रांचीः कभी केरल और ओड़िशा की तरह रांची में काजू की खेती होती थी. झारखंड में रहने वाले लोगों को भी विश्वास नहीं होगा कि कभी यहां से काजू की सप्लाई होती थी. रांची में आज भी काजू बागान नाम से एक इलाका है. लेकिन काजू बागान बस नाम का रह गया है. रातू रोड स्थित हेहल काजू बागान की बात करें या ओरमांझी के बीआईटी मेसरा काजू बागान की जो आज भी बस नाम के लिए रह गया है.
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वैसे तो काजू की व्यावसायिक और बड़े पैमाने पर खेती केरल, महाराष्ट्र, गोवा, कर्नाटक, तामिलनाडु, आंध्र प्रदेश, ओड़िशा और प. बंगाल में की जाती है. लेकिन झारखंड के कुछ जिलों में लंबे समय से काजू की खेती होती रही है. ऐसा देखा गया है कि राज्य के पूर्वी सिंहभूम, प. सिंहभूम, सरायकेला-खरसावां, जामताड़ा और अन्य कुछ जिलों में काजू की देसी प्रजातियों के पौधे आज भी पाए जाते हैं.
इन पौधों से बहुत गुणवत्ता के काजू नट तो नहीं पैदा होते हैं, पर इससे एक संकेत जरुर मिलता है कि अगर इन क्षेत्रों में काजू की उन्नत किस्मों के बागीचे लगाए जाएं और उनका सही तरीके से देख-रेख की जाए तो झारखंड से भी काजू का निर्यात संभव है.
रांची में कभी होती थी काजू की खेती
संयुक्त बिहार के समय से ही झारखंड में काजू की खेती होती रही है. रांची के रातू रोड इलाका हो या नामकुम या ओरमांझी सभी जगह बड़े पैमाने पर काजू की खेती होती थी. उन्नत किस्म की काजू होने के कारण आज भी लोग इस काजू बागान के काजू का स्वाद नहीं भूल पाए हैं. स्थानीय लोगों का मानना है कि यहां के काजू को दूसरे राज्यों में भेजा जाता था और इस बागान से अच्छी खासी आमदनी होती थी.
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समय से साथ खत्म होता गया काजू का बागान
समय के साथ हुए बदलाव ने काजू बागान को नाम मात्र बनाकर रख दिया है. रातू हेहल स्थित काजू बागान में अब उंगलियों पर गिनने के बराबर काजू पेड़ बचे हैं. काजू के पेड़ों से हरा-भरा रहनेवाला यह बागीचा अब क्रंकीट के जंगल में तब्दील हो गया है. प्राइवेट बिल्डिंग्स से लेकर सरकारी कार्यालय यहां बनकर तैयार हो चुका है.
राज्य सरकार के नगर विकास मंत्री रहे और वर्तमान में रांची के विधायक सीपी सिंह काजू बागान की यादों को ताजा करते हुए कहते हैं कि समय के साथ हुए बदलाव के कारण काजू बागान का अस्तित्व मिटा दिया. चिंता का विषय यह है कि राज्य के अन्य जिलों में स्थित काजू बागान को भी संरक्षित करने की कोशिश नहीं की जा रही है.
जामताड़ा के नाला में 49 एकड़ में काजू का बागान है. यह बागान ब्लॉक मुख्यालय से 4 किमी की दूरी पर है. डाड़र केवलजोरिया से भंडारकोल तक करीब 5 किलोमीटर में फैला है. बागान में प्रतिवर्ष हजारों क्विंटल काजू फलता है मगर समुचित देखरेख के अभाव और मार्केटिंग नहीं होने के कारण किसान इसे औने-पौने दामों में बेचने को मजबूर हैं.
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काजू की खेती के लिए जमीन और जलवायु
काजू गर्म एवं उष्ण जलवायु में अच्छी पैदावार देता है. जिन क्षेत्रों में पाला पड़ने की संभावना होती है या लंबे समय तक सर्दी पड़ती है, वहां पर इसकी खेती प्रभावित होती है. 700 मी. ऊंचाई वाले क्षेत्र जहां पर तापमान 200 सें.ग्रे. से ऊपर रहता है, काजू की अच्छी उपज होती है. 600-4500 मि.मी. वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्र के लिए काजू के लिए उपयुक्त माने गए हैं.
काजू को अनेक प्रकार की मिट्टी में उगाया जा सकता है पर समुद्र किनारे लाल एवं लेटेराइट मिट्टी वाले भू-भाग इसकी खेती के लिए ज्यादा उपयुक्त होते हैं. यही वजह है कि झारखंड के पूर्वी एवं पश्चिमी सिंहभूम, सरायकेला-खरसावां सहित अन्य जिले काजू की खेती के लिए अत्यंत उपयुक्त पाए गए हैं. इन जिलों की मिट्टी एवं जलवायु काजू की खेती के लिए उपयुक्त है.
ड्राई फ्रूट्स में काजू का जवाब नहीं है. यह भले ही महंगा मेवा हो मगर इसकी मांग बनी रहती है. दुखद पहलू यह है कि इसके बाबजूद हम काजू के हरे-भरे फलदार पेड़ को संरक्षित नहीं कर पा रहे हैं, जिसके कारण यह काजू बागान सिर्फ और सिर्फ स्मृति शेष बनकर रह गया है.