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मां रंकिणी का पाषाण और जागृत रूप, जानिए मां की महिमा - jamshedpur durga puja

जमशेदपुर में जादूगोड़ा के पहाड़ और घने जंगलों के बीच माता रंकिणी का मंदिर स्थित है. मान्यता है कि लाल चुनरी में नारियल बांध कर मन्नत मांगने से मां हर मुराद पूरी करती है. यहां से गुजरने वाले हर राहगीरों को सिर झुकाना पड़ता है.

mata rankani temple in jamshedpur
माता रंकिणी का मंदिर
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Published : Oct 24, 2020, 5:47 AM IST

जमशेदपुरः शहर से 30 किलोमीटर की दूरी पर बसे जादूगोड़ा के पहाड़ और घने जंगलों के बीच माता रंकिणी का मंदिर स्थित है. यह मंदिर भक्तों की आस्था और विश्वास का केंद्र है. इसलिए यहां दूर-दराज से भक्त पूजा करने और अपनी मन्नत लेकर आते हैं. लाल चुनरी में नारियल बांध कर मन्नत मांगने से मां हर मुराद पूरी करती है. यहां से गुजरने वाले हर राहगीरों को सिर झुकाना पड़ता है.

देखें पूरी खबर

दुर्गा पूजा के पावन पर्व पर जादूगोड़ा स्थित रंकिणी मंदिर
माता रंकिणी मंदिर के बारे में बताया जाता है कि यह एक पाषाण में विराजमान है और आज भी जागृत है. माता रंकिणी मंदिर की स्थापना 1947-50 के दौरान की गई थी. वर्तमान में जिस स्थान पर मां की पूजा होती है वहां वह स्थापित की गई है. मुख्य मंदिर से नीचे गुजरने वाले नाला के बगल में स्थित कपाड़ घाटी में माता रंकिणी वास करती थी. माता एक बंधन में पाषाण के रुप में थी. कहा जाता है कि दिनबंधू सिंह नाम के व्यक्ति को माता सपने में आई और खुद को एक पाषाण के रुप में होने की बात बताई. मां ने सपने में यह भी कहा कि उन्हें पूजा चाहिए और तुम ही मेरी पूजा करोगे. उस दिन से दिनबंधू सिंह उस चट्टान में सिंदूर और एक रंगा कपड़ा से पूजा करने लगे. उसके कुछ साल बाद माता ने दिनबंधू को दिव्यस्वप्न देकर कहा कि उन्हें एक ऐसे स्थान में स्थापित करें, जहां आम जनमानस भी पहुंच सके और उनकी पूजा कर सके.

माता रूपी एक शीला की स्थापना
माता के आदेश का पालन करते हुए दिनबंधू ने माता रूपी एक शीला की स्थापना वहां की जहां आज माता रंकिणी की भव्य मंदिर स्थापित है. दिनबंधू के बाद उनके पूत्र मानसिंह और अब मानसिंह के बाद उनके पूत्र बैद्यनाथ सिंह मंदिर और बनाया गया ट्रस्ट मंदिर का संचालन कर रहे हैं. कहा जाता है कि जिस पाषाण का माता के रूप में पूजा होती उसका आकार साल दर साल बढ़ रहा है. इस पाषाण को जीवित पाषाण कहा जाता है. इसे लोग माता की महिमा और साक्षात उनके यहां होने का प्रमाण बताते है.

इसे भी पढ़ें- जमशेदपुर: दक्षिण भारतीयों का वमलाकोलुयु पूजा, 9 दिनों तक करते हैं मां की आराधना

कन्या से कैसे पाषण हो गईं माता
माता रंकिणी यहां के जंगलों में निवास करती थीं. एक दिन एक चरवाहा जंगल में अकेली घूमती लड़की को देख पूछने लगा कि तुम यहां क्या कर रही हो और किस गांव की हो. वह लड़की कोई जवाब नहीं दी. चरवाहा से बचने के लिए वह कपाड़ घाटी पहुंची, जहां एक धोबी कपड़ा धो रहा था. वह कपड़े के थान के अंदर जाकर छूप गई. थोड़ी देर बाद चरवाहा जब लड़की को नहीं ढूंढ पाया तो लौट गया. इस बीच मां थान लगाए कपड़े के जिस ढेर में छुपी थी और वह पाषाण हो चुका था. कपाड़ घाटी में आज भी इस पाषाण की पूजा होती और बकरे की बलि दी जाती है. पाषाण को नजदीक से देखने पर वाकई में ऐसा लगता है कि चट्टान एक दूसरे पर उसी तरह रखे हुए हैं, जैसे कपड़े का थान रखा जाता है.

रास्तों पर नहीं होते है सड़क हादसे
माता रंकिणी मंदिर के रास्तों की विशेषता यह है कि यहां पर पहले एक ब्रिज हुआ करता था, जिसे पारकर ही राहगीर अपने गंतव्य मार्गों तक पहुंचते थे. गाड़ियों को चला रहे ड्राइवर भी माता की भक्ति के मुरीद हैं. यहां बड़ी-बड़ी गाड़ियों की भी विशेषकर पूजा की जाती है. यहां के लोगों को सुनने में मिला है कि माता रंकिणी को प्रणाम नहीं करने पर दुर्घटना भी होती है.

जमशेदपुरः शहर से 30 किलोमीटर की दूरी पर बसे जादूगोड़ा के पहाड़ और घने जंगलों के बीच माता रंकिणी का मंदिर स्थित है. यह मंदिर भक्तों की आस्था और विश्वास का केंद्र है. इसलिए यहां दूर-दराज से भक्त पूजा करने और अपनी मन्नत लेकर आते हैं. लाल चुनरी में नारियल बांध कर मन्नत मांगने से मां हर मुराद पूरी करती है. यहां से गुजरने वाले हर राहगीरों को सिर झुकाना पड़ता है.

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दुर्गा पूजा के पावन पर्व पर जादूगोड़ा स्थित रंकिणी मंदिर
माता रंकिणी मंदिर के बारे में बताया जाता है कि यह एक पाषाण में विराजमान है और आज भी जागृत है. माता रंकिणी मंदिर की स्थापना 1947-50 के दौरान की गई थी. वर्तमान में जिस स्थान पर मां की पूजा होती है वहां वह स्थापित की गई है. मुख्य मंदिर से नीचे गुजरने वाले नाला के बगल में स्थित कपाड़ घाटी में माता रंकिणी वास करती थी. माता एक बंधन में पाषाण के रुप में थी. कहा जाता है कि दिनबंधू सिंह नाम के व्यक्ति को माता सपने में आई और खुद को एक पाषाण के रुप में होने की बात बताई. मां ने सपने में यह भी कहा कि उन्हें पूजा चाहिए और तुम ही मेरी पूजा करोगे. उस दिन से दिनबंधू सिंह उस चट्टान में सिंदूर और एक रंगा कपड़ा से पूजा करने लगे. उसके कुछ साल बाद माता ने दिनबंधू को दिव्यस्वप्न देकर कहा कि उन्हें एक ऐसे स्थान में स्थापित करें, जहां आम जनमानस भी पहुंच सके और उनकी पूजा कर सके.

माता रूपी एक शीला की स्थापना
माता के आदेश का पालन करते हुए दिनबंधू ने माता रूपी एक शीला की स्थापना वहां की जहां आज माता रंकिणी की भव्य मंदिर स्थापित है. दिनबंधू के बाद उनके पूत्र मानसिंह और अब मानसिंह के बाद उनके पूत्र बैद्यनाथ सिंह मंदिर और बनाया गया ट्रस्ट मंदिर का संचालन कर रहे हैं. कहा जाता है कि जिस पाषाण का माता के रूप में पूजा होती उसका आकार साल दर साल बढ़ रहा है. इस पाषाण को जीवित पाषाण कहा जाता है. इसे लोग माता की महिमा और साक्षात उनके यहां होने का प्रमाण बताते है.

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कन्या से कैसे पाषण हो गईं माता
माता रंकिणी यहां के जंगलों में निवास करती थीं. एक दिन एक चरवाहा जंगल में अकेली घूमती लड़की को देख पूछने लगा कि तुम यहां क्या कर रही हो और किस गांव की हो. वह लड़की कोई जवाब नहीं दी. चरवाहा से बचने के लिए वह कपाड़ घाटी पहुंची, जहां एक धोबी कपड़ा धो रहा था. वह कपड़े के थान के अंदर जाकर छूप गई. थोड़ी देर बाद चरवाहा जब लड़की को नहीं ढूंढ पाया तो लौट गया. इस बीच मां थान लगाए कपड़े के जिस ढेर में छुपी थी और वह पाषाण हो चुका था. कपाड़ घाटी में आज भी इस पाषाण की पूजा होती और बकरे की बलि दी जाती है. पाषाण को नजदीक से देखने पर वाकई में ऐसा लगता है कि चट्टान एक दूसरे पर उसी तरह रखे हुए हैं, जैसे कपड़े का थान रखा जाता है.

रास्तों पर नहीं होते है सड़क हादसे
माता रंकिणी मंदिर के रास्तों की विशेषता यह है कि यहां पर पहले एक ब्रिज हुआ करता था, जिसे पारकर ही राहगीर अपने गंतव्य मार्गों तक पहुंचते थे. गाड़ियों को चला रहे ड्राइवर भी माता की भक्ति के मुरीद हैं. यहां बड़ी-बड़ी गाड़ियों की भी विशेषकर पूजा की जाती है. यहां के लोगों को सुनने में मिला है कि माता रंकिणी को प्रणाम नहीं करने पर दुर्घटना भी होती है.

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