पांवटा साहिब: हिमाचल परंपराओं और त्योहारों की भूमि हैं. यहां हर रोज किसी न किसी क्षेत्र में कोई न कोई त्योहार मनाया ही जाता है. सिरमौर में एक ऐसा त्योहार मनाया जाता है जब एक ही दिन में 40 हजार से अधिक बकरों की बलि मां काली को खुश करने के लिए दी जाती है. इसे माघी त्योहार के नाम से जाना जाता है.
माघी त्योहार में भाई अपनी बहन को आटा, चावल और गुड़ शगुन भी देता है. माघी के दौरान घर में पकवान बनाए जाते हैं, जिसे 'बोशता' कहते हैं, कुछ इलाकों में इसे 'भातियोज' भी कहा जाता है. आस्था से जुड़ा पौष माह के आखिर में शुरू होने वाला यह पारंपरिक त्योहार पूरे माघ महीने में मनाया जाता है.
माना जाता है कि राक्षसों का वध करने के लिए देवी काली को हर परिवार से एक बलि देनी पड़ती थी. पौराणिक समय से चली आ रही ये परंम्परा आज भी बरकरार है. सबसे पहले बकरे पर पानी की कुछ बूंदें फेंकी जाती हैं, जब तक बकरा अपना शरीर नहीं हिलाता है तब तक उसके सामने अरदास की जाती है.
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माना जाता है कि अगर बकरे ने अपना शरीर हिला दिया तो काली माता ने उसकी बलि स्वीकार कर दी. मान्यता है कि अगर देवी काली को बलि नहीं दी जाती तो गांव के लोगों पर बुरी शक्तियों का सांया मंडराता रहता है. आज भी गांव के सभी लोग पैसे इकट्ठा कर बकरे खरीदते हैं. इसके बाद बकरे को घर में अपना निवाला देकर पाला जाता है और 1 साल के बाद उसकी बलि दी जाती है.
हालांकि कुछ लोग इस बलि प्रथा की निंदा भी करते हैं. पशुओं को क्रुरता से बचाने उनका मांस न खाने के लिए पेटा जैसी संस्थाएं काम कर रही हैं. कोर्ट ने भी बलि प्रथा पर रोक लगाई है. पुराने दौर में इस पंरपरा के पीछे परिस्थितियां कैसी भी रही हों लेकिन आज के इस बदलते दौर में बलि प्रथा जैसी परंपराओं में कुछ परिवर्तन होना जरूरी है. आस्था और श्रद्धा के नाम पर जानवरों की बलि को कौन जायजा ठहरा सकता है.
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