चतरा: देश में लॉकडाउन लगने से लोग आर्थिक तंगी से जूझ रहे हैं. समाज के सभी वर्गों पर इसका खासा असर पड़ा है, लोगों के रोजगार खत्म हो रहे हैं. वहीं चतरा के जनजातीय और आदिवासी समाज के लोग पलाश के पत्तों से दोना-पत्तल और कटोरी बनाकर अपनी आजीविका कमा रहे हैं.
पत्तल और कटोरी बनाने का कारोबार
भारत में पत्तल बनाने और इस पर भोजन करने की परंपरा सदियों से चली आ रही है. पत्तों में भोजन करने के लिए पत्तल और कटोरी बनाने का प्रचलन पूरे भारत में है. इसके उपयोग में सबसे सुविधाजनक बात तो यह है कि उपयोग के बाद इन्हें फेंका जा सकता है और यह स्वतः नष्ट भी हो जाता है. इनसे पर्यावरण भी प्रदूषित नहीं होता है. झारखंड में भी दोना-पत्तल का काफी प्रचलन है. धार्मिक रीति-रिवाज के साथ-साथ रोजमर्रा के जिंदगी में भी दोना-पत्तलों का उपयोग यहां खूब होता है. आदिवासी और जनजाति समाज के लोग इस कारोबार से जुड़े हैं.
पलाश के पत्तों से तैयार करते हैं कटोरी और थाली
चतरा के सिमरिया प्रखंड के कई इलाकों में जहां आदिवासी और जनजाति समाज के लोग पलाश के पत्तों से कटोरी और थाली तैयार करते हैं. जिसका उपयोग वे सिर्फ अपने घरेलू कामों में ही नहीं करते, बल्कि आस-पड़ोस के जिलों में शादी-विवाह के मौके पर आर्डर के अनुसार भी महैया कराते हैं. इसके साथ-साथ नजदीकी बाजारों में दोना-पत्तल बेचते हैं, जिससे उनकी आमदनी भी होती है.
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दोना-पत्तल की बाजारों में काफी मांग
दोना-पत्तल के कारोबार से जुड़े लोग बताते हैं कि दोना पत्तल की बाजारों में काफी मांग है, लेकिन मेहनत के मुताबिक इन्हें उचित मूल्य नहीं मिल रहा है. बावजूद ये दिन रात मेहनत करके दोना पत्तल और कटोरी बनाने में जुटे हुए हैं. ताकि इनके रोजगार का पहिया निरंतर चलता रहे. उनका मानना है कि सरकार उनकी मदद करे तो उनका रोजगार और आगे बढ़ सकता है. कोरोना काल के दौरान आदिवासी और जनजाति समाज के लोगों ने पलाश के पत्तों से दोना-पत्तल, कटोरी, थाली बनाकर अपना गुजारा किया.
कुटीर उद्योग से जोड़ेंगे
इसको लेकर प्रखंड विकास पदाधिकारी अमित कुमार मिश्रा ने बताया कि इन्हें आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने के लिए इस व्यवसाय को कुटीर उद्योग से जोड़ेंगे. साथ ही इनके व्यवसाय को विकसित करने को हर संभव सहयोग करने की बात कही. भारत में सदियों से विभिन्न वनस्पतियों के पत्तों से बने पत्तल संस्कृति का अनिवार्य हिस्सा रहे हैं.