पच्छाद/सिरमौर: जैसे एक कारीगर एक मूर्ति को तराशता है वैसे ही पच्छाद विधानसभा क्षेत्र के तहत चरावग गांव का शर्मा परिवार पत्थर के पात्र (Stone vessels in Sirmaur) बनाता है. प्रेमदत्त शर्मा और उनका परिवार पिछले करीब 3 दशक से पत्थरों को पात्रों में ढाल रहा है. सांचे में ढले ये पात्र लोक व्यंजन बनाने के काम आते हैं. ये परिवार पहाड़ों की चट्टानों से पत्थरों को तराशकर जहां एक ओर अपनी आर्थिकी को सुदृढ़ करने में लगा हुआ है, तो दूसरी ओर प्रदेश की समृद्ध पहाड़ी व्यंजनों (stone vessels for cooking) की संस्कृति को भी सरंक्षण के साथ-साथ लोकप्रिय बनाने में जुटा हुआ है.
चरावग गांव निवासी प्रेमदत्त शर्मा लगभग पिछले 30-32 वर्षों से पत्थरों को तराशकर पहाड़ी खानों के लिए असकलू, लूसके आदि बनाने के पात्र बना रहे हैं. इनमें हिमाचल के विशेष पहाड़ी व्यंजन असकलू बनाए जाते हैं, जोकि शादी समारोहों सहित अन्य तीज त्योहारों के दौरान खास तौर पर बनाया जाता है.
पत्थर के पात्र बनाने की कला: प्रेम दत्त शर्मा ने बताया कि पात्र बनाने के लिए पहले पत्थर छांटकर लाए जाते हैं. उसके बाद इन्हें तराश जाता है और पात्र का रूप दिया जाता है. एक पत्थर को छांटने से लेकर उसे पात्र या सांचे में ढालने तक कड़ी मेहनत लगती है. इसके अलावा एक पत्थर को तराशकर पात्र में ढालना किसी पत्थर को मूरत में ढालने जैसा ही है. जिसमें वक्त और मेहनत दोनों लगती है.
इतने में बिकता है एक पात्र: आज उनकी इस कला को (stone vessels for pahari Cuisine) उनके दोनों पुत्र बखूबी आगे बढ़ा रहे हैं. प्रेम दत्त के बेटे पवन शर्मा ने बताया कि यह उनका पुश्तैनी कार्य है और वो लोग इस परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं. इसके लिए एक खास चट्टान का पत्थर चाहिए होता है. सबसे पहले पहाड़ों से पत्थर लाए जाते हैं. फिर उनको पानी में भिगोकर मुलायम किया जाता है. जिसके बाद पत्थर को तराशकर पहाड़ी व्यंजन बनाने के लिए यह पात्र बनाए जाते हैं. उन्होंने कहा कि इन पात्रों को अच्छे से सजाकर 200 से 250 रुपए प्रति पात्र तक बेचा जाता है.
कला को जीवित रखने की मांग: प्रेमदत्त शर्मा ने पत्थरों के पात्र तराशने की कला अब अपने बेटों को सौंपी हैं. उनके दोनों बेटे पवन शर्मा और दिनेश शर्मा भी अपने पुश्तैनी व्यापार को आगे बढ़ाने में जुटे हुए हैं और अच्छी आमदनी भी कमा रहे हैं. इनके बनाए गए पत्थर के पात्र न केवल सिरमौर बल्कि दूसरे जिलों में भी इनकी मांग रहती हैं. शर्मा परिवार ने सरकार से भी उनकी सहायता करने की मांग उठाई है, ताकि पत्थर को तराशकर पात्र बनाने की कला आगे भी जीवित रह सके.
स्वाद के साथ सेहत के लिए भी गुणकारी: वहीं, ईटीवी भारत ने जब जिला के वरिष्ठ आयुर्वेदिक चिकित्सक डॉ. प्रमोद पारिक से इस बारे बातचीत की तो उन्होंने बताया कि आयुर्वेद में भोजन बनाने और भोजन करने के पात्रों के संबंध में कई जानकारियां दी गई हैं. उन्होंने कहा कि विभिन्न धातुओं से बने पात्रों के अपने-अपने गुण होते हैं. पहाड़ी क्षेत्रों में पारंपरिक भोजन (Traditional food of Himachal) बनाने के लिए अलग-अलग पात्रों का प्रयोग होता रहा है, उनमें से एक पत्थरों से बने पात्र भी हैं.
डॉ. प्रमोद पारिक ने कहा कि सीमेंट या किसी केमिकल के इस्तेमाल से बने पात्रों में भोजन बनाना या खाना सेहत को नुकसान पहुंचा सकता है. जिले में तैयार होने वाले पात्रों में भोजन धीमी गति से तैयार होता है और ये न केवल स्वास्थ्य, बल्कि स्वाद में भी बेहतर होता (Benefits of stone vessels) है. कुल मिलाकर आधुनिकता के इस दौर में आज भी सिरमौर का शर्मा परिवार जहां पारंपरिक कला को संजोए रखने का कार्य कर रहा है, तो वहीं आत्मनिर्भरता का एक संदेश भी दे रहा है. शर्मा परिवार ने इस कला को आधुनिक करने का भी कार्य किया है और यहां पर गैस पर इस्तेमाल किए जाने वाले पत्र भी तैयार किए जाते हैं, ताकि लोग इन्हें आसानी ने घर पर इस्तेमाल कर सकें.