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काली पूजन के साथ हुआ सायर मेले का आगाज, जानिए प्राचीन काल से चली आ रही ये परंपरा क्यों है खास - अश्विन महीने की सक्रांति

सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता और सहकारिता मंत्री ने सोलन जिला के अर्की उपमंडल में दो दिवसीय प्राचीन सायर उत्सव का शुभारंभ किया.

काली पूजन के साथ हुआ सायर मेले का आगाज, सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता तथा सहकारिता मंत्री ने किया शुभारंभ
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Published : Sep 18, 2019, 9:10 AM IST

सोलन: सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता और सहकारिता मंत्री डॉ. राजीव सैजल ने कहा कि हमारे देश में मेलों की प्राचीन परंपराएं हमारी समृद्ध संस्कृति की परिचायक हैं और इनका संवर्द्धन सभ्यता के क्रमिक विकास के लिए आवश्यक है. डॉ. सैजल सोलन जिला के अर्की उपमंडल में दो दिवसीय प्राचीन सायर उत्सव के शुभारंभ के अवसर पर उपस्थित जनसमूह को संबोधित कर रहे थे.

डॉ. सैजल ने कहा कि परंपराएं संस्कृति की पोषक हैं और संस्कृति मानव सभ्यता के लिए आवश्यक है. हमारी संस्कृति हम सभी को जहां प्राचीन से जोड़ती है. वहीं, नूतन के सृजन के लिए प्रेरित भी करती है. उन्होंने विशेष रूप से युवाओं का आह्वान किया कि अपनी समृद्ध संस्कृति और परंपराओं को जानें और इनके प्रचार प्रसार एवं संवर्द्धन में सहायक बनें.

Sawyer Fair
काली पूजन के साथ हुआ सायर मेले का आगाज

क्यों मनाया जाता है सैर या सायर का पर्व और क्या है इसका महत्व
हिमाचल प्रदेश अपनी समृद्ध संस्कृति, विभिन्न मेले, उत्सव और त्योहारों के लिए प्रसिद्ध है. ये सारे त्यौहार जहां हम सबको हमारे अपनों से जोड़े रखने का काम करते हैं, वहीं हिमाचली जनता के लिए एक रोजगार का काम भी कर रहे हैं. हिमाचल में यूं तो साल भर बहुत से त्योहार मनाए जाते हैं और लगभग हर महीने की सक्रांति यानि “सज्जी या साजा” को एक विशेष नाम से जाना जाता है और त्यौहार के तौर पर मनाया जाता है.

क्रमानुसार भारतीय देसी महीनों के बदलने और नए महीने के शुरू होने के प्रथम दिन को सक्रांति कहा जाता है. लगभग हर सक्रांति पर हिमाचल प्रदेश में कोई न कोई उत्सव मनाया जाता है जो कि हिमाचल प्रदेश की पहाड़ी संस्कृति का प्राचीन भारतीय सभ्यता या यूं कहें तो देसी कैलेंडर के साथ एकरसता का परिचायक है. 16 सितम्बर यानी अश्विन महीने की सक्रांति को कांगड़ा, मण्डी, हमीरपुर, बिलासपुर और सोलन सहित अन्य कुछ जिलो में सैर या सायर का त्योहार काफी धूमधाम से मनाया जाता है.

अश्विन महीने की सक्रांति को सैर उत्सव या सायर उत्सव
सैर उत्सव या सायर उत्सव भी इन्हीं त्योहारों में से एक है. सैर का त्योहार (सायर त्योहार )अश्विन महीने की सक्रांति को मनाई जाती है. वास्तव में यह त्योहार वर्षा ऋतु के खत्म होने और शरद ऋतु के आगाज के उपलक्ष्य में मनाया जाता है. इस समय खरीफ की फसलें पक जाती हैं और काटने का समय होता है, तो भगवान को धन्यवाद करने के लिए यह त्योहार मनाते हैं. सैर के बाद ही खरीफ की फसलों की कटाई की जाती है. इस दिन “सैरी माता” को फसलों का अंश और मौसमी फल चढ़ाए जाते हैं और साथ ही राखियां भी उतार कर सैरी माता को चढ़ाई जाती हैं.

ठंडे इलाकों में इसे सर्दी की शुरुआत माना जाता है और सर्दी की तैयारी शुरू हो जाती है. लोग सर्दियों के लिए अनाज और लकड़ियां जमा करके रख लेते हैं. सैर आते ही बहुत से त्यौहारों का आगाज़ हो जाता है. सैर के बाद दिवाली तक विभिन्न व्रत और त्योहार मनाए जाते हैं.

बरसात की समाप्ति, अन्न पूजा और पशुओं की खरीद फरोख्त
इस उत्सव को मनाने के पीछे एक धारणा यह है कि प्राचीन समय में बरसात के मौसम में लोग दवाइयां उपलब्ध न होने के कारण कई बीमारियों व प्राकृतिकआपदाओं का शिकार हो जाते थे और जो लोग बच जाते थे वे अपने आप को भाग्यशाली समझते थे तथा बरसात के बाद पड़ने वाले इस उत्सव को खुशी-खुशी मनाते थे. तब से लेकर आज तक इस उत्सव को बड़ी ही धूमधाम से मनाया जाता है. सायर का पर्व अनाज पूजा और बैलों की खरीद-फरोख्त के लिए मशहूर है. कृषि से जुड़ा यह पर्व ग्रामीण क्षेत्रों में ही नहीं, बल्कि शहरों में भी धूमधाम के साथ मनाया जाता है. बरसात के मौसम के बाद खेतों में फसलों के पकने और सर्दियों के लिए चारे की व्यवस्था किसान और पशु पालक सायर के त्योहार के बाद ही करते हैं.

देवालयों के खुलते हैं कपाट
सायर का त्योहार बरसात की समाप्ति का भी सूचक माना जाता है. इस दिन भादो महीने का अंत होता है. भादो महीने के दौरान देवी-देवता डायनों से युद्ध लड़ने देवालयों से चले जाते हैं. वे सायर के दिन वापस अपने देवालयों में आ जाते हैं. इस दिन ग्रामीण क्षेत्रों के देवालयों में देवी-देवता के गुरु देव खेल के माध्यम से लोगों को देव-डायन युद्ध का हाल बताते हैं और यह भी बताते हैं कि इसमें किस पक्ष की विजय हुई है. वहीं बरसात के मौसम में किस घर के प्राणी पर बुरी आत्माओं का साया पड़ा है. देवता का गुरु इसके उपचार के बारे में भी बताता है. सायर के दिन ही नव दुल्हनें मायके से ससुराल लौट आती हैं. ऐसी मान्यता है कि भादों महीने के दौरान विवाह के पहले साल दुल्हन सास का मुंह नहीं देखती है. ऐसे में वह एक महीने के लिए अपने मायके चली जाती है.

सोलन: सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता और सहकारिता मंत्री डॉ. राजीव सैजल ने कहा कि हमारे देश में मेलों की प्राचीन परंपराएं हमारी समृद्ध संस्कृति की परिचायक हैं और इनका संवर्द्धन सभ्यता के क्रमिक विकास के लिए आवश्यक है. डॉ. सैजल सोलन जिला के अर्की उपमंडल में दो दिवसीय प्राचीन सायर उत्सव के शुभारंभ के अवसर पर उपस्थित जनसमूह को संबोधित कर रहे थे.

डॉ. सैजल ने कहा कि परंपराएं संस्कृति की पोषक हैं और संस्कृति मानव सभ्यता के लिए आवश्यक है. हमारी संस्कृति हम सभी को जहां प्राचीन से जोड़ती है. वहीं, नूतन के सृजन के लिए प्रेरित भी करती है. उन्होंने विशेष रूप से युवाओं का आह्वान किया कि अपनी समृद्ध संस्कृति और परंपराओं को जानें और इनके प्रचार प्रसार एवं संवर्द्धन में सहायक बनें.

Sawyer Fair
काली पूजन के साथ हुआ सायर मेले का आगाज

क्यों मनाया जाता है सैर या सायर का पर्व और क्या है इसका महत्व
हिमाचल प्रदेश अपनी समृद्ध संस्कृति, विभिन्न मेले, उत्सव और त्योहारों के लिए प्रसिद्ध है. ये सारे त्यौहार जहां हम सबको हमारे अपनों से जोड़े रखने का काम करते हैं, वहीं हिमाचली जनता के लिए एक रोजगार का काम भी कर रहे हैं. हिमाचल में यूं तो साल भर बहुत से त्योहार मनाए जाते हैं और लगभग हर महीने की सक्रांति यानि “सज्जी या साजा” को एक विशेष नाम से जाना जाता है और त्यौहार के तौर पर मनाया जाता है.

क्रमानुसार भारतीय देसी महीनों के बदलने और नए महीने के शुरू होने के प्रथम दिन को सक्रांति कहा जाता है. लगभग हर सक्रांति पर हिमाचल प्रदेश में कोई न कोई उत्सव मनाया जाता है जो कि हिमाचल प्रदेश की पहाड़ी संस्कृति का प्राचीन भारतीय सभ्यता या यूं कहें तो देसी कैलेंडर के साथ एकरसता का परिचायक है. 16 सितम्बर यानी अश्विन महीने की सक्रांति को कांगड़ा, मण्डी, हमीरपुर, बिलासपुर और सोलन सहित अन्य कुछ जिलो में सैर या सायर का त्योहार काफी धूमधाम से मनाया जाता है.

अश्विन महीने की सक्रांति को सैर उत्सव या सायर उत्सव
सैर उत्सव या सायर उत्सव भी इन्हीं त्योहारों में से एक है. सैर का त्योहार (सायर त्योहार )अश्विन महीने की सक्रांति को मनाई जाती है. वास्तव में यह त्योहार वर्षा ऋतु के खत्म होने और शरद ऋतु के आगाज के उपलक्ष्य में मनाया जाता है. इस समय खरीफ की फसलें पक जाती हैं और काटने का समय होता है, तो भगवान को धन्यवाद करने के लिए यह त्योहार मनाते हैं. सैर के बाद ही खरीफ की फसलों की कटाई की जाती है. इस दिन “सैरी माता” को फसलों का अंश और मौसमी फल चढ़ाए जाते हैं और साथ ही राखियां भी उतार कर सैरी माता को चढ़ाई जाती हैं.

ठंडे इलाकों में इसे सर्दी की शुरुआत माना जाता है और सर्दी की तैयारी शुरू हो जाती है. लोग सर्दियों के लिए अनाज और लकड़ियां जमा करके रख लेते हैं. सैर आते ही बहुत से त्यौहारों का आगाज़ हो जाता है. सैर के बाद दिवाली तक विभिन्न व्रत और त्योहार मनाए जाते हैं.

बरसात की समाप्ति, अन्न पूजा और पशुओं की खरीद फरोख्त
इस उत्सव को मनाने के पीछे एक धारणा यह है कि प्राचीन समय में बरसात के मौसम में लोग दवाइयां उपलब्ध न होने के कारण कई बीमारियों व प्राकृतिकआपदाओं का शिकार हो जाते थे और जो लोग बच जाते थे वे अपने आप को भाग्यशाली समझते थे तथा बरसात के बाद पड़ने वाले इस उत्सव को खुशी-खुशी मनाते थे. तब से लेकर आज तक इस उत्सव को बड़ी ही धूमधाम से मनाया जाता है. सायर का पर्व अनाज पूजा और बैलों की खरीद-फरोख्त के लिए मशहूर है. कृषि से जुड़ा यह पर्व ग्रामीण क्षेत्रों में ही नहीं, बल्कि शहरों में भी धूमधाम के साथ मनाया जाता है. बरसात के मौसम के बाद खेतों में फसलों के पकने और सर्दियों के लिए चारे की व्यवस्था किसान और पशु पालक सायर के त्योहार के बाद ही करते हैं.

देवालयों के खुलते हैं कपाट
सायर का त्योहार बरसात की समाप्ति का भी सूचक माना जाता है. इस दिन भादो महीने का अंत होता है. भादो महीने के दौरान देवी-देवता डायनों से युद्ध लड़ने देवालयों से चले जाते हैं. वे सायर के दिन वापस अपने देवालयों में आ जाते हैं. इस दिन ग्रामीण क्षेत्रों के देवालयों में देवी-देवता के गुरु देव खेल के माध्यम से लोगों को देव-डायन युद्ध का हाल बताते हैं और यह भी बताते हैं कि इसमें किस पक्ष की विजय हुई है. वहीं बरसात के मौसम में किस घर के प्राणी पर बुरी आत्माओं का साया पड़ा है. देवता का गुरु इसके उपचार के बारे में भी बताता है. सायर के दिन ही नव दुल्हनें मायके से ससुराल लौट आती हैं. ऐसी मान्यता है कि भादों महीने के दौरान विवाह के पहले साल दुल्हन सास का मुंह नहीं देखती है. ऐसे में वह एक महीने के लिए अपने मायके चली जाती है.

Intro:काली पूजन के साथ हुआ अर्की मे मनाया जाने वाला प्राचीन सायर मेले का आगाज

:-जल पूजन के साथ किया गया मेले का शुभारंभ
:-जिलास्तरीय मेले के रूप में आज भी रीति रिवाजों को संजोए है यह मेला
:-सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता तथा सहकारिता मंत्री डॉ. राजीव सैजल ने पूजन कर किया मेले का शुभारंभ

सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता तथा सहकारिता मंत्री डॉ. राजीव सैजल ने कहा कि हमारे देश में मेलों की प्राचीन परंपराएं हमारी समृद्ध संस्कृति की परिचायक हैं और इनका संवर्द्धन सभ्यता के क्रमिक विकास के लिए आवश्यक है। डॉ. सैजल आज सोलन जिला के अर्की उपमंडल में दो दिवसीय प्राचीन सायर उत्सव के शुभारंभ के अवसर पर उपस्थित जनसमूह को संबोधित कर रहे थे।

उन्होंने पारंपरिक विधि विधान एवं पूजन के साथ सायर उत्सव का शुभारंभ किया। उन्होंने प्राचीन काली मंदिर में पूजा-अर्चना की और सभी प्रदेशवासियों के सुख एवं समृद्धि की कामना की।

डॉ. सैजल ने कहा कि परंपराएं संस्कृति की पोषक हैं और संस्कृति मानव सभ्यता के लिए आवश्यक है। हमारी संस्कृति हम सभी को जहां प्राचीन से जोड़ती है वहीं नूतन के सृजन के लिए प्रेरित भी करती है। उन्होंने विशेष रूप से युवाओं का आह्वान किया कि अपनी समृद्ध संस्कृति और परंपराओं को जानें और इनके प्रचार प्रसार एवं संवर्द्धन में सहायक बनें।Body::-क्यों मनाया जाता है सैर या सायर का पर्व और क्या है इसका महत्व:
हिमाचल प्रदेश अपनी समृद्ध संस्कृति, विभिन्न मेले, उत्सव और त्यौहारों के लिए प्रसिद्ध है। ये सारे त्यौहार जहां हम सबको हमारे अपनों से जोड़े रखने का काम करते हैं, वहीं हिमाचली जनता के लिए एक रोजगार का काम भी कर रहे हैं। हिमाचल में यूं तो साल भर बहुत से त्यौहार मनाए जाते हैं और लगभग हर महीने की सक्रांति यानि “सज्जी या साजा” को एक विशेष नाम से जाना जाता है और त्यौहार के तौर पर मनाया जाता है। क्रमानुसार भारतीय देसी महीनों केबदलने और नए महीने के शुरू होने के प्रथम दिन को सक्रांति कहा जाता है।लगभग हर सक्रांति पर हिमाचल प्रदेश में कोई न कोई उत्सव मनाया जाता है जोकि हिमाचल प्रदेश की पहाड़ी संस्कृति का प्राचीन भारतीय सभ्यता या यूं कहें तो देसी कैलेंडर के साथ एकरसता का परिचायक है।

16 सितम्बर यानी अश्विन महीने की सक्रांति को काँगड़ा ,मण्डी ,हमीरपुर ,बिलासपुर और सोलन सहित अन्य कुछ जिलो में सैर या सायर का त्यौहार काफी धूमधाम से मनाया जाता है।


Conclusion:अश्विन महीने की सक्रांति को सैर उत्सव या सायर उत्सव:-
सैर उत्सव या सायर उत्सव भी इन्हीं त्यौहारों में से एक है। सैर का त्यौहार (सायर त्यौहार )अश्विन महीने की सक्रांति को मनाई जाती है। वास्तव में यह त्यौहार वर्षा ऋतु के खत्म होने और शरद् ऋतु के आगाज के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। इस समय खरीफ की फसलें पक जाती हैं और काटने का समय होता है, तो भगवान को धन्यवाद करने के लिए यह त्यौहार मनाते हैं। सैर के बाद ही खरीफ की फसलों की कटाई की जाती है। इस दिन “सैरी माता” को फसलों का अंश और मौसमी फल चढाए जाते हैं और साथ ही राखियाँ भी उतार कर सैरी माता को चढ़ाई जाती हैं।





ठंडे इलाकों में इसे सर्दी की शुरूआत माना जाता है और सर्दी की तैयारी शुरू हो जाती है। लोग सर्दियों के लिए अनाज और लकड़ियाँ जमा करके रख लेते हैं। सैर आते ही बहुत से त्यौहारों का आगाज़ हो जाता है। सैर के बाद दिवाली तक विभिन्न व्रत और त्यौहार मनाए जाते हैं।

बरसात की समाप्ति ,अन्न पुजा और पशुओ की खरीद फरोख्त :-
इस उत्सव को मनाने के पीछे एक धारणा यह है कि प्राचीन समय में बरसात के मौसम में लोग दवाईयां उपलब्ध न होने के कारण कई बीमारियों व प्राकृतिकआपदाओं का शिकार हो जाते थे तथा जो लोग बच जाते थे वे अपने आप को भाग्यशाली समझते थे तथा बरसात के बाद पड़ने वाले इस उत्सव को ख़ुशी ख़ुशीमनाते थे। तब से लेकर आज तक इस उत्सव को बड़ी ही धूमधाम से मनाया जाता है।सायर का पर्व अनाज पूजा और बैलों की खरीद-फरोख्त के लिए मशहूर है। कृषि से जुड़ा यह पर्व ग्रामीण क्षेत्रों में ही नहीं, बल्कि शहरों में भी धूमधाम के साथ मनाया जाता है। बरसात के मौसम के बाद खेतों में फसलों के पकने और सर्दियों के लिए चारे की व्यवस्था किसान और पशु पालक सायर के त्योहार के बाद ही करते हैं।

देवालयों के खुलते हैं कपाट :
सायर का त्योहार बरसात की समाप्ति का भी सूचक माना जाता है। इस दिन भादों महीने का अंत होता है। भादों महीने के दौरान देवी-देवता डायनों से युद्ध लड़ने देवालयों से चले जाते हैं। वे सायर के दिन वापस अपने देवालयों में आ जाते हैं। इस दिन ग्रामीण क्षेत्रों के देवालयों में देवी-देवता के गूर देव खेल के माध्यम से लोगों को देव-डायन युद्ध का हाल बताते हैं और यह भी बताते हैं कि इसमें किस पक्ष की विजय हुई है। वहीं बरसात के मौसम में किस घर के प्राणी पर बुरी आत्माओं का साया पड़ा है। देवता का गूर इसके उपचार के बारे में भी बताता है। सायर के दिन ही नव दुल्हनें मायके से ससुराल लौट आती हैं। ऐसी मान्यता है कि भादों महीने के दौरान विवाह के पहले साल दुल्हन सास का मुंह नहीं देखती है। ऐसे में वह एक महीने के लिए अपने मायके चली जाती है।
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