गिरिडीह: दहेज जैसी कुप्रथा समाज के लिए अभिशाप है. इसी कुप्रथा के कारण लाखों परिवार उजड़ चुके हैं तो कई बेटियों के हाथ भी पीले नहीं हो रहे. इस कुप्रथा के खिलाफ आवाज तो उठती है, कड़े कानून भी है, लेकिन दहेज की प्रथा खत्म नहीं हो रही. वहीं, दूसरी और आधुनिकता के दौड़ में कथित तौर पर पिछड़ा समझा जानेवाला आदिवासी समाज शुरू से ही दहेज प्रथा का विरोधी रहा है. इस समाज में न तो कभी दहेज का प्रचलन था और न ही आज के युग में है. आज भी इस समाज से जुड़े लोग दहेज विरोधी हैं. इस समाज में महिलाओं को वही सम्मान दिया जाता है जो पुरुषों को मिलता है.
कर्ज अदा करने की परंपरा
इस समाज से जुड़े पीरटांड़ प्रखंड के प्रमुख सिकंदर हेम्ब्रम कहते हैं कि आदिवासी समाज में लड़का-लड़की एक समान हैं. यहां पर लड़की को लक्ष्मी का रूप समझा जाता है. शादी-विवाह में पूरी परंपरा का पालन होता है. जब तक लड़की को देखकर उनके माता-पिता या अभिभावक संतुष्ट नहीं हो जाते और लड़की के माता-पिता-अभिभावक के साथ-साथ स्वशासन से जुड़े मांझी-हड़ाम, नायके बाबा, जोग-मांझी, गोडेथ, परानिक में से किसी एक दो व्यक्ति के साथ बैठक कर विवाह तय नहीं हो जाता तब तक लड़की को लड़का देख नहीं सकता.
वहीं, शादी से पहले लड़की के माता पिता को कर्ज अदा करने की भी एक परंपरा है. यह परंपरा मान-सम्मान से जुड़ा हुआ है. इस परंपरा के तहत शादी से पहले लड़की के माता-पिता को 17 रुपया 50 पैसा और बैल देने की परंपरा है, जबकि तलाकशुदा महिला जब दूसरी शादी रचाती है तो उनके माता-पिता को लड़का पक्ष 12 रुपया 50 पैसा देता है. शादी टूटने पर जो भी सामान लड़की पक्ष के द्वारा दिया जाता है उसे वापस करने का काम लड़का पक्ष को करना होता है.
दहेज लेने पर सजा का प्रावधान
प्रमुख सिकंदर के अलावा स्वशासन से जुड़े सीताराम हांसदा बताते हैं कि यदि कोई व्यक्ति परंपरा को तोड़कर दहेज लेता है तो उसके लिए दंड का भी प्रावधान है. दहेज लेने-देने वाले का सामाजिक बहिष्कार किया जाता है. आगे बताते हैं कि दहेज प्रथा नहीं रहने के कारण किसी भी लड़की के पिता के लिए बेटियां बोझ नहीं होती है.
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भोजन लेकर आती है बारात
इसी तरह चुड़का हेम्ब्रम बताते हैं कि लड़कीवालों पर लोड नहीं पड़े इसके लिए बाराती अपना भोजन खुद ही लाते हैं और बनाकर खाते हैं. वहीं, शादी में आनेवाले रिश्तेदार समेत अन्य लोग भी अनाज लेकर आते हैं ताकि शादी के खर्च का भार भी नहीं पड़े.