शिमला: नोबल पुरस्कार विजेता आंग सान सू की और उनका देश एक बार फिर से विश्वव्यापी चर्चा में है. वर्ष 2015 में सू ने म्यांमार को बड़ी मुश्किल से फौजी बूटों की धमक से मुक्त करवाया था. नियति का चक्र देखिए कि म्यांमार अब फिर से तख्तापलट का शिकार हो गया है. सू की को फौजी शासन ने हिरासत में लेकर फिर से जेल में डाल दिया है. इस तरह नोबल विजेता और लोकतंत्र की प्रहरी आंग सान सू की के नोबल प्रयासों को धक्का लगा है. जिस समय उनके देश में फौज राज कर रही थी, सू की शिमला में संघर्ष के दिन बिता रही थीं.
शिमल रहते हुए लिखी थी ये किताब
कह सकते हैं कि म्यांमार को लोकतंत्र की राह दिखाने वाली सू की का शिमला से गहरा नाता रहा है. सू की के व्यक्तित्व में लोकतंत्र के संस्कार गहरे करने में शिमला की भूमिका रही है. यहां रहते हुए उन्होंने किताब भी लिखी थी.
दरअसल, आंग सान सू की शिमला स्थित भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान में फैलो रही हैं. संस्थान में फैलोशिप के दौरान उन्होंने अपनी चर्चित पुस्तक-बर्मा एंड इंडिया: सम आस्पेकट्स ऑफ इंटेलेक्चुअल लाइफ अंडर कोलोनियललिज्म पूरी की. इसका पहला संस्करण वर्ष 1989 में प्रकाशित हुआ. सू की द्वारा लिखी गई इस किताब की इतनी मांग हुई कि इसका दूसरा संस्करण छापना पड़ा.
2012 में छपा किताब का दूसरा संस्करण
वर्ष 2012 में दिल्ली में नेहरू जयंती पर किताब का दूसरा संस्करण छप कर आया. लोकार्पण समारोह के वक्त उन्होंने अपने भाषण में करीब पांच मिनट तक शिमला का जिक्र किया और कहा-द बेस्ट पार्ट ऑफ माई लाइफ वाज द टाइम विच आई स्पेंट इन शिमला. सू की शिमला भी आना चाहती थीं, लेकिन अपने देश में लोकतंत्र की बहाली के लिए वे संघर्ष कर रही थीं. वर्ष 2015 में उनका संघर्ष रंग जरूर लाया, परंतु उसे नई सदी के नए साल में फिर से ग्रहण लग गया.
सू की के शिमला प्रवास और उनकी किताब के दूसरे संस्करण से जुड़े संस्मरण सांझा करते हुए संस्थान के पूर्व जनसंपर्क अधिकारी अशोक शर्मा बताते हैं कि सू की संस्थान के वातावरण और यहां शिमला में मिली आत्मीयता को हमेशा सम्मान देती थीं. अशोक शर्मा के मुताबिक सू की फरवरी 1987 से लेकर अगस्त 1987 तक यहां अध्येता रहीं. उनके पति माइकल एरिस भी यहां फैलो रहे हैं. तब भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान के निदेशक मार्गरेट चटर्जी थे.
1987 में सू की शिमला आई
दरअसल, सू की वर्ष 1986 में जापान में अध्ययन कर रही थीं. उनके पति माइकल एरिस यहां फैलो थे. उनकी फैलोशिप ढाई साल की थी, लेकिन सू की छह महीने तक ही यहां फैलो रहीं. उनका आवेदन आने के बाद सरकार से अनुमति मिलने में भी काफी समय लगा. अंत में फरवरी 1987 में सू की शिमला आ गई.
शिमला प्रवास के दौरान सू की ने भारत और यहां के लोकतंत्र को गहराई से आत्मसात किया था. यहां की धरती और वातावरण ने उनके मन में लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति संघर्ष का जज्बा और गहरा किया था. संस्थान में रहते हुए उनकी पुस्तक पूरी हुई. संस्थान के ही पब्लिकेशन ने उनकी पुस्तक को प्रकाशित किया था.
इसी पुस्तक के दूसरे संस्करण का विमोचन 14 नवंबर 2012 को दिल्ली में हुआ था. सू की उसी समय नजरबंदी से भी रिहा हुई थीं. संस्थान में उनके अध्ययन में सहायता करने वाले अशोक शर्मा के अनुसार ये दुखद: बात है कि लोकतंत्र की हिमायती सू की का देश फिर से फौजी शासन झेलने के लिए अभिशप्त हुआ है.
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