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स्कैब सेब को कर देता है बर्बाद, बागवान ऐसे करें बचाव

सेब सीजन के साथ ही बागवानों को सेब में लगने वाली बीमारियों की चिंता भी सताने लगती है. सेब में खासतौर पर लगने वाली स्कैब बीमारी बागवानों को परेशान करती है.

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Published : Jul 9, 2020, 4:36 PM IST

Updated : Jul 9, 2020, 7:26 PM IST

स्कैव रोग
Nauni University Scientists on apple diseases

सोलनः हिमाचल प्रदेश में सेब सीजन जोर पकड़ने वाला है. सीजन के साथ ही बागवानों को सेब में लगने वाली बीमारियों की चिंता भी सताने लगती है. सेब में खासतौर पर लगने वाली स्कैब बीमारी बागवानों को परेशान करती है.

मानसून के आने से वातावरण में नमी की अधिकता हो जाती है. इसके बाद पौधों में रोगों का प्रकोप भी दिखाई देने लगता है. गौरतलब है कि सेब में स्कैब की समस्या जो करीब समाप्त समझी जा रही थी. पिछले साल से हिमाचल प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में इसका प्रकोप दिखाई दिया है. इस साल स्कैब रोग की समस्या प्रदेश के कुल्लू, मंडी और शिमला के कुछ क्षेत्रों में आ रही है. इसलिए समय रहते रोग को फैलने से रोकने के लिए उपाय करना जरूरी है.

नौणी विश्वविद्यालय की वैज्ञानिक डॉ. शालिनी शर्मा ने सेब बागवानों को इन रोगों से बचाव के लिए सलाह दी है. उन्होंने कहा कि नौणी विश्वविद्यालय ने बागवानों को सलाह दी है कि वे विश्वविद्यालय और बागवानी विभाग के अनुशंसित स्प्रे शेड्यूल का सख्ती से पालन करें और स्प्रे करते समय सभी एहतियात बरतें.

वीडियो

ऊंची एवं मध्य पहाड़ियों वाले क्षेत्र

इस रोग से सेब को बचाने के लिए प्रोपीनेब के स्प्रे में 0.3% (600 ग्राम / 200 लीटर पानी) या डोडिन में 0.075% (150 ग्राम / 200 लीटर पानी) या मेटिरम 55% + पाइरक्लोस्ट्रोबिन 5% WG में 0.150% (300 ग्राम /200 लीटर पानी) या टेबुकोनाज़ोल 8% + कप्तान 32% SC में (500एमएल/ 200 लीटर पानी) सेब स्कैब की रोकथाम के लिए प्रयोग करें.

वहीं, मेटिरम 55% + पाइरक्लोस्ट्रॉबिन 5% WG में 0.150% (300 ग्राम / 200 लीटर पानी) या फलक्सापाइरोकसाड + पाइरक्लोस्ट्रोबिन SC में 0.01% (20एमएल / 200लीटर) का असामयिक पतझड़ व अल्टरनेरिया धब्बा रोग से बचाव के लिए इस्तेमाल करें.

निम्न ऊंचाई वाले क्षेत्र

स्कैब के प्रबंधन के लिए प्रोपीनेब में 0.3% (600 ग्राम/200 लीटर पानी) के स्प्रे की सलाह दी जाती है, जबकि समय से पहले पत्ती गिरने के प्रबंधन के लिए टेबुकोनाज़ोल 50% + ट्राइफ्लोक्सिस्ट्रोबिन 25% WG में 0.04% (80 ग्राम/ 200 लीटर पानी) की सिफारिश की जाती है.

तुड़ाई से पूर्व (फसल लेने से 20-25 दिन पहले), स्कैब और अल्टरनेरिया लीफ स्पॉट के प्रबंधन के लिए मेटिरम 55% + पाइरक्लोस्ट्रोबिन 5% WG में 0.1% (200 ग्राम/200 लीटर पानी) के स्प्रे की सिफारिश की जाती है.

क्या है स्कैब रोग के लक्षण

यह रोग वेंचूरिया इनैक्वैलिस नामक फफूंद से उत्पन्न होता है. इस रोग का आक्रमण सर्वप्रथम सेब की कोमल पतियों पर होता है. मार्च-अप्रैल में इन पत्तियों की निचली सतह पर हल्के जैतूनी हरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं जो बाद में भूरे और काले हो जाते हैं.

बाद में पत्तों की ऊपरी सतह पर भी ये धब्बे बन जाते हैं जो अक्सर मखमली भूरे से काले रंग वाले और गोलाकार होते हैं. कभी-कभी संक्रमित पत्ते मखमली काले रंग से ढक जाते हैं जिसे शीट स्कैब कहते हैं. रोगग्रस्त पत्तियां समय से पूर्व (गर्मियों के मध्य में ही) पीली पड़ जाती है.

इस रोग के धब्बे फलों पर भी देखे जाते हैं. बरसात के मौसम के शुरू होने पर ये धब्बे फलों के निचले सिरे यानि 'पुशकोश अंत' पर पाये जाते है जो गोलाकार और भूरे से काले रंग के होते हैं.

स्कैब की फफूंद अक्तूबर-नवम्बर महीने में पतझड़ होने के बाद रोगग्रस्त पत्तियों पर पिन के सिरे से भी छोटे 'सूडोथिसिया' के रूप में जीवित रहती है. मार्च- अप्रैल में ये सूडोथिसिया परिपक्व होने लगते हैं और बारिश की बौछारों द्वारा इनमें से असंख्य बीजाणु बाहर निकलकर नई पत्तियों व फलों की पंखुड़ियों पर पहुंचकर स्कैब के काले धब्बे 9-17 दिन में पैदा करते हैं.

धब्बों में उबरने के बाद इनमें भारी मात्रा में कोनिडिया (फफूंद के बीजाणु) फल तुड़ान से पहले तक अपने स्थान से छूट कर दूसरी स्वस्थ पत्तियों व फलों पर पहुंचकर स्कैब के नए धब्बे पैदा करतें हैं.

ये भी पढ़ें- किन्नौर विधायक ने प्रदेश सरकार पर लगाए आरोप, संजीवनी चिकित्सालय को कोविड सेंटर बनाने की उठाई मांग

सोलनः हिमाचल प्रदेश में सेब सीजन जोर पकड़ने वाला है. सीजन के साथ ही बागवानों को सेब में लगने वाली बीमारियों की चिंता भी सताने लगती है. सेब में खासतौर पर लगने वाली स्कैब बीमारी बागवानों को परेशान करती है.

मानसून के आने से वातावरण में नमी की अधिकता हो जाती है. इसके बाद पौधों में रोगों का प्रकोप भी दिखाई देने लगता है. गौरतलब है कि सेब में स्कैब की समस्या जो करीब समाप्त समझी जा रही थी. पिछले साल से हिमाचल प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में इसका प्रकोप दिखाई दिया है. इस साल स्कैब रोग की समस्या प्रदेश के कुल्लू, मंडी और शिमला के कुछ क्षेत्रों में आ रही है. इसलिए समय रहते रोग को फैलने से रोकने के लिए उपाय करना जरूरी है.

नौणी विश्वविद्यालय की वैज्ञानिक डॉ. शालिनी शर्मा ने सेब बागवानों को इन रोगों से बचाव के लिए सलाह दी है. उन्होंने कहा कि नौणी विश्वविद्यालय ने बागवानों को सलाह दी है कि वे विश्वविद्यालय और बागवानी विभाग के अनुशंसित स्प्रे शेड्यूल का सख्ती से पालन करें और स्प्रे करते समय सभी एहतियात बरतें.

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ऊंची एवं मध्य पहाड़ियों वाले क्षेत्र

इस रोग से सेब को बचाने के लिए प्रोपीनेब के स्प्रे में 0.3% (600 ग्राम / 200 लीटर पानी) या डोडिन में 0.075% (150 ग्राम / 200 लीटर पानी) या मेटिरम 55% + पाइरक्लोस्ट्रोबिन 5% WG में 0.150% (300 ग्राम /200 लीटर पानी) या टेबुकोनाज़ोल 8% + कप्तान 32% SC में (500एमएल/ 200 लीटर पानी) सेब स्कैब की रोकथाम के लिए प्रयोग करें.

वहीं, मेटिरम 55% + पाइरक्लोस्ट्रॉबिन 5% WG में 0.150% (300 ग्राम / 200 लीटर पानी) या फलक्सापाइरोकसाड + पाइरक्लोस्ट्रोबिन SC में 0.01% (20एमएल / 200लीटर) का असामयिक पतझड़ व अल्टरनेरिया धब्बा रोग से बचाव के लिए इस्तेमाल करें.

निम्न ऊंचाई वाले क्षेत्र

स्कैब के प्रबंधन के लिए प्रोपीनेब में 0.3% (600 ग्राम/200 लीटर पानी) के स्प्रे की सलाह दी जाती है, जबकि समय से पहले पत्ती गिरने के प्रबंधन के लिए टेबुकोनाज़ोल 50% + ट्राइफ्लोक्सिस्ट्रोबिन 25% WG में 0.04% (80 ग्राम/ 200 लीटर पानी) की सिफारिश की जाती है.

तुड़ाई से पूर्व (फसल लेने से 20-25 दिन पहले), स्कैब और अल्टरनेरिया लीफ स्पॉट के प्रबंधन के लिए मेटिरम 55% + पाइरक्लोस्ट्रोबिन 5% WG में 0.1% (200 ग्राम/200 लीटर पानी) के स्प्रे की सिफारिश की जाती है.

क्या है स्कैब रोग के लक्षण

यह रोग वेंचूरिया इनैक्वैलिस नामक फफूंद से उत्पन्न होता है. इस रोग का आक्रमण सर्वप्रथम सेब की कोमल पतियों पर होता है. मार्च-अप्रैल में इन पत्तियों की निचली सतह पर हल्के जैतूनी हरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं जो बाद में भूरे और काले हो जाते हैं.

बाद में पत्तों की ऊपरी सतह पर भी ये धब्बे बन जाते हैं जो अक्सर मखमली भूरे से काले रंग वाले और गोलाकार होते हैं. कभी-कभी संक्रमित पत्ते मखमली काले रंग से ढक जाते हैं जिसे शीट स्कैब कहते हैं. रोगग्रस्त पत्तियां समय से पूर्व (गर्मियों के मध्य में ही) पीली पड़ जाती है.

इस रोग के धब्बे फलों पर भी देखे जाते हैं. बरसात के मौसम के शुरू होने पर ये धब्बे फलों के निचले सिरे यानि 'पुशकोश अंत' पर पाये जाते है जो गोलाकार और भूरे से काले रंग के होते हैं.

स्कैब की फफूंद अक्तूबर-नवम्बर महीने में पतझड़ होने के बाद रोगग्रस्त पत्तियों पर पिन के सिरे से भी छोटे 'सूडोथिसिया' के रूप में जीवित रहती है. मार्च- अप्रैल में ये सूडोथिसिया परिपक्व होने लगते हैं और बारिश की बौछारों द्वारा इनमें से असंख्य बीजाणु बाहर निकलकर नई पत्तियों व फलों की पंखुड़ियों पर पहुंचकर स्कैब के काले धब्बे 9-17 दिन में पैदा करते हैं.

धब्बों में उबरने के बाद इनमें भारी मात्रा में कोनिडिया (फफूंद के बीजाणु) फल तुड़ान से पहले तक अपने स्थान से छूट कर दूसरी स्वस्थ पत्तियों व फलों पर पहुंचकर स्कैब के नए धब्बे पैदा करतें हैं.

ये भी पढ़ें- किन्नौर विधायक ने प्रदेश सरकार पर लगाए आरोप, संजीवनी चिकित्सालय को कोविड सेंटर बनाने की उठाई मांग

Last Updated : Jul 9, 2020, 7:26 PM IST
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