सोलन: सेब राज्य के रूप में मशहूर हिमाचल में इस फल की व्यावसायिक खेती को सौ साल से अधिक समय हो चुका है. आज प्रदेश में 1,10,679 हेक्टयर क्षेत्र में 7.77 लाख मीट्रिक टन सेब पैदाकर प्रदेश की आर्थिकी को सुदृढ़ किया जा रहा है, लेकिन सेब उत्पादकों को आज भी उनकी फसल खराब होने का डर बना रहता है.
ओलावृष्टि होने से हर साल हिमाचल प्रदेश में करीब 400 से 500 करोड़ का नुकसान आंका जाता है. ओलावृष्टि के कारण सेब के साथ-साथ अन्य फसलें भी खराब होती हैं. जिसका खामियाजा किसान बागवानों को भुगतना पड़ता है, लेकिन अब जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड समेत सभी पहाड़ी राज्यों में ओले गिरने के करण सेब, बादाम, चेरी, मशरूम समेत अन्य पहाड़ी फसलें खराब नहीं होंगी.
आईआईटी बॉम्बे के वैज्ञानिकों ने पानी की बूंदों को ओले में बदलने की प्रक्रिया को रोकने की तकनीक वाली 'हेल गन' ईजाद कर ली है. वैज्ञानिकों का दावा है कि इसके उपयोग से अकेले सेब की फसल को हर साल होने वाला 400 से 500 करोड़ रुपये का नुकसान बच जाएगा.
सालाना होता है 500 करोड़ का नुकसान
एंटी 'हेल गन' के बारे में नौणी विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. परविंदर कौशल ने बताया कि हर वर्ष ओलावृष्टि से हिमाचल प्रदेश में करीब 500 करोड़ का नुकसान होता था. ओलावृष्टि से बचने के लिए अभी तक किसान बागवान हिमाचल में एंटी नेट हेल का प्रयोग करते थे. नेट के प्रयोग से पौधों की ग्रोथ में भी प्रभाव पड़ता था और उत्पादन में भी इसका प्रभाव देखने को मिलता था. उन्होंने बताया कि कई बार किसान बागवानों को इससे नुकसान भी झेलना पड़ता था.
सस्ती होगी हेल गन, एलपीजी गैस का होगा उपयोग
डॉ. परविंदर कौशल ने बताया कि इन सभी चीजों को ध्यान में रखते हुए प्रदेश सरकार ने पिछले वर्ष एंटी हेल गन विदेशों से मगंवाई थी जिसका खर्च करीब 70 से 75 लाख था, लेकिन अब नौणी विश्वविद्यालय द्वारा आईआईटी मुंबई के साथ मिलकर एंटी हेल गन पर कार्य किया जा रहा है, जिसे एलपीजी गैस के माध्यम से इस्तेमाल किया जा सकेगा.
यह करीब 22 फुट लंबा गन होगा और जिसकी कीमत करीबन 8 से 10 लाख होगी. उन्होंने बताया कि जिस तरह से प्रधानमंत्री और प्रदेश सरकार आत्मनिर्भर मुहिम चलाए हुए है. उसी को ध्यान में रखते हुए इस कार्य पर प्रोजेक्ट पर कार्य किया जा रहा है.
नौणी विवि तकनीक को रही परख
आईआईटी बॉम्बे के डिपार्टमेंट ऑफ एयरोस्पेस इंजीनियरिंग के वैज्ञानिक प्रो. सुदर्शन कुमार के मुताबिक केंद्र सरकार के साइंस इंजीनियरिंग एंड रिसर्च बोर्ड ने साल 2019 में फसलों को ओलावृष्टि से बचाने वाली तकनीक खोजने के लिए करीब 85 लाख की लागत वाला यह प्रोजेक्ट दिया था.
उनका मानना है कि प्रोजेक्ट 2022 तक पूरा हो जाएगा. फिलहाल, हिमाचल प्रदेश के डॉ. वाईएस परमार यूनिवर्सिटी (नौणी) विश्वविद्यालय के कंडाघाट स्थित रिसर्च स्टेशन में इस तकनीक का प्रयोग चल रहा है. विश्वविद्यालय की टीम यह परखेगी कि यह तकनीक कितनी कारगर है.
मिसाइल, लड़ाकू विमान चलाने वाली तकनीक का प्रयोग
नौणी विश्विद्यालय के वैज्ञानिक डॉ. एस के भारद्वाज ( एचओडी, डिपार्टमेंट ऑफ एनवायरमेंटल साइंस) ने बताया कि 'हेल गन' में मिसाइल और लड़ाकू विमान चलाने वाली तकनीक का प्रयोग किया है. हवाई जहाज के गैस टरबाइन इंजन और मिसाइल के रॉकेट इंजन की तर्ज पर इस तकनीक में प्लस डेटोनेशन इंजन का इस्तेमाल किया जाता है.
इसमें एलपीजी और हवा के मिश्रण को हल्के विस्फोट के साथ दागा जाता है. इस हल्के विस्फोट से एक शॉक वेव (आघात तरंग) तैयार होती है. यह शॉक वेव ही 'हेल गन' के माध्यम से वायुमंडल में जाती है और बादलों के अंदर का स्थानीय तापमान बढ़ा देती है. इससे ओला बनने की प्रक्रिया धीमी पड़ जाती है.
10 लाख रुपये में लगेगी, दस किलोमीटर में रहेगा असर
एंटी हेल गन के अंदर से निकलने वाली मिसाइल पांच से 10 किलोमीटर क्षेत्र में प्रभाव पैदा करेगी, यानी इतने क्षेत्र में बादलों के अंदर ओले बनने की प्रक्रिया थम जाएगी. हेल गन को लगाने समेत इस तकनीक का शुरुआती खर्च करीब 10 लाख रुपये होगा, जबकि बाद में एलपीजी गैस के ही पैसे देने होंगे. एलपीजी गैस का प्रयोग इस तकनीक को सस्ता रखने के लिए किया गया है.
बता दें कि एंटी हेल गन आरंभिक प्रयोगों से विस्फोट तरंग उत्पन्न 1100 मी/एस या 3960 किमी प्रति घंटे की गति से यात्रा करती है, जो एलपीजी-एयर मिश्रण के लिए 1200 मीटर/सेकंड के सी-जे (चैपमैन-जौगेट) वेग के करीब है. वैज्ञानिकों का कहना है कि हेल गन के प्रयोग में अभी 1 शॉट में 0.24kg गैस का उपयोग हो रहा है और अगर एक सिलेंडर की बात की जाए तो करीब 500 से 600 शॉट निकल रहे हैं.
वैज्ञानिकों का कहना है कि अभी इस बारे में प्रयोग चल रहा है और आने वाले समय में गैस की मात्रा बढ़ और घट भी सकती है. वहीं, साथ में जो गैस सिलेंडर से शॉट निकल रहे हैं इनकी संख्या में बढ़ोतरी और कमी आ सकती है.
वायुमंडल में ऐसे बनते हैं ओले
बता दें कि बादलों में जब ठंड बढ़ती है तो वायुमंडल में जमा पानी की बूंदें जमकर बर्फ का आकार ले लेती हैं. इसके बाद यह बर्फ गोले के आकार में जमीन पर गिरती हैं. इन्हें ही ओला कहते हैं. पहाड़ों में मार्च से मई के बीच ओलावृष्टि के चलते सभी फसलें, सब्जी और फल खराब हो जाते हैं. सेब, बादाम, चेरी, अखरोट और करीब 40 से 50 हजार रुपये प्रति किलो मूल्य वाली गुच्छी (पहाड़ी मशरूम) आदि फसलों को सबसे अधिक नुकसान होता है.
71 फीसद में सेब उत्पादन
हिमाचल में फलोत्पादन के अंतर्गत कुल क्षेत्रफल का लगभग 71 फीसद हिस्सा सेब उत्पादन से जुड़ा है. देश में पैदा होने वाले सेब का 35 प्रतिशत हिस्सा हिमाचल ही पैदा करता है. यहां पर सेब की खेती 3,500 से लेकर 9000 फुट तक की ऊंचाई तक मुख्य रूप से शिमला, कुल्लू, मंडी, सिरमौर, किन्नौर व चंबा जिलों में की जाती है.
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