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अद्भुत हिमाचल: जुदाई से पहले मिलन का उत्सव है बांडा महोत्सव, ब्रह्मा-विष्णु व महेश हैं तीन मशालों के प्रतीक

अपनी कला, संस्कृति और इतिहास को संजोने के साथ देवभूमि हिमाचल को आपसी भाईचारे के लिए जाना जाता है. यहां के भोले भाले लोग प्रेम भाव के साथ अपना जीवन व्यतीत करते हैं. इसका एक उदाहरण है चंबा जिला का बांडा महोत्सव.

अद्भुत हिमाचल: जुदाई से पहले मिलन का है बांडा महोत्सव
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Published : Sep 27, 2019, 7:59 AM IST

चंबा: सर्दियों की शुरुआत होते ही भरमौर के दयोल गांव में बांडा महोत्सव मनाया जाता है. तीन दिनों तक चलने वाले इस महोत्सव को जुदाई से पहले मिलन का महोत्सव कहा जाता है. दरअसल, भारी बर्फबारी होने के कारण क्षेत्र के लोग व भेड़ पालक उत्सव के आखिरी दिन अपने पशुधन के साथ निचले इलाकों की ओर पलायन कर जाते हैं. महोत्सव की शुरुआत होते ही रिश्तेदार, बहू-बेटियां एक-दूसरे से मिलने आते हैं और उत्सव के आखिरी दिन सभी एक-दूसरे से जुदा हो जाते हैं.

बता दें कि चंबा जिला में भारी हिमपात को देखते हुए दयोल गांव के लोगों ने सुरक्षा के लिहाज से जिला कांगड़ा के निचले क्षेत्रों में भी घर बनाए हैं. दशकों से मनाए जाने वाला बांडा महोत्सव 25 सालों से बंद पड़ा था, लेकिन गांव के युवाओं की पहल ने अपने इस पारंपरिक उत्सव को फिर से शुरू कर दिया और वर्षों से चली आ रही परंपराओं को पुराने रीति-रिवाजों के साथ ही निभाया जा रहा है.

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महोत्सव के दूसरे दिन तीन मशालें जलाई जाती हैं. मान्यता है कि ये मशालें ब्रह्मा, विष्णु व महेश का प्रतीक होती हैं. गांव की महिलाएं व पुरुष अपनी पारंपरिक वेशभूषा पहनकर मशाल के चारों तरफ घूमते हैं. मशाल के इर्द-गिर्द घूम कर डंडारस नृत्य किया जाता है और ये नृत्य तब तक किया जाता है जब तक मशालें बुझ नहीं जाती. डंडारस नृत्य के अगले दिन ही सभी एक दूसरे से जुदा हो जाते हैं.

ये भी पढ़ें: अद्भुत हिमाचल: राक्षसों के मुखौटे पहन किया जाता है नृत्य, सदियों से निभाई जा रही है परंपरा

चंबा: सर्दियों की शुरुआत होते ही भरमौर के दयोल गांव में बांडा महोत्सव मनाया जाता है. तीन दिनों तक चलने वाले इस महोत्सव को जुदाई से पहले मिलन का महोत्सव कहा जाता है. दरअसल, भारी बर्फबारी होने के कारण क्षेत्र के लोग व भेड़ पालक उत्सव के आखिरी दिन अपने पशुधन के साथ निचले इलाकों की ओर पलायन कर जाते हैं. महोत्सव की शुरुआत होते ही रिश्तेदार, बहू-बेटियां एक-दूसरे से मिलने आते हैं और उत्सव के आखिरी दिन सभी एक-दूसरे से जुदा हो जाते हैं.

बता दें कि चंबा जिला में भारी हिमपात को देखते हुए दयोल गांव के लोगों ने सुरक्षा के लिहाज से जिला कांगड़ा के निचले क्षेत्रों में भी घर बनाए हैं. दशकों से मनाए जाने वाला बांडा महोत्सव 25 सालों से बंद पड़ा था, लेकिन गांव के युवाओं की पहल ने अपने इस पारंपरिक उत्सव को फिर से शुरू कर दिया और वर्षों से चली आ रही परंपराओं को पुराने रीति-रिवाजों के साथ ही निभाया जा रहा है.

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महोत्सव के दूसरे दिन तीन मशालें जलाई जाती हैं. मान्यता है कि ये मशालें ब्रह्मा, विष्णु व महेश का प्रतीक होती हैं. गांव की महिलाएं व पुरुष अपनी पारंपरिक वेशभूषा पहनकर मशाल के चारों तरफ घूमते हैं. मशाल के इर्द-गिर्द घूम कर डंडारस नृत्य किया जाता है और ये नृत्य तब तक किया जाता है जब तक मशालें बुझ नहीं जाती. डंडारस नृत्य के अगले दिन ही सभी एक दूसरे से जुदा हो जाते हैं.

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Intro:अजय शर्मा, चंबा
हिमाचल प्रदेश अपनी परंपराओं व कला-संस्कृति को सेहजने के लिए विश्व विख्यात है। प्राचीन समय से चले आ रहे उत्सवों, मेलों और इनमें परंपराओं का निर्वाहन करते हुए यहां पर लोगों को देखा जा सकता है। हिमाचल के ग्रामीण परिवेश में सदियों से चली आ रही परंपराओं का निभाना, अपने इतिहास से जुडी एक अहम कडी मानते है। वहीं हिमाचल प्रदेश के चंबा जिला में निवास
करने वाला गददी समुदाय अपने पारंपरिक रीति-रिवाजों, कला-संस्कृति और परंपराओं को निभाने में सबसे आगे है। यहीं एक बडी बजह भी है कि गददी समुदाय समूचे देश में अपनी एक अलग पहचान बनाए है। इसी कडी में चंबा जिले के जनजातीय क्षेत्र भरमौर के दयोल गांव में चल रहे बांडा महोत्सव को लेकर कुछ रोचक तथ्य सामने आया है। यह महोत्सव अढाई दशकों से बंद पड गया था,
लेकिन गांव के युवाओं की पहल ने अपने इस पारंपरिक उत्सव को फिर से जीवंत कर दिया और वर्षो से चली आ रही परंपराओं को पुराने रीति-रिवाजों के साथ भी निभाया।
Body:भरमौर क्षेत्र के दयोल गांव में चल रहा बांडा सर्दियों की शुरूआत के साथ ही मनाया जाता है। वहीं जब जनजातीय क्षेत्र भरमौर में आयोजित होने वाले सभी जातर मेले संपन्न हो जाते है, तो उसके अंत में बांडा महोत्सव मनाने की परंपरा वर्षो से रही है। कहा जाता है कि शरद ऋतु के आगमन के साथ ही क्षेत्र के लोग व भेडपालक अपने पशुधन के साथ निचले इलाकों की ओर पलायन कर जाते है। लिहाजा इससे पहले अपने रिश्तेदारों और बेटियों से मिलने के लिए विशेष तौर पर यह आयोजन मनाया जाता है। यानी मिलन के बाद बिछुडने के उत्सव को बांडा महोत्सव कहा गया है। बांडा आयोजन समिति दयोल के मुख्य संरक्षक डा. केहर ठाकुर बताते है कि जनजातीय क्षेत्र भरमौर की होली घाटी में यह परंपरा रही है कि जब स्थानीय लोग और भेडपालक सर्दियों में निचले इलाकों की ओर पलायन कर जाते है, इससे पहले के मिलन के लिए यह उत्सव आयोजित होता है। इस आयोजन के साथ ही क्षेत्र के लोग अपने दूसरे घरों यानी कांगडा जिला व मैदानी इलाकों की ओर पलायन कर जाते है। उनकी मानें तो सर्दियों से इस उत्सव को दयोल गांव में मनाया जाता रहा है, लेकिन बीच में अढाई दशकों का लंबा अंतराल के बाद पुन इस परंपरा को आरंभ किया गया है। वह कहते है कि बांडा उत्सव के दौरान रात को जलाई गई तीन मशालें ब्रहा, बिष्णु व महेश का प्रतीक होती है। वह कहते है कि पूर्वजों के अनुसार यह तीनों मशालें तीनों भगवान के रूप में सर्दियों में सुरक्षित रखने की गारंटी अपने आर्शीवाद के रूप में देते है। उन्होंने कहा कि 25 वर्षो के लंबे अंतराल के बाद शुरू हुए इस आयोजन के पीछे का मकसद यहीं है कि हम अपनी भावी पीढी को भी अपनी परंपराएं, कला और संस्कृति को जीवंत रखने का संदेश दे सकें।
Conclusion:बता दें कि भरमौर क्षेत्र के दयोल गांव में स्थानी युवाओं की पहल के बाद 25 वर्षो से बंद पडे पारंपरिक
बांडा महोत्सव को फिर से आरंभ किया गया है। तीन दिनों तक चलने वाले इस आयोजन का शनिवार को अंतिम दिन होगा। लिहाजा इस पूरे आयोजन के दौरान
युवाओं ने बुजूर्गो के साथ मिलकर सर्दियों से चली आ रही परंपराओं को निभाया है।इस कडी में रात भर गांव के महिला व पुरूषों ने पारंपरिक वेशभूषा में मशालों के इर्द-गिर्द डंडारस नृत्य किया और यह दौर मशालों के
बुझने तक जारी रहा। शनिवार को महोत्सव का अंतिम दिन होगा। इस दौरान दंगल के अलावा सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होगा।
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