सोलन: हिमाचल प्रदेश सेब उत्पादक राज्य के नाम से देश-विदेशों में जाना जाता है और यहां विभिन्न किस्मों के सेब की पैदावार होती है. डॉ. यशवंत सिंह परमार औदयानिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय, नौणी के शिमला में स्थित क्षेत्रीय बागवानी अनुसंधान एवं प्रशिक्षण केंद्र में सेब की नवीनतम किस्में विकसित करने पर शोध कार्य किया जा रहा है. बताया जा रहा है कि अनुसंधान केंद्र द्वारा डिलीशियस किस्मों में होने वाले कलिका उत्परिवर्त(बड म्यूटेशन) पर शोध कार्य चल रहा है तथा किस्मों की फल गुणवत्ता में होने वाली विविधता पर गहन अध्ययन किया जा रहा है.दरअसल, पिछले कुछ वर्षों से किए जा रहे प्रयासों से केंद्र में कुछ ऐसी स्थाई परिवर्तन से तैयार की गई किस्मों के परीक्षण से शुरुआती दौर में वैज्ञानिकों को उत्साहजनक परिणाम प्राप्त हुए है. केंद्र द्वारा प्राकृतिक उत्परिवर्तन से चयनित एक स्थायी अर्ली कलरिंग स्ट्रेन का विकास किया जा रहा है. जिसे वांस डिलीशियस नामक किस्म से चयनित किया गया है.
क्या है विशेषता: मशोबरा केंद्र के सह निदेशक डॉ. दिनेश ठाकुर, जो इस शोध परियोजना के टीम लीडर भी है उन्होंने बताया कि इस चयनित स्ट्रेन की विशेषता यह है की इसे 35 वर्ष की आयु वाले वांस डिलीशियस नामक सेब की मशहूर किस्म से चयनित किया गया है, जो की समुद्रतल से 1800 मीटर से अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों में लगाई जाती है. अपनी मदर वैरायटी वांस डिलीशियस किस्म की तुलना में इस नई स्ट्रेन की विशेषता यह है की इसके फल लगभग दो माह पहले ही पूर्ण रूप से एकसमान गहरा लाल रंग विकसित हो जाता है, जबकि उसकी मदर किस्म की सतह पर धारदार रंग विकसित होता है.
विश्वविद्यालय के निदेशक अनुसंधान डॉ. संजीव चौहान ने बताया कि इस किस्म के व्यावसायिक बागवानी में सफल होने की उम्मीद है, क्योंकि इस किस्म का चयन पहले से शीतोष्ण जलवायु में अनुकूलित किस्म से किया गया है अतः विकसित की जा रही इस नई किस्म में वातावरण बदलाव को सहन करने की भी क्षमता होगी. वहीं, कुलपति प्रो राजेश्वर सिंह चंदेल ने बताया कि तीन वर्षों तक कली में इस लक्षण की पुनरावृत्ति को देखने के बाद, इस बड को अलग कर दिया गया और वर्ष 2020 के दौरान पहले से ही स्थापित एम 9 रूट स्टॉक पर टॉप ग्राफ्ट किया गया और 2021-22 के दौरान इसमें गहरे लाल रंग के फल लगे.
राजेश्वर सिंह चंदेल ने बताया कि इसके प्रदर्शन का परीक्षण करने के लिए वैरायटी मूल्यांकन ट्रायल शुरू कर दिये गए हैं और वैज्ञानिक बहु-स्थानीय परीक्षण को कुल 4-5 साल का समय लगेगा. पुरानी किस्मों में समय के अनुसार क्लोनल डिजनरेशन की समस्या हो जाती है, जिससे उसकी गुणवत्ता पहले जैसी नहीं रह पाती. इसलिए नई किस्मों पर शोध की लगातार आवश्यकता रहती है.
बता दें कि शिमला में स्थित क्षेत्रीय बागवानी अनुसंधान एवं प्रशिक्षण केंद्र, मशोबरा में सन 1960 के दशक में सेब की किस्में में प्रजनन कार्यक्रम शुरू किया गया था, जिसके परिणामस्वरूप अम्बरिच अम्बरेड अम्बरॉयल और अम्बस्टारकिंग किस्मों को विकसित किया गया था. इसके उपरांत वर्ष 2017 से पुनः सेब की स्वदेशी किस्में विकसित करने के लिए शोध कार्यक्रम शुरू किया गया है.