धर्मशाला: चीन की तिब्बत में दमनकारी नीतियों के खिलाफ शर्णार्थी जीवन व्यतीत कर रहे निर्वासित तिब्बतियन 10 मार्च को बड़े स्तर पर आक्रोश रैली निकालेंगे और चीन के खिलाफ बड़े स्तर पर प्रदर्शन करेंगे.
दरअसल 10 मार्च 1959 को ही बौद्ध धर्मगुरू तिब्बत छोड़ने पर मजबूर हुए थे. दलाईलामा ने चीन की दमनकारी नीतियों का विरोध करते हुए अपने 85 हजार देशवासियों के साथ रात के घने अंधेरे में चीन को चकमा देकर देश छोड़ दिया था और नेपाल, भूटान से होते हुये भारत में आकर शरण ली थी.
62 साल गुजरे
इस दिन अपने देश को इन लोगों ने जिन हालातों में छोड़ा था तो एक उम्मीद थी कि आज नहीं तो कल वो अपने देश जिंदा जरूर जाएंगे और फिर से अपने स्वदेश की माटी में मिलकर अपना वर्चस्व कायम करते हुए तिब्बत का झंडा बुलंद करेंगे. बावजूद इसके आज उस तारीख को गुजरे पूरे 62 साल हो चुके हैं और इस बीच दलाईलामा समेत कुछ चुनिंदा लोगों को ही छोड़कर कितने ही लोग आज इस दुनिया को छोड़कर जा चुके हैं. फिर भी वो अपने देश को न तो चीन के कब्जे से निकाल पाये हैं और ना इन लोगों ने अपना संघर्ष चीन की दमनकारी नीतियों के खिलाफ छोड़ा है. इस संघर्ष में सैकड़ों लोग अपनी जान की कुर्बानी दे चुके हैं.
10 मार्च को मनाते हैं क्रांति दिवस
आज की तारीख में भारत ही नहीं बल्कि विदेशों में रह रहे तिब्बती 10 मार्च को एक क्रांति दिवस के तौर पर हर साल मनाते हैं. धर्मशाला से चलने वाली निर्वासित तिब्बती सरकार के डिप्टी स्पीकर यशी फुंत्सोक ने कहा कि वो भले ही कभी अपने बुजुर्गों की जन्मस्थली और अपने देश तिब्बत की पाक पवित्र जमीन को इन आंखों से नहीं देख पाये हों. मगर वहां जाने और उसे आजाद करवाने का जुनून उनके अंदर कूट-कूट कर भरा है. उन्होंने कहा कि 10 मार्च का दिन तिब्बतियों के इतिहास का वो काला दिन था जब उन्होंने अपनी जमीन को छोड़ कर दूसरे देशों में जाकर शरण ली थी.
आज उन्हीं काली यादों को संघर्षशील यादों के तौर पर अपनाते हुये आज भी हम लोग बड़े स्तर पर चीन के खिलाफ आक्रोश रैली निकालते हैं. उन्होंने कहा कि आज न केवल भारत में बल्कि दुनिया के दूसरे बड़े देशों में भी ये आक्रोश रैली अपने अपने स्तर पर और अपने तौर तरीकों से निकाली जाती है. तिब्बत का झंडा बुलंद करते हुये उसे आजाद करने की आवाज़ बुलंद की जाती है.
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