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क्या आपने भी खाया है सिरमौर का 'मूड़ा'? इस खास व्यजंन को बनाने में लगता है 1 महीना

बूढ़ी दिवाली में मूड़ा सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया जाता है. बता दें इसे बनाने के लिए महिलाओं को एक महीना लग जाता है. हर गांव में मूड़े का स्वाद अलग अलग मिलेगा. महिलाएं कड़ी मशक्कत के बाद मूड़े को बनाती हैं, ताकि खाने वालों को भी स्वाद आ सके.

क्या आपने भी खाया है सिरमौर का 'मूड़ा'?
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Published : Nov 24, 2019, 2:00 PM IST

सिरमौर: देवभूमि हिमाचल के पहाड़ी क्षेत्रों में बूढ़ी दिवाली की धूम शुरू हो चुकी है. महिलाएं बूढ़ी दिवाली में इस्तेमाल होने वाले पहाड़ी पारंपरिक पौष्टिक आहार को बनाने में जुट चुकी हैं.

इन दिनों जिला सिरमौर के पहाड़ी क्षेत्र की महिलाएं मूड़ा शाकुली, बिडोली चिवलो आदि बूढ़ी दिवाली में सबसे ज्यादा बनाए जाते हैं. बूढ़ी दिवाली में मूड़ा सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया जाता है. बता दें इसे बनाने के लिए महिलाओं को महीना लग जाता है.

वीडियो.

शिलाई क्षेत्र की बात की जाए तो हर गांव में मूड़े का स्वाद अलग अलग मिलेगा. महिलाएं कड़ी मशक्कत के बाद मूड़ा को बनाती हैं, ताकि खाने वालों को भी स्वाद आ सके. हर गांव में अपने अपने रीति-रिवाजों के साथ बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है.

बता दें कि पहाड़ी क्षेत्रों में बूढ़ी दिवाली बड़ी धूमधाम से मनाई जाती है. शहरों में जहां दिवाली के शुभ अवसर पर एक दूसरे को मिठाइयां बांटी जाती हैं पटाखे फोड़े जाते हैं. वहीं, पहाड़ों में मशाल निकालकर पहाड़ी स्वादिष्ट व्यंजनों को एक दूसरे को खिलाकर बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है.

कैसे बनाया जाता है मूड़ा

मूड़ा बनाने के लिए गांव की महिलाएं इकट्ठी होकर पहले गेहूं को धोती है फिर धोने के बाद गर्म पानी में घंटों तक उबाला जाता है जब तक कि चावल की तरह पक ना जाए. पकी हुई गेहूं को धूप 10 से 15 दिनों तक सुखाया जाता है, ताकि गेहूं के दाने सख्त हो सकें उसके बाद फिर उन्हें कढ़ाई में भूना जाता है. जिसके बाद ये खास व्यजंन तैयार होता है.

लोगों का कहना है कि बूढ़ी दिवाली के समय सभी लोग हमारे हमारे गांव में पहुंचते हैं हमारे पहाड़ी कल्चर का भरपूर आनंद उठाते हैं. आज भी यहां के लोगों ने पहाड़ी संस्कृति को जिंदा रखा है.

ये भी पढ़ें- TGT सरप्लस शिक्षकों पर लागू होंगे पीटीआर नियम, स्कूलों में छात्रों की संख्या के आधार पर दी जाएगी नियुक्ति

सिरमौर: देवभूमि हिमाचल के पहाड़ी क्षेत्रों में बूढ़ी दिवाली की धूम शुरू हो चुकी है. महिलाएं बूढ़ी दिवाली में इस्तेमाल होने वाले पहाड़ी पारंपरिक पौष्टिक आहार को बनाने में जुट चुकी हैं.

इन दिनों जिला सिरमौर के पहाड़ी क्षेत्र की महिलाएं मूड़ा शाकुली, बिडोली चिवलो आदि बूढ़ी दिवाली में सबसे ज्यादा बनाए जाते हैं. बूढ़ी दिवाली में मूड़ा सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया जाता है. बता दें इसे बनाने के लिए महिलाओं को महीना लग जाता है.

वीडियो.

शिलाई क्षेत्र की बात की जाए तो हर गांव में मूड़े का स्वाद अलग अलग मिलेगा. महिलाएं कड़ी मशक्कत के बाद मूड़ा को बनाती हैं, ताकि खाने वालों को भी स्वाद आ सके. हर गांव में अपने अपने रीति-रिवाजों के साथ बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है.

बता दें कि पहाड़ी क्षेत्रों में बूढ़ी दिवाली बड़ी धूमधाम से मनाई जाती है. शहरों में जहां दिवाली के शुभ अवसर पर एक दूसरे को मिठाइयां बांटी जाती हैं पटाखे फोड़े जाते हैं. वहीं, पहाड़ों में मशाल निकालकर पहाड़ी स्वादिष्ट व्यंजनों को एक दूसरे को खिलाकर बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है.

कैसे बनाया जाता है मूड़ा

मूड़ा बनाने के लिए गांव की महिलाएं इकट्ठी होकर पहले गेहूं को धोती है फिर धोने के बाद गर्म पानी में घंटों तक उबाला जाता है जब तक कि चावल की तरह पक ना जाए. पकी हुई गेहूं को धूप 10 से 15 दिनों तक सुखाया जाता है, ताकि गेहूं के दाने सख्त हो सकें उसके बाद फिर उन्हें कढ़ाई में भूना जाता है. जिसके बाद ये खास व्यजंन तैयार होता है.

लोगों का कहना है कि बूढ़ी दिवाली के समय सभी लोग हमारे हमारे गांव में पहुंचते हैं हमारे पहाड़ी कल्चर का भरपूर आनंद उठाते हैं. आज भी यहां के लोगों ने पहाड़ी संस्कृति को जिंदा रखा है.

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Intro:ट्रांसगिरी क्षेत्र मैं बूढ़े की धूम 28 से शुरू
महिलाएं पहाड़ी व्यंजनों के कार्यों में जुटे
बूढ़ी दिवाली में सबसे ज्यादा फेमस होता है मुड़ा
आज भी पहाड़ी कल्चर को संजोए बैठे हैं ट्रांसगिरी के युवाBody:
देवभूमि हिमाचल के पहाड़ी क्षेत्रों में बूढ़ी दिवाली की धूम शुरू महिलाएं बूढ़ी दीपावली में इस्तेमाल होने वाले पहाड़ी पारंपरिक पोस्टिक आहार को बनाने में जुटी इन दिनों जिला सिरमौर के पहाड़ी क्षेत्र की महिलाएं मुड़ा शाकुली बिडोली चिवलो आदि बूढ़ी दिवाली में सबसे ज्यादा बनाए जाते हैं पहाड़ी स्वादिष्ट आहार बहुत इस्तेमाल किया जाता है बूढ़ी दिवाली में मुड़ा सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया जाता है जिसे बनाने के लिए महिलाओं को महीना लग जाता है शिलाई क्षेत्र की बात की जाए तो हर गांव में मुड़े का स्वाद अलग अलग मिलेगा महिलाएं कड़ी मशक्कत के बाद मुड़ा को बनाते हैं ताकि खाने वालों को भी स्वाद आ सके हर गांव में अपने अपने रीति-रिवाजों के साथ बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है बता देंगे पहाड़ी क्षेत्रों में बूढ़े दिवाली बड़ी धूमधाम से मनाई जाती हैं शहरों में जहां दिवाली के शुभ अवसर पर एक दूसरे को मिठाइयां बांटी जाती है वह पटाखे फोड़े जाते हैं वहीं पहाड़ों में मशाल निकालकर पहाड़ी स्वादिष्ट व्यंजनों को एक दूसरे को खिलाकर बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है ताकि पर्यावरण भी दूषित ना हो बूढ़ी दिवाली आपसी भाईचारे को भी बढ़ावा देती है बूढ़ी दिवाली में सभी लोग अपने अपने गांव में पहुंचते हैं

मुड़ा बनाते कैसे हैं

बूढ़ी दिवाली में सबसे ज्यादा इस्तेमाल होने वाला मुड़ा जहां शहर में दिवाली में मिठाइयों का प्रयोग करते हैं वहीं ग्रामीण सबसे ज्यादा मुड़े का इस्तेमाल करते हैं मुड़ा बनाने के लिए गांव की महिलाएं इकट्ठे होकर पहले गेहूं को धोया जाता है फिर धोने के बाद गर्म पानी में घंटों तक उबाला जाता है जब तक कि चावल की तरह पक ना जाय पके हुए गेहूं को धूप 10 से 15 दिनों तक झुकाया जाता है ताकि गेहूं के दाने सख्त हो सके उसके बाद फिर उन्हें कढ़ाई में भूना जाता है मुड़े का स्वाद जब एक बार कोई चक लेता है तो बार-बार पूरा खाते रहते हैं लोगों का तो मानना यह भी है कि भरपेट खाना खाने के बावजूद भी लोग एक थाली मुड़े की खा लेते हैं।
गांव की महिलाओं ने मुड़ा बनाना शुरू कर दिया है इसके अलावा शाकुली अस्कोली आदि पोस्टिक पहाड़ी व्यंजन बनाए जा रहे हैं

बाइट खटरी सिंह ग्रामीण

बड़ी दिवाली के दिन पहाड़ी क्षेत्रों में सभी प्रकार का कल्चर प्रकाशित किया जाता है दूरदराज इलाकों से लोग बूढ़ी दिवाली की धूम देखने के लिए आते हैं पहाड़ी नाटक पहाड़ी डांस थोड़ा नृत्य इत्यादि लगातार चार-पांच दिन ट्रांस गिरी के इलाकों में किए जाते हैं क्षेत्र कि लोगों ने बताया कि जिन स्थानों पर नई दिवाली की होती है बूढ़ी दिवाली के समय सभी लोग हमारे हमारे गांव में पहुंचते हैं हमारे पहाड़ी कल्चर का भरपूर आनंद उठाते हैं आज भी यहां के लोग ने पहाड़ी संस्कृति को जिंदा रखा है बुजुर्गों द्वारा हर प्रकार की कल्चर या खानपान आज भी इन इलाकों में किए जा रहे हैं ताकि बुजुर्गों द्वारा किए गए आयोजन सही ढंग से चलते रहे।

बाइट क्षेत्रवासी संदीप रमेशConclusion:
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