हैदराबाद : अगले साल होने वाला विधानसभा चुनाव ममता बनर्जी के लिए आसान नहीं होगा. 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 18 सीटें जीतकर ममता के 'दुर्ग' में दरार पैदा कर दी. उनकी उम्मीदें बढ़ गईं हैं. पर, आगे का रास्ता इतना आसान नहीं है. ममता बनर्जी खुद संघर्ष के रास्ते शीर्ष तक पहुंचीं हैं. 34 साल के वाम शासन को हटाना कोई मामूली सफलता नहीं थी. यह उनके संघर्ष और जुझारूपन का ही परिणाम था. आइए डालते हैं एक नजर ममता के राजनीतिक सफर, उनके संघर्षों और भाजपा से मिल रही चुनौतियों पर.
साल 1984 था. जाधवपुर से सीपीएम के कद्दावर नेता सोमनाथ चटर्जी लोकसभा चुनाव लड़ रहे थे. वे इस सीट पर लगातार जीत हासिल करते आ रहे थे. उन्हें अपनी जीत पर कोई शक नहीं था. पार्टी भी ऐसा ही मान रही थी. लेकिन जब परिणाम निकला, तो पूरे देश में सनसनी फैल गई. ममता बनर्जी ने दिग्गज नेता को पटखनी दे दी.
खुद सोमनाथ चटर्जी ने स्वीकार किया था कि वे उन्हें जानते नहीं थे. चटर्जी ने मीडिया को बताया था कि उस समय वे कांग्रेस में बंगाल से प्रणब मुखर्जी को सबसे बड़ा चेहरा मानते थे.
प्रणब मुखर्जी ने इसके बारे में जिक्र करते हुए कहा था कि ममता बनर्जी से पहले कांग्रेस के कई बड़े (प्रदीप घोष और सुशोभन बनर्जी) इस सीट से चुनाव लड़ने का ऑफर ठुकरा चुके थे. ऐसे में राजीव गांधी ने ही सोमनाथ दा के खिलाफ किसी युवा चेहरे को प्राथमिकता देने की बात कही.
नामांकन के समय ममता ने सोमनाथ दा के पैर छूने की कोशिश की थी. कहा जाता है कि सोमनाथ दा असहज हो गए थे. ममता ने चुनाव के दौरान इसे भी एक मुद्दा बना दिया था.
ममता का संघर्ष कुछ इस कदर था कि शुरुआती दिनों में वह लेफ्ट के खिलाफ कांग्रेस का पोस्टर रात में चिपकाती थीं. उस पोस्टर को लेफ्ट समर्थक सुबह में फाड़ देते थे. लेकिन ममता अगली रात फिर से पोस्टर को चिपका देतीं थीं.
आपातकाल से पहले जयप्रकाश नारायण जब बंगाल आए थे और वे पूरे देश में युवाओं को इंदिरा गांधी के खिलाफ एकजुट कर रहे थे, ममता उनके काफिले के सामने खड़ी हो गईं थीं. ममता तब कांग्रेस में थीं.
उसके बाद ममता ने पीछे मुड़कर कभी नहीं देखा. एक प्रतिबद्ध कार्यकर्ता की तरह लगीं रहीं. उनका भाषण लोगों को काफी प्रभावित करता था. उनकी सादगी लोगों पर चढ़कर बोलने लगी थी. सामान्य साड़ी और हवाई चप्पल उनका ट्रेड मार्क बन चुका था.
- 1979-80 में ममता प. बंगाल महिला कांग्रेस की सचिव बनीं.
- 1984 की जबरदस्त जीत के बाद वह 1989 में लोकसभा का चुनाव हार गईं.
- 1991 में कोलकाता दक्षिण से वह फिर से चुनी गईं. और तब से वह लगातार इस सीट से चुनाव जीतती रहीं. 1996,1998, 1999, 2004 और 2009 में अपना परचम लहराया.
- 1991 में वह नरसिंह राव सरकार में एचआरडी मंत्री बनीं.
- 1996 उन्होंने कांग्रेस छोड़ दिया. ममता ने कांग्रेस को सीपीएम का 'पिट्ठू' बताया था.
- 1998 में ममता बनर्जी ने नई पार्टी तृणमूल कांग्रेस का गठन किया.
- उनकी पार्टी को 1998 में आठ और 1999 में लोकसभा की 7 सीटें मिलीं.
- वह भाजपा गठबंधन में शामिल हो गईं.
- वाजपेयी सरकार में 1999 में वह रेल मंत्री बनीं. उसके बाद कोयला मंत्री का प्रभार दिया गया.
- 2003-04 में वह बिना विभाग की ही मंत्री बनी रहीं.
ममता ने 2011 में इतिहास बना डाला. उन्होंने 34 साल से चले आ रहे वाम गठबंधन के किले को ध्वस्त कर दिया. उन्होंने युवाओं को अपना मुख्य समर्थक बनाया. रोजगार को लेकर कई वादे किए. विकास को प्राथमिकता देने की बात कही. लेफ्ट की हिंसा से जनता ऊब चुकी थी. इसलिए ममता को भारी समर्थन मिला.
ममता ने कांग्रेस क्यों छोड़ी
ममता चाहती थीं कि उन्हें राज्य में बतौर अध्यक्ष बागडोर सौंपी जाए. लेकिन राज्य के दूसरे नेता ऐसा नहीं चाहते थे. 1991-92 के बाद 1997 में फिर से प्रदेश अध्यक्ष के चुनाव की बारी आई. उन्हें अचरज उस समय लगा, जब प्रदेश कांग्रेस कमेटी में 493 नेताओं की जो सूची सौंपी गई, उनमें से अधिकांश उनके विरोधी थे. यह देखकर ममता भड़क गईं. उन्हें लगा कि उनके खिलाफ साजिश हो रही है. उन्होंने कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को खुली चुनौती दी. उन्होंने अलग रैली की. उसमें काफी भीड़ जमा हुई थी. ममता ने कहा कि उन्हें राजनीतिक रूप से खत्म करने की कोशिश हो रही है. ममता ने कहा कि बंगाल से वाम शासन का खात्मा सिर्फ वही कर सकती हैं. पार्टी छोड़ने से पहले ममता ने कहा - अब तो इंदिरा भी नहीं हैं, राजीव भी नहीं हैं तो उस पार्टी में वह क्या करेंगी. उन्होंने टीएमसी के गठन का ऐलान कर दिया. उस समय सीताराम केसरी कांग्रेस के अध्यक्ष थे और सोनिया गांधी की ताजपोशी होने वाली थी.
नंदीग्राम और सिंगूर संघर्ष
नंदीग्राम इलाके में ममता के प्रमुख सहयोगी रहे शुभेंदु अधिकारी आजकल नाराज बताए जा रहे हैं. वह पार्टी लाइन से अलग हटकर अपनी रैली खुद आयोजित कर रहे हैं. रबीन्द्रनाथ भट्टाचार्जी ने टीएसी से इस्तीफा देने की बात कही है. वह टाटा के नैनो कारखाने के खिलाफ चले आंदोलन में ममता के प्रमुख सहयोगी थे.
लेफ्ट सरकार ने टाटा ग्रुप की एक कार फैक्ट्री के लिए हुगली जिले के सिंगूर में पांच गांवों से किसानों की जमीन लेने का फैसला किया था. किसानों के समर्थन में ममता भूख हड़ताल पर बैठ गईं थीं.
नंदीग्राम में इंडोनेशिया की कंपनी सालिम ग्रुप के लिए जमीन अधिग्रहण पर विवाद हुआ. 14 किसान मारे गए. दोनों ही आंदोलनों में ममता की भागीदारी से सुनिश्चित हो गया था कि वह आने वाले दिनों में राजनीति पलट देंगी.
चुनाव से पहले ममता के सामने चुनौतियां
नेशनलिज्म वर्सेस सब-नेशनलिज्म
भारतीय जनता पार्टी राष्ट्रवाद के मुद्दे को बार-बार हवा दे रही है. एनआरसी और सीएए को लेकर भाजपा ने इसे राष्ट्रवाद से जोड़ दिया है. वह अनुच्छेद 370 का जिक्र करती है.
इसके जवाब में ममता बंगाली प्राइड को हवा दे रहीं हैं. राज्य का नाम बदलने का प्रयास कर रहीं हैं. वह बार-बार बाहरी का जिक्र कर रहीं हैं. लेकिन ममता को ये भी ध्यान रखना होगा कि कर्नाटक में सिद्धारमैया की सरकार इसी रास्ते पर चली, पर वह असफल हो गई. उन्होंने कर्नाटक के लिए अलग झंडे तक की बात कही. यह दांव उन पर उलटा पड़ गया.
तुष्टिकरण की नीति
बंगाल में इस समय सबसे बड़ा मुद्दा तुष्टिकरण का हो गया है. भाजपा ममता सरकार को इस मुद्दे पर बार-बार घेर रही है. इसके जवाब में ममता ने दुर्गा पूजा पंडाल समिति को पैसा देने की घोषणा की. 8000 पुजारियों को मासिक वेतन देने का ऐलान किया. गरीब पुजारियों को घर देने का भरोसा दिया. ममता ने 2012 में ही इमाम के लिए 2500 रु मासिक देने की शुरुआत की थी. उन्होंने दक्षिणेश्वर, तारापीठ और बर्केश्वर की मदद दी. बंगाल में जगन्नाथ मंदिर के रेप्लिका बनाने की घोषणा की. पोस्टर पर नमाज पढ़ते हुए ममता की तस्वीर छापी गई. एनआरसी का आक्रामक तरीके से विरोध कर रहीं हैं.
लेकिन ममता के ये भी याद रखना चाहिए कि गुजरात चुनाव के दौरान राहुल गांधी ने अपने को जनेऊधारी ब्राह्मण बताया था. बार-बार वे मंदिर जा रहे थे. पर, इसका फायदा उन्हें नहीं मिला. ममता अगर सैद्धान्तिक विरोध करती हैं, तो अच्छा है, लेकिन अगर दिखावे वाला विरोध है, तो परिणाम उनके अनुरूप नहीं हो सकता है.
वाम दलों ने भी अल्पसंख्यक कार्ड खेला था. लेकिन उसका बहुत अधिक प्रदर्शन नहीं किया. ममता इससे ठीक उलट कर रहीं हैं. लिहाजा, उनके शासन काल के दौरान ध्रुवीकरण की गुंजाइश अधिक दिखती है.
टीएमसी के पास अपना कैडर नहीं है
टीएमसी का अपना कैडर नहीं है. इस मामले में लेफ्ट और भाजपा की स्थिति टीएमसी से बेहतर है. प्रतिबद्ध कार्यकर्ता नहीं रहने की वजह से पार्टी की स्थिति कमजोर हो जाती है. पैसे के लोभ के चक्कर में स्थिति कुछ भी हो सकती है.
एससी, एसटी और ओबीसी की लड़ाई
ममता ने अनुसूचित जाति-जनजाति और पिछड़ों के लिए अलग सेल बनाया था. 2011 की जीत के बाद उस समय सभी 84 एससी और एसटी विधायकों के साथ अलग बैठक की. उसके बाद उन पर बहुत अधिक ध्यान नहीं दिया. लेकिन जब भाजपा ने आदिवासी समुदाय के बीच अपनी पैठ बनानी शुरू कर दी, तो ममता ने फिर से आक्रामक तरीके से अपनी रणनीति बदल दी.
उन्होंने दलित साहित्य अकादमी की घोषणा की. बैकवर्ड क्लासेस वेलफेयर डिपार्टमेंट के मुखिया राजबंशी समुदाय के व्यक्ति को बनाया. शांतिराम महतो, ओबीसी समुदाय, को अपने मंत्रिमंडल में शामिल किया. जंगलमहल इलाके के 5400 अस्थायी सिपाहियों को स्थायी कर दिया. इसी इलाके के प्रमुख नेता चंद्रधर महतो को अपनी पार्टी का सचिव बनाया. जंगलमहल इलाके में भाजपा धीरे-धीरे कर अपनी स्थिति मजबूत करती जा रही है.
लोकसभा चुनाव 2019 में भाजपा मुख्य रूप से उत्तर दिनाजपुर, दक्षिण दिनाजपुर, मुर्शिदाबाद और नादिया जिला, आदिवासी प्रभाव वाला जंगलमहल इलाके, में भाजपा ने अच्छा किया. टीएमसी ने मुख्य रूप से शहरी इलाकों में अच्छा किया. ममता इसको पाटने की कोशिश कर रहीं हैं.
प्रशांत किशोर को रणनीति बनाने की जिम्मेवारी दी गई है. समझा जाता है कि पीके ने ममता को मोदी पर व्यक्तिगत रूप से हमने न करने की सलाह दी है.
ममता ने भाजपा को हल्के में लिया था
2016 के विधानसभा चुनाव में टीएमसी को 211 सीटें मिलीं. 45.6 फीसदी वोट मिले.
कांग्रेस को 44 और सीपीएम को 26 सीटें मिलीं. भाजपा को 10.3 फीसदी वोट मिले. ममता ने तब भाजपा को नोटिस नहीं किया. वह लेफ्ट और कांग्रेस पर बरसती रहीं.
लेकिन पंचायत चुनाव 2018 में भाजपा ने 18 फीसदी वोट हासिल कर लिया. वह दूसरे स्थान पर रहीं. झारग्राम, बांकुरा और पुरुलिया के जनजातीय इलाकों में भाजपा ने ठीक-ठाक पैठ बनाई. ये इलाके झारखंड से सटे हैं. उसके बाद 2019 में तो टीएमसी की नींद उड़ा दी.
निश्चित तौर पर इस बार का विधानसभा चुनाव बहुत ही रूचिकर होने जा रहा है. भाजपा ने भी अपनी पूरी ताकत झोंक रखी है. वहीं दूसरी ओर ममता इतनी आसानी से अपने किले को ध्वस्त होने देंगी, ऐसा लगता नहीं है. उन्होंने खुद ही संघर्ष से निकलकर अपनी अलग राह बनाई है. पर, राजनीति है और राजनीति में कुछ भी स्थायी नहीं होता है, लिहाजा संतोषी होना तो किसी भी खेमे को बर्बाद कर सकता है.