धर्मशाला: हिमाचल प्रदेश में पहली बार मुलेठी की पैदावार आरंभ की जाएगी. इसके साथ ही देश में संगठित रूप से भी पहली बार मुलेठी उत्पादन की शुरूआत होगी. इस सारी कवायद का सूत्रधार बनने जा रहा है वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद-हिमालय जैव संपदा प्रौद्योगिकी (सीएसआइआर-आइएचबीटी) संस्थान पालमपुर.
पहली बार संगठित रूप से मुलेठी की पैदावार होगी: अपने औषधीय गुणों के कारण प्रत्येक घर तक अपनी पहुंच बनाने वाली मुलेठी की हिमाचल में अब तक पैदावार नहीं होती है. वहीं, देश में पंजाब और हिमालय क्षेत्रों में इसकी खेती की जाती है लेकिन यह असंगठित रूप से होती है. ऐसे में अब देश में पहली बार संगठित रूप से मुलेठी की पैदावार की जाएगी. मुलेठी खांसी, गले की खराश, उदरशूल क्षयरोग, श्वास नली की सूजन तथा मिरगी आदि के उपचार में उपयोगी है.
8000 टन मुलेठी प्रतिवर्ष बाहरी देशों से की जाती है आयात: देश में आयुर्वेदिक औषधियों और घरेलू उपचार के रूप में मुलेठी का बड़े स्तर पर उपयोग किया जाता है, परंतु इसकी पैदावार मांग तथा आपूर्ति के अनुपात में कहीं कम है. एक आंकड़े अनुसार लगभग 8000 टन मुलेठी प्रतिवर्ष बाहरी देशों से आयात की जाती है. ऐसे में मुलेठी के लिए देश न केवल दूसरे उत्पादक देशों पर निर्भर है, अपितु आर्थिक भार भी देश पर है.
सीएसआईआर-आईएचबीटी संस्थान पालमपुर के निदेशक डॉ. संजय कुमार ने बताया कि- मुलेठी इतनी महत्वपूर्ण होते हुए भी हमारे देश में इसका संगठित रूप से उत्पादन नहीं होता है. 8000 टन मुलेठी दूसरे देशों अफगानिस्तान, नेपाल, चीन से प्रतिवर्ष आयात होती है. हमारे देश में मुलेठी के लिए जलवायु उपयुक्त है. संस्थान पिछले काफी वर्षों से इसके पर शोध कर रहा था. हमने पाया कि प्रदेश की कुछ जगहों पर मुलेठी का उत्पादन हो सकता है. इस कार्य को बढ़ाने के लिए मुलेठी की सही किस्म लेकर संस्थान आया है.
सीएसआईआर-आईएचबीटी संस्थान पालमपुर के वैज्ञानिक डॉ. सतवीर सिंह ने कहा कि-संस्थान मुलेठी पर काफी वर्षों से शोध कर रहा था. मुलेठी एक बहुत ही महत्वपूर्ण पौधा है. पौधे की जड़ों को काम में लाया जाता है. हिमाचल के ऊना, हमीरपुर, बिलासपुर, कांगड़ा, सिरमौर, सोलन इन जिलों में इसको लगाया जा सकता है और इस सीजन से मुलेठी के पौधों को किसानों को वितरित किया जाएगा और लगवाया जाएगा. मुलेठी की जड़ें थोड़ी मीठी होती हैं और इसकी उपयोगिता के कारण इसे कैंडी, टोबैको प्रोडक्ट, हर्बल मेडिसिन में मिठास के लिए इसका इस्तेमाल किया जाता है. वहीं, पारंपरिक दवाइयों में इसका भरपूर उपयोग होता है. इसकी अनुमानित आय 1 हेक्टेयर से लगभग दो लाख रुपये प्राप्त हो सकती है.
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