दुमका: जिले में आदिवासी संथाल समाज के सोहराय पर्व की धूम है. पर्व फसल कटने के बाद पूस महीने में जनवरी के दूसरे सप्ताह में मनाया जाता है. यह मनुष्यों के प्रकृति और घरेलू पशुओं के बीच आपसी प्रेम और श्रद्धा को दर्शाता है. इस अवसर पर लोग अपने सगे संबंधियों को घर में आमंत्रित करते हैं. खासतौर पर विवाहित बेटियों और बहनों को पूरे मान सम्मान के साथ बुलाया जाता है. यह त्योहार भाई-बहन के प्रगाढ़ प्रेम को दर्शाता है.
पांच दिनों तक चलता है सोहराय
पांच दिनों तक चलने वाले सोहराय पर्व में देवी-देवताओं के साथ-साथ घर के पालतू पशुओं जैसे गाय, बैल, भैंस, काड़ा की भी पूजा होती है. इस पर्व में अमीर-गरीब का कोई भेदभाव नहीं रहता. आपसी प्रेम सदभाव से ढोल, मांदर की थाप पर सभी नाचते-झूमते हैं.
सोहराय में नजर आती है संथाल समाज की संस्कृति और रीति रिवाज
आदिवासी संथाल समाज का यह सोहराय पर्व पांच दिनों तक मनाया जाता है. इस पर्व में हर उम्र के स्त्री, पुरूष, बच्चे, युवा सभी पूरे हर्षोल्लास के साथ खाते-पीते हैं और ढोल-मांदर की थाप पर नाचते गाते हैं. पांच दिनों के इस पर्व में हर दिन की अलग-अलग विशेषताएं हैं. पहले दिन को ऊम हिलोक कहा जाता है. इसका मतलब है स्नान का दिन. इस दिन लोग अपने-अपने घरों के साथ पूरे गांव की सफाई करते हैं. सफाई के बाद नहा-धोकर गांव के मैदान में पहुंचते हैं. पूरे गांव के लोग वहां एकत्रित होते हैं. गांव के आमलोगों के साथ-साथ गांव के मांझी, परगनैत, नाईकी (पुजारी) भी मौजूद रहते हैं. मैदान में लोग अपने देवता मरांग बुरु को मुर्गा की बलि देते हैं. मैदान में ही मुर्गा, चावल और खिचड़ी बनाकर खाते हैं. खाने पीने के बाद सभी ढोल-मांदर की थाप पर नाचते-गाते हुए अपने घरों की ओर जाते हैं.
घर में मौजूद मवेशियों की भी होती है पूजा
सोहराय पर्व के दूसरे दिन को दकाय हिलोक कहा जाता है. इस दिन घर में तरह-तरह के व्यंजन बनते हैं. पूरा दिन खाना-पीना होता है, साथ ही परिवार के सभी सदस्य सगे संबंधियों, आस पड़ोस और गांव वालों के साथ मांदर की थाप पर जमकर नाचते गाते हैं और खुशियां मनाते हैं. तीसरे दिन को खूंटाव कहा जाता है. यह दिन मवेशियों की पूजा और सम्मान का होता है. आदिवासी समुदाय के लोगों का मानना है कि हमारी जो खेती हो रही है, उसमें हमारे घर के मवेशी का काफी सहयोग रहता है, इस दिन गाय-बैल को सजाया जाता है, कहीं-कहीं मवेशियों के सींगों पर धान की बाली बांधी जाती है, जिस आंगन या घर के बाहर ये मवेशी बंधे रहते हैं, उस घर के लोग मवेशियों के सामने नाचते गाते हैं.
जाले माहा में बनता है विशेष व्यंजन
चौथे दिन को जाले माहा कहा जाता है. यह पूरा दिन नाचने-गाने और खाने-पीने में व्यतीत होता है. सोहराय के अंतिम दिन को सकरात कहते हैं. इस दिन सेंदरा यानी शिकार करने की परंपरा है. घर के पुरुष सदस्य तीर-धनुष लेकर अगल-बगल के जंगलों में चले जाते हैं और छोटी पक्षी हो या कोई छोटा-मोटा शिकार लेकर गांव के मैदान में जमा होते हैं. गांव में इस दिन तीरंदाजी प्रतियोगिता भी होती है और उसमें जो विजयी होता है, उसे गांव का तीरंदाज घोषित किया जाता है, उस युवक को गांव वाले कंधे पर उठाकर गांव में घूमाते हैं. इस बीच ढोल मांदर बजते रहता है.
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विधायक बसंत सोरेन ने दी शुभकामनाएं
विधायक बसंत सोरेन ने कहा कि यह हमारा सबसे बड़ा पर्व है, हमलोग काफी हर्षोल्लास से मनाते हैं, इस पर्व में काफी उत्साह का वातावरण रहता है. उन्होंने सोहराय की सभी को शुभकामनाएं भी दीं.