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जानिए वह 10 वजह जिसके कारण झारखंड में हारी BJP - विधानसभा चुनाव रिजल्ट्स 2019

झारखंड विधानसभा चुनाव में महागठबंधन ने शानदार जीत दर्ज की है. इनके नेता हेमंत सोरेन ने 29 दिसंबर को दोपहर 1 बजे मोरहाबादी मैदान में शपथ लेंगे, लेकिन इन सब के बीच ये भी चर्चा आम है कि आखिर झारखंड में बीजेपी की करारी हार कैसे हुई.

why bjp lost mandate in jharkhand assembly election
फाइल फोटो
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Published : Dec 25, 2019, 7:03 PM IST

Updated : Dec 25, 2019, 10:01 PM IST

रांची: पीएम और अमित शाह ने सूबे में कुल 19 सभाएं की इसके अलावा जेपी नड्डा और योगी आदित्यनाथ ने भी कई सभाएं की, बावजूद इसके वह बीजेपी की हार को टाल नहीं सके. यूं तो कई मुद्दे हैं जिसके कारण ये हार हुई, लेकिन कई ऐसे लोकल फैक्टर हैं जो केंद्रीय नेतृत्व समझ नहीं पाई.

ये भी पढ़ें: रणनीति बदलेगी भाजपा, स्थानीय नेताओं को मिलेगी तरजीह

1. सरयू राय की बगावत से गया गलत संदेश
सरयू राय बेहद साफ छवी वाले नेता हैं. ये वहीं इंसान हैं जिन्होंने चारा घोटाले का खुलासा किया. ऐसा माना जाता है कि एक समय सरयू के नाम से ही भ्रष्ट अधिकारी खौफ खाते थे. ऐसे में उन्हें टिकट ना देने से लोगों के बीच एक गलत संदेश गया. लोगों को लगा कि पार्टी एक साफ छवि वाले नेता के साथ नाइंसाफी कर रही है. यही वजह रही कि सीएम रघुवर दास जिस सीट से 1995 से लगातार जीतते आ रहे थे. छठी बार वहां से सरयू ने उन्हें धूल चटा दी.

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सरयू राय

2. CNT-SPT एक्ट
CNT-SPT एक्ट 1908 से ही चला आ रहा कानून है जिसके जरिए आदिवासियों को जल-जंगल-जमीन पर हक देने की बात कही गई है. इस कानून के तहत गैर आदिवासी या बाहरी झारखंड में जमीन नहीं खरीद सकते हैं. यही नहीं एक थाना क्षेत्र के बाहर के लोग जमीन की खरीद-फरोख्त नहीं कर सकते. लेकिन रघुवर ने इस कानून में संशोधन किया और कैबिनेट की मंजूरी के बाद राज्यपाल को भेजा. इससे सूबे में माहौल बेहद खराब हो गया है और संदेश गया कि एक गैर आदिवासी सीएम आदिवासियों के खिलाफ काम कर रहा है. हालांकि, माहौल बिगड़ने की आशंका के बीच राज्यपाल ने संशोधित कानून पर अपनी मुहर नहीं लगाई लेकिन बावूजद इसके सरकार की छवि 28 सूबे के फीसदी आदिवासियों की बीच खराब गई.

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सीएनटी-एसपीटी का विरोध करते लोग

ये भी पढ़ें: जमशेदपुर पहुंचे रघुवर दास, कहा- 5 साल तक विपक्ष में निभाएंगे रचनात्मक भूमिका

3. आदिवासी बनाम गैर-आदिवासी बना मुद्दा
सरकार के कदम से आदिवासी पहले ही नाराज थे. इसके साथ ही चुनाव के दौरान आदिवासी बनाम गैर-आदिवासी का मुद्दा हावी रहा. रघुवर दास गैर आदिवासी चेहरा रहे जबकि दूसरी तरफ हेमंत सोरेन आदिवासी हैं. चुनाव में जेएमएम और महागठबंधन ने इसे खूब भुनाया. यही वजह रही कि राज्य की 28 आदिवासी सीटों में बीजेपी महज 2 सीटें ही जीत पाई. यही नहीं कोल्हान क्षेत्र में तो पार्टी खाता भी नहीं खोल पाई. मुख्यमंत्री रघुवर दास समेत बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मण गिलुवा हारे और विधानसभा अध्यक्ष दिनेश उरांव तक अपनी सीट बचाने में कामयाब नहीं हो पाए.

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हेमंत सोरेन और रघुवर दास (डिजाइन इमेज)

5. पारा शिक्षकों की नाराजगी
सूबे में लगभग 67 हजार पारा शिक्षक सरकार से नाराज चल रहे थे. झारखंड के विभिन्न सरकारी स्कूलों में अपनी सेवा दे रहे करीब 67 हजार पारा टीचर्स ने सरकार के खिलाफ लंबा आंदोलन भी चलाया. इस आंदोलन के दौरान कई शिक्षकों को गिरफ्तार किया गया. इसके अलावा आंदोलन के दौरान कई पारा टीचर्स की भी हुई. लेकिन इसके बाद भी रघुबर दास सरकार ने हालात पर कोई ध्यान नहीं दिया. पारा टीचर्स नौकरी को स्थायी करना और वेतन में इजाफा की मांग कर रहे थे.

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पारा शिक्षकों का प्रदर्शन

5. बीजेपी काडर का गुस्सा
पार्टी ने 12 मौजूदा विधायकों के टिकट काटे. कयास लगाए जा रहे हैं कि इन लोगों ने चुनाव में पार्टी के लिए काम नहीं किया. इस बात की भी शिकायत थी कि पंचायत स्तर पर पैसा नहीं पहुंचा जिससे बीजेपी काडर नाराज था.

6. गठबंधन टूटने का असर
कई राजनीतिक पंडितों का मानना है कि आजसू के अलावा अन्य गठबंधन दलों का टूटना भी चुनाव हारने की बड़ी वजह बनी. बिहार में गठबंधन में रही जेडीयू ने भी इस बार चुनाव लड़ा और कहीं न कहीं उन्होंने बीजेपी के ही वोट काटे. वोट बंटने की वजह से पार्टी को बड़े स्तर पर नुकसान हो गया.

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सुदेश महतो

7. स्थानीय मुद्दों की जगह केंद्रीय मुद्दों को तरजीह
बीजेपी की केंद्रीय नेतृत्व ने झारखंड चुनावों में जमकर पसीना बहाया, लेकिन उन्होंने स्थानीय मुद्दों को तरजीह नहीं देते हुए NRC, CAA और राम मंदिर जैसे मुद्दों को उठाया जिसे जनता ने पूरी तरह से नकार दिया.

8. स्थानीय नेताओं पर भरोसा नहीं
इस चुनाव में बीजेपी को अपनों ने ज्यादा चोट दी है. एक तरफ जहां सरयू राय ने बगावत की वहीं, बड़ कुवार गागराई, अमित यादव, दुष्यंत पटेल, महेश सिंह, सहित 20 नेताओं को 6 साल के प्रतिबंधित कर दिया था.

ये भी पढ़ें: 29 दिसंबर को हेमंत सोरेन सीएम पद की लेंगे शपथ, राज्यपाल के सामने पेश किया दावा

9. दलबदलुओं पर अधिक भरोसा
भाजपा ने अपने 13 विधायकों का टिकट काटा और 36 दूसरे दल के नेताओं पर भरोसा जताया, लेकिन यह पूरी तरह से फेल साबित हुआ. इस चुनाव में 15 ऐसे नेता हार गए जो दूसरी पार्टियों से आयातित थे.

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सुखदेव भगत

10. अति आत्मविश्वास
तमाम खामियों के बाद भी बीजेपी नेतृत्व उन्हें देख नहीं पाई. रघुवर दास से सूबे की जनता बेहद नाराज थी बावजूद इसके आति आत्मविश्वास के कारण घर-घर रघुवर नारा दिया जिसे जनता ने सिरे से नकार दिया. अतिविश्वास के कारण ही बीजेपी अपनी कमियों को नहीं पहचान पाई और उन्हें हार का सामना करना पड़ा.

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घर-घर रघुवर पोस्टर

रांची: पीएम और अमित शाह ने सूबे में कुल 19 सभाएं की इसके अलावा जेपी नड्डा और योगी आदित्यनाथ ने भी कई सभाएं की, बावजूद इसके वह बीजेपी की हार को टाल नहीं सके. यूं तो कई मुद्दे हैं जिसके कारण ये हार हुई, लेकिन कई ऐसे लोकल फैक्टर हैं जो केंद्रीय नेतृत्व समझ नहीं पाई.

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1. सरयू राय की बगावत से गया गलत संदेश
सरयू राय बेहद साफ छवी वाले नेता हैं. ये वहीं इंसान हैं जिन्होंने चारा घोटाले का खुलासा किया. ऐसा माना जाता है कि एक समय सरयू के नाम से ही भ्रष्ट अधिकारी खौफ खाते थे. ऐसे में उन्हें टिकट ना देने से लोगों के बीच एक गलत संदेश गया. लोगों को लगा कि पार्टी एक साफ छवि वाले नेता के साथ नाइंसाफी कर रही है. यही वजह रही कि सीएम रघुवर दास जिस सीट से 1995 से लगातार जीतते आ रहे थे. छठी बार वहां से सरयू ने उन्हें धूल चटा दी.

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सरयू राय

2. CNT-SPT एक्ट
CNT-SPT एक्ट 1908 से ही चला आ रहा कानून है जिसके जरिए आदिवासियों को जल-जंगल-जमीन पर हक देने की बात कही गई है. इस कानून के तहत गैर आदिवासी या बाहरी झारखंड में जमीन नहीं खरीद सकते हैं. यही नहीं एक थाना क्षेत्र के बाहर के लोग जमीन की खरीद-फरोख्त नहीं कर सकते. लेकिन रघुवर ने इस कानून में संशोधन किया और कैबिनेट की मंजूरी के बाद राज्यपाल को भेजा. इससे सूबे में माहौल बेहद खराब हो गया है और संदेश गया कि एक गैर आदिवासी सीएम आदिवासियों के खिलाफ काम कर रहा है. हालांकि, माहौल बिगड़ने की आशंका के बीच राज्यपाल ने संशोधित कानून पर अपनी मुहर नहीं लगाई लेकिन बावूजद इसके सरकार की छवि 28 सूबे के फीसदी आदिवासियों की बीच खराब गई.

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सीएनटी-एसपीटी का विरोध करते लोग

ये भी पढ़ें: जमशेदपुर पहुंचे रघुवर दास, कहा- 5 साल तक विपक्ष में निभाएंगे रचनात्मक भूमिका

3. आदिवासी बनाम गैर-आदिवासी बना मुद्दा
सरकार के कदम से आदिवासी पहले ही नाराज थे. इसके साथ ही चुनाव के दौरान आदिवासी बनाम गैर-आदिवासी का मुद्दा हावी रहा. रघुवर दास गैर आदिवासी चेहरा रहे जबकि दूसरी तरफ हेमंत सोरेन आदिवासी हैं. चुनाव में जेएमएम और महागठबंधन ने इसे खूब भुनाया. यही वजह रही कि राज्य की 28 आदिवासी सीटों में बीजेपी महज 2 सीटें ही जीत पाई. यही नहीं कोल्हान क्षेत्र में तो पार्टी खाता भी नहीं खोल पाई. मुख्यमंत्री रघुवर दास समेत बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मण गिलुवा हारे और विधानसभा अध्यक्ष दिनेश उरांव तक अपनी सीट बचाने में कामयाब नहीं हो पाए.

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हेमंत सोरेन और रघुवर दास (डिजाइन इमेज)

5. पारा शिक्षकों की नाराजगी
सूबे में लगभग 67 हजार पारा शिक्षक सरकार से नाराज चल रहे थे. झारखंड के विभिन्न सरकारी स्कूलों में अपनी सेवा दे रहे करीब 67 हजार पारा टीचर्स ने सरकार के खिलाफ लंबा आंदोलन भी चलाया. इस आंदोलन के दौरान कई शिक्षकों को गिरफ्तार किया गया. इसके अलावा आंदोलन के दौरान कई पारा टीचर्स की भी हुई. लेकिन इसके बाद भी रघुबर दास सरकार ने हालात पर कोई ध्यान नहीं दिया. पारा टीचर्स नौकरी को स्थायी करना और वेतन में इजाफा की मांग कर रहे थे.

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पारा शिक्षकों का प्रदर्शन

5. बीजेपी काडर का गुस्सा
पार्टी ने 12 मौजूदा विधायकों के टिकट काटे. कयास लगाए जा रहे हैं कि इन लोगों ने चुनाव में पार्टी के लिए काम नहीं किया. इस बात की भी शिकायत थी कि पंचायत स्तर पर पैसा नहीं पहुंचा जिससे बीजेपी काडर नाराज था.

6. गठबंधन टूटने का असर
कई राजनीतिक पंडितों का मानना है कि आजसू के अलावा अन्य गठबंधन दलों का टूटना भी चुनाव हारने की बड़ी वजह बनी. बिहार में गठबंधन में रही जेडीयू ने भी इस बार चुनाव लड़ा और कहीं न कहीं उन्होंने बीजेपी के ही वोट काटे. वोट बंटने की वजह से पार्टी को बड़े स्तर पर नुकसान हो गया.

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सुदेश महतो

7. स्थानीय मुद्दों की जगह केंद्रीय मुद्दों को तरजीह
बीजेपी की केंद्रीय नेतृत्व ने झारखंड चुनावों में जमकर पसीना बहाया, लेकिन उन्होंने स्थानीय मुद्दों को तरजीह नहीं देते हुए NRC, CAA और राम मंदिर जैसे मुद्दों को उठाया जिसे जनता ने पूरी तरह से नकार दिया.

8. स्थानीय नेताओं पर भरोसा नहीं
इस चुनाव में बीजेपी को अपनों ने ज्यादा चोट दी है. एक तरफ जहां सरयू राय ने बगावत की वहीं, बड़ कुवार गागराई, अमित यादव, दुष्यंत पटेल, महेश सिंह, सहित 20 नेताओं को 6 साल के प्रतिबंधित कर दिया था.

ये भी पढ़ें: 29 दिसंबर को हेमंत सोरेन सीएम पद की लेंगे शपथ, राज्यपाल के सामने पेश किया दावा

9. दलबदलुओं पर अधिक भरोसा
भाजपा ने अपने 13 विधायकों का टिकट काटा और 36 दूसरे दल के नेताओं पर भरोसा जताया, लेकिन यह पूरी तरह से फेल साबित हुआ. इस चुनाव में 15 ऐसे नेता हार गए जो दूसरी पार्टियों से आयातित थे.

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सुखदेव भगत

10. अति आत्मविश्वास
तमाम खामियों के बाद भी बीजेपी नेतृत्व उन्हें देख नहीं पाई. रघुवर दास से सूबे की जनता बेहद नाराज थी बावजूद इसके आति आत्मविश्वास के कारण घर-घर रघुवर नारा दिया जिसे जनता ने सिरे से नकार दिया. अतिविश्वास के कारण ही बीजेपी अपनी कमियों को नहीं पहचान पाई और उन्हें हार का सामना करना पड़ा.

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घर-घर रघुवर पोस्टर
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झारखंड विधान सभा चुनाव में महागठबंधन ने शानदार जीत दर्ज की है. इनके नेता हेमंत सोरेन ने 29 दिसंबर को दोपहर 1 बजे मोरहाबादी मैदान में शपथ लेंगे, लेकिन इन सब के बीच ये भी चर्चा आम है कि आखिर झारखंड में बीजेपी की करारी हार कैसे हुई. 



पीएम और अमित शाह ने सूबे में कुल 19 सभाएं की इसके अलावा जेपी नड्डा और योगी आदित्यनाथ ने भी कई सभाएं की, बावजूद इसके वह बीजेपी की हार को टाल नहीं सके. यूं तो कई मुद्दे हैं जिसके कारण ये हार हुई, लेकिन कई ऐसे लोकल फैक्टर हैं जो केंद्रीय नेतृत्व समझ नहीं पाई.



1. सरयू राय की बगावत से गया गलत संदेश

सरयू राय बेहद साफ छवी वाले नेता हैं. ये वहीं इंसान हैं जिन्होंने चारा घोटाले का खुलासा किया. ऐसा माना जाता है कि एक समय सरयू के नाम से ही भ्रष्ट अधिकारी खौफ खाते थे. ऐसे में उन्हें टिकट ना देने से लोगों के बीच एक गलत संदेश गया. लोगों को लगा कि पार्टी एक साफ छवि वाले नेता के साथ नाइंसाफी कर रही है. यही वजह रही कि सीएम रघुवर दास जिस सीट से 1995 से लगातार जीतते आ रहे थे. छठी बार वहां से सरयू ने उन्हें धूल चटा दी.



2. CNT-SPT एक्ट  

CNT-SPT एक्ट 1908 से ही चला आ रहा कानून है जिसके जरिए आदिवासियों को जल-जंगल-जमीन पर हक देने की बात कही गई है. इस कानून के तहत गैर आदिवासी या बाहरी झारखंड में जमीन नहीं खरीद सकते हैं. यही नहीं एक थाना क्षेत्र के बाहर के लोग जमीन की खरीद-फरोख्त नहीं कर सकते. लेकिन रघुवर ने इस कानून में संशोधन किया और कैबिनेट की मंजूरी के बाद राज्यपाल को भेजा. इससे सूबे में माहौल बेहद खराब हो गया है और संदेश गया कि एक गैर आदिवासी सीएम आदिवासियों के खिलाफ काम कर रहा है. हालांकि, माहौल बिगड़ने की आशंका के बीच राज्यपाल ने संशोधित कानून पर अपनी मुहर नहीं लगाई लेकिन बावूजद इसके सरकार की छवि 28 सूबे के फीसदी आदिवासियों की बीच खराब गई. 



3. आदिवासी बनाम गैर-आदिवासी बना मुद्दा

सरकार के कदम से आदिवासी पहले ही नाराज थे. इसके साथ ही चुनाव के दौरान आदिवासी बनाम गैर-आदिवासी का मुद्दा हावी रहा. रघुवर दास गैर आदिवासी चेहरा रहे जबकि दूसरी तरफ हेमंत सोरेन आदिवासी हैं. चुनाव में जेएमएम और महागठबंधन ने इसे खूब भुनाया. यही वजह रही कि राज्य की 28 आदिवासी सीटों में बीजेपी महज 2 सीटें ही जीत पाई. यही नहीं कोल्हान क्षेत्र में तो पार्टी खाता भी नहीं खोल पाई. मुख्यमंत्री रघुवर दास समेत बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मण गिलुवा हारे और विधानसभा अध्यक्ष दिनेश उरांव तक अपनी सीट बचाने में कामयाब नहीं हो पाए.



5. पारा शिक्षकों की नाराजगी

सूबे में लगभग 67 हजार पारा शिक्षक सरकार से नाराज चल रहे थे. झारखंड के विभिन्न सरकारी स्कूलों में अपनी सेवा दे रहे करीब 67 हजार पारा टीचर्स ने सरकार के खिलाफ लंबा आंदोलन भी चलाया. इस आंदोलन के दौरान कई शिक्षकों को गिरफ्तार किया गया. इसके अलावा आंदोलन के दौरान कई पारा टीचर्स की भी हुई. लेकिन इसके बाद भी रघुबर दास सरकार ने हालात पर कोई ध्यान नहीं दिया. पारा टीचर्स नौकरी को स्थायी करना और वेतन में इजाफा की मांग कर रहे थे. 



5. बीजेपी काडर का गुस्सा

पार्टी ने 12 मौजूदा विधायकों के टिकट काटे. कयास लगाए जा रहे हैं कि इन लोगों ने चुनाव में पार्टी के लिए काम नहीं किया. इस बात की भी शिकायत थी कि पंचायत स्तर पर पैसा नहीं पहुंचा जिससे बीजेपी काडर नाराज था. 



6. गठबंधन टूटने का असर

कई राजनीतिक पंडितों का मानना है कि आजसू के अलावा अन्य गठबंधन दलों का टूटना भी चुनाव हारने की बड़ी वजह बनी. बिहार में गठबंधन में रही जेडीयू ने भी इस बार चुनाव लड़ा और कहीं न कहीं उन्होंने बीजेपी के ही वोट काटे. वोट बंटने की वजह से पार्टी को बड़े स्तर पर नुकसान हो गया. 



7. स्थानीय मुद्दों की जगह केंद्रीय मुद्दों को तरजीह

बीजेपी की केंद्रीय नेतृत्व ने झारखंड चुनावों में जमकर पसीना बहाया, लेकिन उन्होंने स्थानीय मुद्दों को तरजीह नहीं देते हुए NRC, CAA और राम मंदिर जैसे मुद्दों को उठाया जिसे जनता ने पूरी तरह से नकार दिया.  



8. स्थानीय नेताओं पर भरोसा नहीं

इस चुनाव में बीजेपी को अपनों ने ज्यादा चोट दी है. एक तरफ जहां सरयू राय ने बगावत की वहीं, बड़ कुवार गागराई, अमित यादव, दुष्यंत पटेल, महेश सिंह, सहित 20 नेताओं को 6 साल के प्रतिबंधित कर दिया था.



9. दलबदलुओं पर अधिक भरोसा

भाजपा ने अपने 13 विधायकों का टिकट काटा और 36 दूसरे दल के नेताओं पर भरोसा जताया, लेकिन यह पूरी तरह से फेल साबित हुआ. इस चुनाव में 15 ऐसे नेता हार गए जो दूसरी पार्टियों से आयातित थे.  





10. अति आत्मविश्वास

तमाम खामियों के बाद भी बीजेपी नेतृत्व उन्हें देख नहीं पाई. रघुवर दास से सूबे की जनता बेहद नाराज थी बावजूद इसके आति आत्मविश्वास के कारण घर-घर रघुवर नारा दिया जिसे जनता ने सिरे से नकार दिया. अतिविश्वास के कारण ही बीजेपी अपनी कमियों को नहीं पहचान पाई और उन्हें हार का सामना करना पड़ा.


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Last Updated : Dec 25, 2019, 10:01 PM IST
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