शिमला: हिमाचल प्रदेश में मंगलवार को वन महोत्सव शुरू हुआ. कई दिन तक चलने वाले इस महोत्सव में पूरे प्रदेश में एक करोड़ पौधे लगाए जाएंगे. हिमाचल में पौधारोपण और वनों की रक्षा की परंपरा प्राचीन समय से है. यहां हम हिमाचल में मौजूद एक ऐसे जंगल की बात करेंगे, जहां पेड़ काटना तो दूर, कोई व्यक्ति इस जंगल से एक टहनी भी नहीं तोड़ सकता.
हैरत की बात है कि यहां की लकड़ी सिर्फ और सिर्फ शव जलाने के काम में लाई जाती है. अगर कोई व्यक्ति इस जंगल से भूले से एक टहनी भी घर ले जाए तो अनिष्ट हो जाता है. यही कारण है कि जंगल में सूख चुके पेड़ गिर कर गल जाएंगे, लेकिन कोई उस लकड़ी को घर नहीं ले जा सकता. रहस्य से भरे इस जंगल को द्रोण नगरी कहते हैं और ये ऊना जिले के अंबोटा में स्थित है. जंगल का नाम शिव बाड़ी है. सारे इलाके और ऊना जिला सहित पूरे प्रदेश के लोगों को इस बात का इल्म है कि यहां की लकड़ी किसी और काम में नहीं लाई जा सकती. अलबत्ता, अंतिम संस्कार के लिए ही इसे प्रयोग में लाया जाता है. ये जंगल कई रहस्यों की कहानी कहता है.
संचार क्रांति के इस दौर में जब मनुष्य मंगल ग्रह पर बसने की जुगत में है, शिव बाड़ी के जंगल का रहस्या कोई नहीं जान पाया है. प्रगतिशील विचारों के लोग बेशक शिव बाड़ी से जुड़े रहस्यों को अंधविश्वास की संज्ञा दें, लेकिन ये सच है कि यहां से कोई भी व्यक्ति एक भी टहनी नहीं तोड़ सकता. कारण चाहे जो भी हो, लेकिन इसी विश्वास के कारण इस जंगल की शान बनी हुई है. अंबोटा गांव के बुजुर्ग बताते हैं कि इस जंगल की लकड़ी को अगर कोई व्यक्ति घर ले जाएगा तो अनिष्ट होना तय है. यही कारण है कि कोई भी यहां से लकड़ी नहीं ले जाता.
पुरातन कथा के अनुसार त्रेता युग में शिव बाड़ी का संपूर्ण जंगल पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य जी का था. यहां वे अपने शिष्यों को धनुर्विद्या सिखाते थे. कथा में बताया जाता है कि गुरु द्रोण की पुत्री के आग्रह पर भगवान शिवशंकर ने यहां शिवलिंग की स्थापना की थी. इस तरह ये क्षेत्र शिव भक्तों की आस्था का केंद्र बन गया. प्राचीन समय से ही ये परंपरा है कि यहां की लकड़ी केवल मृत शरीर का संस्कार करने में ही प्रयोग की जाती थी. पुराने समय में इस जंगल में चार श्मशान घाट थे. यहां शव दाह किया जाता था. इस समय शिव बाड़ी में तीन श्मशान घाट हैं.
शव जलाने के अलावा यहां तपस्यारत साधु भी अपने धूने को प्रज्जवलित करने के लिए यहां की लकड़ी उपयोग में लाते रहे हैं. बस, यहां से बाहर कोई लकड़ी नहीं ले जाता. और तो और सूख चुकी लकड़ी को वन विभाग भी अपने कब्जे में नहीं लेता. वहीं, स्थानीय लोग मृत शरीर का अंतिम संस्कार करने के लिए जंगल की लकड़ी का प्रयोग करने के लिए वन विभाग की अनुमति नहीं लेते. इस तरह ये एक अघोषित कानून ही बन गया है.
इलाके के बुजुर्ग एक घटना का जिक्र करते हैं. बताया जाता है कि कई साल पहले यहां सैन्य अभ्यास के लिए टुकड़ियां आती थीं. उस दौरान सेना के जवानों ने यहां की लकड़ी का प्रयोग खाना बनाने के लिए किया. मना करने के बाद भी सैनिक नहीं माने. बताया जाता है कि बाद में रवानगी पर सेना का वाहन खाई में गिर गया. बाद में सेना के अधिकारियों ने इलाके का दौरा किया तो बुजुर्गों ने इस जंगल की खासियत बताई. उसके बाद से सेना की टुकड़ियां यहां अभ्यास के लिए नहीं आईं. यहां मौजूद मंदिर के व्यवस्थापक बताते हैं कि एक बार बाहर से सैलानी आए तो यहां पेड़ों से सुंदर लताएं तोड़ कर अपने साथ ले गए. बाद में घर पहुंचकर रात को उन्हें सपने में सांप नजर आने लगे. उन्होंने लताएं वापस जंगल में रख दीं तो सपने आना बंद हुए. एक और रहस्य की बात ये है कि मृत शरीर का दाह संस्कार करने के लिए इस जंगल की हरी लकड़ी भी तुरंत आग पकड़ लेती है.
यहां मौजूद शिव मंदिर में शिवलिंग जमीन के नीचे है. अमूमन मंदिरों में शिवलिंग जमीन से ऊपर होते हैं. यहां मंदिर का नाम द्रोण शिव मंदिर है. राज्य सरकार ने मंदिर का अधिग्रहण किया है. यहां जल संरक्षण का संदेश भी दिया जाता है. कुछ साधुओं की समाधियां भी यहां मौजूद हैं. प्रकृति को मनुष्य का साथी कहने वाले कवि-लेखक मधुकर भारती कहा करते थे कि ऐसी परंपराओं को वनस्पतियों की शक्तियों के रूप में देखा जाना चाहिए. जिस भी परंपरा से पर्यावरण संरक्षण को बल मिलता है, उसका पालन किया जाना चाहिए.
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