शिमला: पचास हजार करोड़ रुपए से भी अधिक कर्ज के बोझ तले डूबे हिमाचल प्रदेश में हाल ही में माननीयों का यात्रा भत्ता बढ़ाया गया है. उसके बाद से पूरे प्रदेश में एक बहस चल पड़ी है कि क्या जनसेवकों को इतने भारी-भरकम भत्ते दिए जाने चाहिए या नहीं.
हिमाचल विधानसभा के मानसून सत्र के अंतिम दिन विधायकों, मंत्रियों, विधानसभा अध्यक्ष, उपाध्यक्ष व मुख्यमंत्री के निशुल्क यात्रा भत्ते को ढाई लाख सालाना से चार लाख रुपए सालान किया गया. इससे खजाने पर 1.99 करोड़ रुपए सालाना का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा. सत्ता पक्ष और विपक्ष के विधायकों ने इस बढ़ोतरी व सुविधा को जस्टीफाई करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. एक से बढक़र एक तर्क दिए, लेकिन ये तथ्य चालाकी से छिपा लिया गया कि माननीयों को मिलने वाले वेतन पर बनने वाला टैक्स विधानसभा भरती है.
विधायक को 55 हजार मासिक वेतन सहित कुल भत्ते मिलाए जाएं तो ये रकम 2.10 लाख रुपए मासिक बनती है. अभी अभी बढ़े यात्रा भत्ते को भी जोड़ दिया जाए तो ये रकम अब ढाई लाख से कुछ ही कम है. माननीयों को जो वेतन मिलता है, उस पर टैक्स विधानसभा भरती है. यानी वो टैक्स माननीयों की जेब से नहीं जाता है. वहीं, सरकारी कर्मचारी हो या फिर आम जनता, वे अपनी कमाई पर बनने वाले टैक्स को खुद की जेब से चुकाते हैं.
सोशल मीडिया पर भी इन दिनों एक जोरदार बहस चल रही है. इस बहस का केंद्र बिंदु माननीयों के यात्रा भत्ते में बढ़ोतरी से ही जुड़ा है. सोशल मीडिया पर लोग कह रहे हैं कि सामान्य कर्मचारी टैक्स भरता है. यहां तक कि सरकार ने आउटसोर्स आधार पर जो कर्मचारी नियुक्त किए हैं, वे भी जीएसटी भरते हैं. उन्हें वेतन जीएसटी कट कर मिलता है. वहीं, माननीयों का वेतन एक तरह से टैक्स फ्री ही कहा जा सकता है, वो इसलिए कि वेतन पर बनने वाला टैक्स विधायक की जेब से न जाकर विधानसभा के खाते से जाता है.
वर्तमान में एक विधायक का मासिक वेतन 2.10 लाख है. इसमें 55000 बेसिक सैलरी, 90000 चुनाव क्षेत्र भत्ता, 5000 कंप्यूटर भत्ता, 15000 टेलीफोन भत्ता, 30000 आफिस भत्ता और 15000 डाटा एंट्री आपरेटर अलाउंस है. विधानसभा कमेटी बैठकों का टीए अलग है. अब यात्रा भत्ता भी चार लाख सालाना हो गया है.