेहतर माना जाता है. भेंड़ के घी की कीमत 5 हजार रुपए प्रति किलो है.
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सरकारी स्तर पर कोई मदद नहीं मिलने की वजह से गड़ेरी समुदाय के लोग काफी निराश हैं. उन्हें लगता है कि सरकार मदद करती तो वह इस परंपरा को जिंदा रख पाते. दादा-पुरखों के समय से वो इस व्यवसाय को करते आ रहे हैं. उन्होंने कोई काम सीखा भी नहीं है. भेंड़ पालन और भेड़ से होने वाली आमदनी से ही उनके पूरे परिवार का गुजारा होता है. इनकी कभी सरकार ने ना तो सुध लेने की कोशिश की है और ना ही किसी जनप्रतिनिधि ने इन पर नजरें इनायत की हैं.
एक-एक परिवार के पास डेढ़ सौ से लेकर 200 भेंड़ हैं. साल में इनके दवा को लेकर खर्च भी अलग से होता है. कुल मिलाकर भेड़ पालन से फायदा तो है, पर सरकार यदि सहयोग करें तो इसे एक वृहद रोजगार के रूप में स्थापित किया जा सकता है. समाज में न तो ऊन की मांग कम हुई है और ना ही भेंड़ पालन से कोई नुकसान ही है. सरकार प्रयास करें तो भेड़ पालन को एक अच्छे रोजगार के रूप में स्थापित किया जा सकता है. इसके लिए राज्य के मुखिया को ही पहल करनी होगी. स्थानीय तौर पर प्रशासन के पास किसी ऐसी योजना नहीं है कि वह घड़ी समुदाय के लोगों का दिन बदल सके.
जिले के अलग-अलग क्षेत्रों में भेड़ पालन करने वाले समुदाय की संख्या लगभग 30 हजार है. यह जिले के अलग-अलग क्षेत्रों में निवास करते हैं. भेंड़ पालन ही इनके जीविकोपार्जन का एकमात्र जरिया है. सरकार से मदद की आस में यह आज भी परंपरा को जिंदा रखे हुए हैं.