गोड्डा: जिला मुख्यालय से 45 किमी दूर महगामा-बलबड्डा मार्ग पर स्थित बेलनिगढ़ एक ऐसी जगह है, जो न जाने अपने अतीत के गर्भ में कितनी कहानियां समेटे हुए है. जिला प्रशासन हो या पुरातत्व विभाग किसी ने भी इस स्थल की रखरखाव की सुध नहीं ली. मुख्य मार्ग से महज आधा किलोमीटर अंदर एक बिखरे चट्टाननुमा पहाड़ के इर्द-गिर्द बेलनिगढ़ और अमरसिंहकिता गांव बसे हैं. ऐसा माना जाता है कि बेलनिगढ़ के नाम की जगह बिमलीगढ़ अंकित होने से इसका नाम बेलनिगढ़ में तब्दील हो गया हो.
दोनों गांव के हर खेतों की जमीन के नीचे अतीत की कई बातें दफन हैं. खुदाई के दौरान इस गांव के लोगों को कई चीजें मिली हैं, जो इस बात को पुख्ता करती हैं कि यहां का प्राचीन इतिहास काफी स्वर्णिम रहा होगा. यहां पर छोटे-छोटे कूप मिले हैं, जिसकी चौड़ाई 2 से 2.5 फीट है. हालांकि ज्यादातर कूप को ग्रामीणों ने दुर्घटना से बचने के लिए ढक दिया है.
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पहाड़ की बड़ी-बड़ी चट्टानों में उकेरी गई अद्भुत कलाकृति लोगों को बेहद आकर्षित करती है. इसके बारे में अब भी संशय बना हुआ है. कोई इन कलाकृतियों को बुद्ध से जोड़कर देखता है, तो कोई इसे विष्णु की तस्वीर मानता है. इतिहासकारों के मिले लिखित साक्ष्य के मुताबिक, सबने इसे बुद्धकालीन प्रतिकृति माना है. इतिहासकार निरंजन रॉय चौधरी ने इस स्थल का उल्लेख किया है. गौरतलब है कि उन्होंने झारखंड के संथाल परगना के इतिहास के बारे में काफी कुछ लिखा है. वहीं, संथाल गजेटियर पर काम करने वाले इतिहासकार ओमेली साहब ने भी बेलनिगढ़ का उल्लेख किया है.
गांव के बुजुर्ग की मानें, तो इन पहाड़ों में काफी कुछ छिपा हुआ है. ये कलाकृति स्पष्ट रूप से प्रमाणित करती हैं. मसलन पताल कूप, चौसा खेलने के निशान, कुछ लिखी गई लिपि. अगर इन लिपियों को पढ़ा जाए तो अतीत की कई गुत्थी सुलझ सकती हैं. यहां पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही प्रथा 5 साल पहले खत्म हो गई. मान्यता थी कि यहां गुजरने पर अगर चट्टान पर उकेरे चित्र पर पत्थर न मारा जाए तो राहगीर की तबीयत बिगड़ जाएगी. ये परंपरा सालों साल चलती रही, जिससे कलाकृति का बहुत नुकसान हुआ.
युवा इतिहासकार और संथाल पर शोध कर रहे डॉ रवि रंजन बताते हैं कि ये परंपरा अकबर के मुगल काल से शुरू हुई. इसके साथ ही इस जगह का संबंध मान सिंह से भी जोड़कर देखा जाता है. उन्हीं वंशजों के कारण इस गांव का नाम अमरसिंह है. इसके साथ ही कहते हैं कि मान सिंह के इस गांव से वैवाहिक संबंध रहे हैं. पत्थर मारने की प्रथा उसी समय शुरू हुई. सभी तथ्य चर्चाओं और कुछ लिखित साक्ष्य पर आधारित हैं. जरूरत है इन्हें संरक्षण के साथ सुरक्षा की, जिससे इस अमूल्य धरोहर से काफी कुछ अतीत की बातों पढ़ा जा सके.