मंडीः आईआईटी मंडी के शोधकर्ताओं की एक टीम ने स्कूल ऑफ बेसिक साइंसेज में एसोसिएट प्रो. डॉ. प्रोसेनजीत मंडल के नेतृत्व में ये पता लगाया कि ज्यादा मीठा खाने का फैटी लीवर होने से जैव रासायनिक संबंध है. चिकित्सा विज्ञान में 'फैटी लीवर' को नॉन-अल्कोहलिक फैटी लीवर डिजीज (एनएएफएलडी) कहते हैं.
शोधार्थियों के मुताबिक इस नई जानकारी से लोगों को नॉन अल्कोहलिक लीवर डिजीज के शुरूआती चरणों में शक्कर की मात्रा घटाने के लिए जागरूक करने में मदद मिलेगी. यह अध्ययन जर्नल ऑफ बायोलॉजिकल केमिस्ट्री में प्रकाशित हुआ है.
इन रोगों को राष्ट्रीय कार्यक्रम में शामिल
यह अध्ययन ऐसे समय में हुआ है, जब सरकार ने एनएएफएलडी को कैंसर, मधुमेह, हृदय संबंधी रोगों की रोकथाम एवं नियंत्रण के लिए राष्ट्रीय कार्यक्रम में शामिल किया है. एनएएफएलडी, एक ऐसी मेडिकल स्थिति है जिसमें लीवर में अतिरिक्त फैट जमा होता है. इस रोग के लक्षण करीब दो दशक तक भी नजर नहीं आते हैं. यदि इस रोग का समय पर इलाज नहीं किया जाता है तो अतिरिक्त फैट व लीवर की कोशिकाओं को नुकसान पहुंचा सकता है. यह रोग बढ़ने पर लीवर कैंसर का रूप भी धारण कर सकता है.
आईआईटी मंडी के स्कूल ऑफ बेसिक साइंसेज के एसोसिएट प्रो. प्रसेनजीत मंडल ने बताया कि एनएएफएलडी का एक कारण शक्कर का अधिक मात्रा में उपभोग है. शक्कर और कार्बोहाइड्रेट के अधिक मात्रा में उपभोग के चलते लीवर उन्हें एक प्रक्रिया के जरिए फैट में तब्दील कर देता है, इससे फैट लीवर में जमा होने लग जाता है.
डॉ. प्रोसेनजीत मंडल के साथ शोध पत्र के सह-लेखक हैं उनके शोध विद्वान आईआईटी मंडी के विनीत डैनियल, सुरभि डोगरा, प्रिया रावत, अभिनव चैबे, जामिया हमदर्द संस्थान, नई दिल्ली के डॉ. मोहन कामथन और आयशा सिद्दीक खान और एसजीपीजीआई, लखनऊ के संगम रजक शामिल हैं.
इन इंस्टीट्यूट के शोधार्थी शामिल
मंडल ने बताया कि भारत में एनएएफएलडी आबादी के करीब 9 से 32 प्रतिशत हिस्से में पाया जाता है. अध्ययन दल ने दावा किया है कि लीवर में फैट के जमा होने के बीच मॉलिक्यूलर बॉन्डिंग का खुलासा होने से इस रोग का उपचार ईजाद करने में मदद मिलेगी. अध्ययन दल में जामिया हमदर्द इंस्टीट्यूट और एसजीपीजीआई, लखनऊ के शोधार्थी भी शामिल थे.
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