देवघर: सावन में बाबा नगरी में भक्तों की अपार भीड़ उमड़ती है. भक्त बाबा बैद्यनाथ के दर्शन के लिए मीलों दूर से बाबा धाम पहुंचते हैं. बाबा धाम को लेकर भक्तों में एक अलग ही आस्था है. बाबा मंदिर में पूजा-पाठ को लेकर कई मान्यताएं हैं. बाबा मंदिर के आस पास और भी बहुते सारे मंदिर भी स्थित हैं. इनसे जुड़ी भी कई मान्यताएं प्रचलित हैं. ऐसी ही एक मान्यता मुख्य मंदिर और माता पार्वती मंदिर के बीच स्थित नीलचक्र की स्थापना को लेकर भी है. ऐसा माना जाता है कि जब तक इस नीलचक्र की पूजा नहीं की जाती है, तब तक पूजा अधूरी मानी जाती है.
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इस बारे में बाबा मंदिर के तीर्थ पुरोहित प्रमोद श्रृंगारी बताते हैं कि सतयुग में महर्षि वशिष्ठ मां कामाख्या की तपस्या कर रहे थे. लेकिन कठिन तप के बाद भी माता ने उन्हें दर्शन नहीं दिया. इससे क्रोधित हो कर वशिष्ठ मुनि ने माता को श्राप दे दिया. लेकिन बाद में अपनी भूल का ज्ञान होने पर उन्होंने उस श्राप से मुक्ति का उपाय बताया. महर्षि ने उन्हें त्रिपुर पर्वत जिसे नील पर्वत भी कहा जाता है, उसे छोड़ कर बैद्यनाथ धाम जाने के लिए कहा.
पुरोहित ने आगे बताया कि त्रेता युग में लंकापति रावण द्वारा जब कैलाश पर्वत से पवित्र शिवलिंग को लंका ले जाया जा रहा था, तब माता कामाख्या को रावण को रोक कर माता सती के हृदय से आत्ममिलन कराने का कार्य सौंपा गया था. वशिष्ठ पुराण में इसका विशद वर्णन किया गया है. जिसके अनुसार, माता कामाख्या तब नील पर्वत की एक शिला पर सवार होकर बैद्यनाथ धाम आईं और तंत्र विद्या से परिष्कृत इस शिलाखंड की स्थापना की.
नीलचक्र के कारण ही रावण को रुकना पड़ा था: धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, इस नीलचक्र को लांघ कर आगे जाने की शक्ति किसी में नहीं थी. यही कारण है कि रावण जब इस ओर से पवित्र शिवलिंग को लेकर आकाश मार्ग से जा रहा था तो उसे इसी नीलचक्र के प्रभाव से यहां उतरने के लिए विवश होना पड़ा था. आज भी इसके लांघने से आपको सफल फल नहीं मिलेगा. मंदिर परिसर स्थित इस नीलचक्र की पूरी आस्था और श्रद्धा से पूजा-अर्चना की जाती है. ऐसा कहा जाता है बाबा वैद्यनाथ की पूजा अर्चना करने के बाद नीलचक्र की पूजा की जाती है. जब तक इस नीलचक्र शीलाखंड की पूजा नहीं की जाती तब तक श्रद्धालुओं की पूजा अधूरी मानी जाती है.