सिरमौर: गिरीपार क्षेत्र के तीन विधानसभा क्षेत्रों शिलाई, रेणुका और पच्छाद की करीब 125 पंचायतों में 28 गते पौष यानि 11 जनवरी को एक ऐसा पारंपरिक पर्व मनाया जाता है जिसका नाम ही त्योहार है मगर समय के साथ पर्व का नाम माघी पड़ गया.
मगर इसका पौराणिक नाम माघी नहीं बल्कि त्योहार ही है. इसे विक्रमी संवत्सर के हिसाब से पौष महीने के 28 गते को मनाया जाता है. ये त्योहार इस क्षेत्र का सबसे बड़ा त्योहार माना जाता है और शायद सबसे खर्चीला पर्व भी यही है.
त्योहार मनाने की परंपरा
त्योहार को मनाने की परंपरा कब से शुरू हुई इस बारे में कोई लिखित या ठोस प्रमाण नहीं है मगर अलग-अलग लोगों का इस बारे में अलग-अलग मत है. कुछ लोगों का मानना है कि प्राचीन काल में लोगों ने राक्षसों से बचने के लिए काली माता को खुश करने के लिए बकरा काटने की पंरपरा शुरू की.
माघी त्योहार में हजारों बकरों की चढ़ती बलि
इस त्योहार में यहां हजारों बकरों का बलिदान दिया जाता है. जिला के इस क्षेत्र में करीब 500 के आस-पास छोटे बड़े गांव हैं और हर गांव के हर घर में एक बकरा अवश्य कटता है. साधन संपन्न परिवार दो से तीन बकरे एक साथ काटते हैं.
![बाहरी राज्यों से मंगवाए जाते बकरे](https://etvbharatimages.akamaized.net/etvbharat/prod-images/10040_09012021100651_0901f_1610167011_695.jpg)
बकरों पर खर्च होते करोड़ों रुपये
एक अनुमान के अनुसार इस पर्व में करीब 10 से 20 हजार बकरे कटते हैं. एक बकरे का मूल्य 20 से 30 हजार के बीच में होता है. ऐसे में त्योहार को मनाने के लिए लोग करोड़ों रुपये खर्च करते हैं. ये पर्व तीन दिनों तक चलता है, जिसे स्थानीय भाषा में खडियांटी, डिमलांटी, उतरांटी व अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है.
मांसाहारी दावतों का चलता दौर
मकर संक्रांति के दिन को छोड़ कर यहां पूरे महीने मांसाहारी दावतों का दौर चलता है. सर्दियों में खेती का काम कम होता है. ऐसे में लोग मौज मस्ती व मेहमानबाजी में अपना समय बिताते हैं. मांसाहारी दावतों के साथ यहां महीने भर मदिरा सेवन भी होता है. रात के समय मंनोरंजन के लिए विशेष पारंपरिक सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होता है जिसमें नाटी ,रासा, हार, हारूल, गीह, करियाला प्रमुख हैं.
![बकरा खरीद कर ले जाते लोग](https://etvbharatimages.akamaized.net/etvbharat/prod-images/10040_09012021100651_0901f_1610167011_950.jpg)
इसके अलावा मांसाहारी पारंपरिक व्यजनों मे सीडो, लूऊपला, पोटी, खोबले, डोली, राड, सालना शामिल है. इतना ही नहीं यहां शाकाहारी मेहमानों का भी पूरा इंतजाम होता है. शाकाहारी पारंपरिक व्यजनों मे असकली, लुश्के, मालपुडे, सिडकू, शाकुली, पटाडे बनाए जाते हैं यानि जो लोग शाकाहारी होते हैं उनके लिए अलग से पारंपरिक व्यजन बनाये जाते हैं.
गिरिपार के तहत आने वाले सिरमौर जिला के रेणूका, शिलाई, व राजगढ़ मे हालांकि 95 फीसदी के करीब किसान परिवार पशु पालते हैं मगर फिर भी यहां इस पर्व के लिए बकरों की जितनी मांग रहती है वह पूरी नहीं हो पाती. गिरिपार अथवा ग्रेटर सिरमौर में इन दिनों लोकल बकरों की कमी के चलते क्षेत्रवासी देश की बड़ी मंडियों से बकरे खरीदते हैं.
बाहरी राज्यों से लाए जाते बकरे
क्षेत्र में मीट का कारोबार करने वाले व्यापारी इन दिनों राजस्थान, सहारनपुर, नोएडा व देहरादून आदि मंडियों से क्षेत्र में बड़े-बड़े बकरे उपलब्ध करवा रहे हैं. पिक-अप जैसे छोटे वाहनों में बकरे विक्रेता गांव-गांव जाकर जिंदा बकरे उपलब्ध करवाते हैं. पिछले कुछ वर्षों मे इलाके के दर्जनों गांव में लोग बकरे काटने की परंपरा छोड़ चुके हैं.
शाकाहारी परिवारों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है. इसके बावजूद माघी त्योहार में हर घर में बकरा काटने की परंपरा अब भी 90 फीसदी गांव में कायम है. ग्रेटर सिरमौर की 125 के करीब पंचायतों में साल के सबसे शाही व खर्चीले कहे जाने वाले इस त्योहार के दौरान हर पंचायत में औसतन करीब 325 बकरे कटते हैं.
11 जनवरी से शुरू होने वाले इस त्योहार को खड़ीआंटी अथवा अस्कांटी, डिमलांटी, उतरान्टी अथवा होथका व साजा आदि नामों से चार दिन तक मनाया जाता है. क्षेत्र के विभिन्न स्वयंसेवी संगठनों के सर्वेक्षण के मुताबिक गिरीपार में लोहड़ी के दौरान मनाए जाने वाले माघी त्यौहार पर हर वर्ष करीब 40 हजार बकरे कटते हैं और एक बकरे की औसत कीमत 15,000 रुपये रखे जाने पर इस त्योहार के दौरान यहां करीब 60 करोड़ रुपये के बकरे कटेंगे. क्षेत्र से संबंध रखने वाले उच्च पदों पर कार्यरत प्रशासनिक अधिकारियों राजनेताओं, डॉक्टरों, पत्रकारों, व्यापारियों प्रतिष्ठित लोगों में से भी अधिकतर के घरों मे बकरे कटते हैं.
महंगे बकरे खरीदने में अक्षम व अपनी बकरियां न पालने वाले कुछ लोग मीट की दुकानों से ताजा मीट ला कर इस पर्व को मनाते हैं. क्षेत्र के कुछ सुधारवादी लोगों समाज सेवी संस्थाएं इस परंपरा को समाप्त करने की कोशिश बीते दो दशकों से कर रही हैं, मगर अधिकतर लोग जिला के इस ठंडे इलाके में सर्दियों में मीट खाना स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होने का तर्क देकर इसे बंद करने के पक्ष में नहीं हैं.
साल के सबसे बडे़ व खर्चीले कहलाने वाले माघी त्योहार के बाद पूरे माघ मास अथवा फरवरी के मध्य तक क्षेत्र में मेहमान नवाजी का दौर चलता है. इस दौरान मांसाहारी लोगों को जहां डोली, खोबले, राढ़ मीट, सालना व सिड़कू आदि पारंपरिक सिरमौरी व्यंजन परोसे जाते हैं.
वहीं, शाकाहारी मेहमानों के लिए धोरोटी, मूड़ा, पूड़े, पटांडे, सीड़ो व तेलपाकी घी के साथ खाए जाने वाले पकवान बनाए जाते हैं. यहां क्षेत्र में कुछ लोगों का मानना है कि बकरे काटने की इस पंरपरा को आज के इस आधुनिक समय में पूरी तरह से बंद कर देना चाहिये. वैसे भी हमें अपने मंनोरंजन के लिए किसी बेजुबान पशु की जान लेने का कोई अधिकार नहीं है और इस पर्व को मनाने के लिए कोई सस्ता विकल्प खोजा जाना चाहिये, जिसमे पूर्ण रूप से सात्विक तरीके से इस पर्व को मनाया जा सके. इससे जहां लोगो के धन की बचत होगी. वहीं, हजारों बेजुबान बकरों की जान भी बच जाएगी.