लोहरदगा: मानव समाज में आदि काल से ही प्रगति प्रदत मिट्टी का प्रयोग दैनिक उपयोग में आने वाले बर्तनों और आभूषणों के निर्माण के लिए किया जाता रहा है. प्राचीन काल से ही मनुष्य एक कुशल कारीगर रहा है. घर की सजावट से लेकर त्योहार में जलने वाले दीपक के लिए कुम्हार समाज को याद करना आवश्यक हो जाता है. आज के बदलते तकनीकी परिवेश में माटी शिल्पकारों के कौशल विकास की आवश्यकता तो जरूर महसूस की जाती है, पर इनकी जिंदगी आज भी मिट्टी में सिमट कर रह गई है. जिंदगी से संघर्ष करते कुम्हार समाज की दशा को सुधारने को लेकर घोषणाएं तो खूब हुई. लेकिन इन्हें केवल कोरा आश्वासन पर मिला.
वादों तक सिमटे दावे
कुम्हार कला में इस्तेमाल होने वाले मिट्टी को निकालने के लिए ग्राम पंचायतों में कुम्हारों को निशुल्क पट्टों का आवंटन करने की घोषणा की गई थी. वर्ष 2017-28 और वर्ष 2018-29 को मिलाकर कुल 700 माटी शिल्पकार को विद्युत चाक, मिट्टी मिलाने वाली मशीन और कुल्हड़ तैयार करने की तकनीकी मशीन उपलब्ध कराने की योजना प्रारंभ करने की घोषणा माटी कला बोर्ड की ओर से हुई थी. लेकिन बातें सिर्फ वादों तक ही सिमट कर रह गए. माटी कला बोर्ड के पूर्व चेयरमैन इन्हें विद्युत चाक उपलब्ध कराने का दावा तो करते हैं. लेकिन हकीकत कुम्हार के घर में साफ तौर पर नजर आ जाता है.
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नई पीढ़ी को जोड़ने की कोशिशें हुई नाकाम
लोहरदगा: कुम्हार का घूमता चाक आज भी यह बताता है कि इंसान की जिंदगी भी ऐसे ही घूम रही है. दीपावली में जब हम अपने घरों में दीए जलाते हैं तो सबसे पहले याद उस कुम्हार की आती है, जिसने इन दीयों को तैयार किया. घरों में आज भी घड़ा की अहमियत को समझा जा सकता है. दीपावली में बच्चों द्वारा सजाए जाने वाले ग्वालिन, मिट्टी के खिलौने, मिट्टी की हांडी, गुल्लक आदि सामानों की अहमियत बरकरार रखने के लिए इन्हें तैयार करने की योजना से जोड़ने को लेकर नई पीढ़ी को कुम्हार के परंपरागत व्यवसाय की ओर आकर्षित करने की कोशिश नाकाम हो गई. स्वरोजगार के अवसरों में वृद्धि और कच्चे माल की प्राप्ति के लिए नियमों के सरलीकरण की घोषणाएं भी हुई थी. बिजली, पानी, पहुंच मार्ग आदि की व्यवस्था एवं काम करने के लिए शेड का आवंटन सहित कई बातें कही गई. तकनीकी कार्यशाला आयोजित करने की बातें भी हुई, फिर भी कुम्हार समाज को मिला तो बस कोरा आश्वासन. उनकी आर्थिक स्थिति उनके हालात को बयां करती है.
खूब घूमे रांची-दिल्ली, हासिल हुआ न कुछ
कुम्हार समाज के लोगों को प्रशिक्षण, मेला में अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करने को लेकर रांची, दिल्ली सहित कई स्थानों पर खूब घुमाया गया. कहा गया कि इसके बदले उन्हें पैसा मिलेगा. लेकिन कुम्हार समाज के लोगों को कुछ हासिल नहीं हुआ. यहां तक की किराए का पैसा भी कई लोगों को खुद ही लगाना पड़ा. अब इनके पास फिर से उसी हाथ से घुमाने वाले चाक में काम करने की मजबूरी है. परिवार का पेट पालना है, तो परंपरागत व्यवसाय से मुंह नहीं मोड़ सकते.
सालों भर इसी के भरोसे अपनी जिंदगी की गाड़ी को खींचते हैं. भले ही इन्हें आज तक सिर्फ कोरा आश्वासन मिला हो, परंतु यह नहीं चाहते कि पीढ़ी दर पीढ़ी चले आ रहे इस रोजगार को वह बंद कर दें. नई पीढ़ी अब इसमें काम करना नहीं चाहती है. मजबूरी है कि जब तक कर रहे हैं, तब तक व्यवसाय छोड़ नहीं सकते.