कुल्लू: हिमाचल प्रदेश जहां अपने प्राकृतिक सौंदर्य के लिए पूरी दुनिया में विख्यात है. वहीं, पहाड़ों पर बने लकड़ी के मकान को देख पर्यटक भी उनकी ओर खिंचे चले आते हैं. हालांकि बीते कुछ दशकों में हिमाचल प्रदेश में भी कंक्रीट के जंगल बनने शुरू हुए और लोगों ने भी सीमेंट के मकान बनाने शुरू किए. लेकिन पर्यावरण में आए बदलाव के चलते अब एक बार फिर से लोग पत्थर और लकड़ी से बने मकानों की ओर आकर्षित हो रहे हैं और एक बार फिर से ग्रामीण इलाकों में लोग काष्ठ शैली से निर्मित भवनों के निर्माण में जुटे हुए हैं.
पुराने समय में अगर प्रदेश के पहाड़ी इलाकों की बात करें तो यहां के लोग काष्ठकुणी शैली के मकानों में रहा करते थे और सादा जीवन व्यतीत करते थे. उनकी रोजी-रोटी का साधन मात्र कृषि था, लेकिन समय के साथ आए बदलाव ने प्रदेश की जीवन शैली को पूरी तरह से बदल कर रख दिया. प्रकृति से परिपूर्ण और हरे-भरे पेड़ों से घिरे प्रदेश के कई हिस्सों में अब कंकरीट का जंगल नजर आता है. शहर के वे हिस्से जो कभी विरान होते थे और झाड़ियों से भरे होते थे, आज वे आधुनिकता में गुम हो गए हैं. लकड़ी की पर्याप्त उपलब्धता न होने के कारण और आग से बचाव के कारण लोग पक्के मकानों को बनाने को प्राथमिकता दे रहे हैं, लेकिन अभी भी दुर्गम क्षेत्रों में कई गांव ऐसे हैं. जहां काष्ठकुणी शैली के मकान देखने को मिल जाते हैं, लेकिन शहरों में इनकी संख्या नाम मात्र ही रह गई है.
पहाड़ों में मकान बनाने के लिए ग्रामीण लोग काष्ठकुणी शैली का सहारा लेते हैं. इस शैली में मकान बनाने के लिए लकड़ी और पत्थरों का अधिक इस्तेमाल होता है. अधिकतर मकान ढाई मंजिल के बनाये जाते हैं और राजाओं के समय में इनकी ऊंचाई सात मंजिल तक भी होती थी. इस शैली के मकान में सीमेंट का बिल्कुल भी प्रयोग नहीं किया जाता है और दीवारों पर मिट्टी और गोबर के मिश्रण से बने पदार्थ का पलस्तर किया जाता है.
काष्ठकुणी शैली में बने मकानों की खासियत यह है कि यह गर्मियों में ठंडे और सर्दियों में गर्म होते हैं. गर्मियों के मौसम में भी ऐसे घरों में पंखों की जरूरत नहीं होती है. जिला कुल्लू में नग्गर कैसल और बंजार में चेहनी कोठी भी इसी शैली में बनाई गई है और यह मकान भूकंप रोधी भी होते हैं जिसका प्रमाण नग्गर कैसल और चेहनी कोठी है. कई बार भूकंप आए, लेकिन ऐसी शैली में बनने वाले घरों को कोई नुकसान नहीं पहुंचा है.
इस शैली में घर बनाने वाले कारीगर कई बार तो लोहे की कील का भी इस्तेमाल नहीं करते हैं. लकड़ी को आपस में जोड़ने के लिए लकड़ी की ही कील तैयार कर उसे जोड़ा जाता है. इस शैली की खासियत लकड़ी पर की गई नक्काशी है, जो हिमाचली कला की एक विशेष पहचान है. इसे हाथ से उकेरा जाता है और इसे बनाने में खासा समय लगता है. साथ ही इस तरह की छतें हिमाचल के ग्रामीण इलाकों में बनाई जाती हैं.
हिमाचल प्रदेश के विभिन्न पर्यटन स्थलों पर भी अब पर्यटकों की पसंद काष्ठकुणी शैली के मकान ही बन रहे हैं. जिला कुल्लू के मणिकर्ण, बंजार, मनाली में भी अब कंक्रीट के होटलों की बजाय पर्यटन कारोबारी छोटे-छोटे काष्ठकुणी शैली के मकान बना रहे हैं. जिन्हें पर्यटकों के द्वारा खूब पसंद भी किया जा रहा है. ऐसे मकानों की भी पर्यटकों के द्वारा एडवांस में बुकिंग की जा रही है ताकि वे प्रकृति की गोद में रहने का मजा ले सकें. कांग्रेस की नेता प्रियंका वाड्रा ने भी शिमला में काष्ठकुणी शैली में अपने घर को बनाया है.
वहीं, जिला कुल्लू में भी सन्नी देओल ने लकड़ी का कॉटेज तैयार किया है. इसके अलावा भी बाहरी राज्यों के कई वीआईपी के द्वारा भी पत्थर और लकड़ी के मकान तैयार करवाये हैं और इनके निर्माण में सीमेंट का बिल्कुल भी प्रयोग नहीं किया गया है. बंजार के पर्यटन कारोबारी हरीश और परस राम का कहना है कि अब पर्यटक भी लकड़ी और पत्थर के मकानों में रहना पसंद कर रहे हैं. बंजार इलाके में भी काष्ठकुणी शैली के छोटे छोटे मकान बनाये जा रहे हैं. स्थानीय लोगों को भी इससे फायदा हो रहा है. कुछ लोगों ने अपने मकानों को होम स्टे में तब्दील किया है और पुराने मकानों में आधुनिक सुविधाओं का भी मिश्रण किया गया है.
वहीं, शिक्षा एवं कला भाषा संस्कृति मंत्री गोविंद ठाकुर का कहना है विभाग के द्वारा भी इस शैली में प्रयोग होने वाली नक्काशी कार्य पर कारीगरों को भी प्रोत्साहित कर रही है. प्रदेश के कई मंदिरों का निर्माण भी काष्ठकुणी शैली से किया गया है और इस शैली को बढ़ावा देने के लिए सरकार भी प्रयासरत है.
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