किन्नौर: कोदा, कावणी, ओगला जैसे पारंपरिक अनाज अब देश भर में पहचाने जाएंगे. पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश देश को इन अनाजों के स्वाद से परिचित करवाएगा. हिमाचल के लोकगीतों में भी (Koda flour) कोदा और कावणी (Kavani flour)का जिक्र मिलता (Traditional grains of Himachal) है. एक लोकगीत में जिक्र है कि कोदा खाया बोलो चिड़ु ब खिड़ुए, खाई कावणी मोरे. अब ये अनाज आधुनिक समय में अपनी पहचान और स्वाद ( taste of traditional grains) की धूम मचाएंगे.
हिमाचल सरकार इसके लिए प्रयास करेगी और इन उत्पादों की मार्केटिंग की (Benifits of grains of Himachal) जाएगी. किन्नौर में तो ओगले की जलेबी भी विख्यात है. साथ ही ओगले के आटे से बनी चपातियां भी मेहमानों को परोसी जाती हैं. ओगले के आटे में कई औषधीय गुण हैं. ये पाचन के साथ-साथ शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है. इसी तरह कुलथ यानी कुल्थी की दाल पथरी रोग में लाभदायक है. ये गर्म तासीर की होती है और कई वात (Benifits of Pahadi Grains) रोगों में लाभ करती है.
हिमाचल सरकार के कृषि मंत्री वीरेंद्र कंवर के अनुसार राज्य सरकार पारंपरिक अनाज की खेती को प्रोत्साहित कर रही है. किसानों को ऐसे अनाज उगाने के लिए जरूरी सहायता दी जा रही (Tradational food of Himachal) है. प्राकृतिक खेती अभियान में भी इसे प्रमोट किया जा रहा है. राज्य सरकार देश में इसकी मार्केटिंग करेगी और ऐसे अनाजों के गुण बताएगी.
उल्लेखनीय है कि हिमाचल के पहाड़ी इलाकों सहित जनजातीय जिलों में अभी भी लोग पारंपरिक अनाजों के प्रति संवेदनशील हैं और उन्हें उगाते हैं. फास्ट फूड के इस दौर में ग्रामीण इलाकों ने ऐसे अनाज अभी भी सहेज कर रखे हैं. ओगले का आटा (Ogle flour) तो अब बड़े शहरों में खूब बिक रहा है. ये मीठे किस्म का आटा होता है और इससे पारंपरिक व्यंजन चिलटा भी बनाया (Natural farming campaign Himachal) जाता है.
इसी प्रकार मेहमानों की आवभगत में कोयाशीद यानी ओगले के आटे की नमकीन व मीठी जलेबी बनाई जाती है. ओगला की फसल अप्रैल महीने के बाद होती है. ओगले की पत्तियों को सुखाकर आटा तैयार किया जाता है. सर्दियों में इसे सब्जी के रूप में भी उपयोग में लाया जाता है. किन्नौरी बोली में ओगले को घाशङ्ग कहा जाता है. इसके आटे के चिलटे खाने से हाजमा दुरुस्त रहता है.
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इसी तरह एक अन्य अनाज फाफड़ा नाम से है. इसका आटा कुछ हद तक कसैला होता है. इससे भी कई व्यंजन बनते हैं. इसकी पत्तियों से भी सब्जी बनाई जाती है. कोदे की फसल सभी पहाड़ी इलाकों में होती है. ये बरसात के दौरान तैयार होता है. इसका आटा हल्का सा खुरदरा व भूरे रंग का होता है. सर्दियों में इसके चिलटे बनाए (Grains benifitial in Winters) जाते हैं. ये शरीर को गर्म रखता है.
इसी तरह कावणी एक किस्म का चावल है. इस चावल से देवी-देवताओं की पूजा भी होती है. इसी प्रकार हिमाचल के जंगलों में वनफ्शा पाया जाता है. ये सर्दियों में होने वाले कई रोगों में लाभदायक है. पांच साल पहले हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को कुछ कृषि उत्पादों के न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित करने के (Grains under MSP in Himachal) लिए कहा था.
हाईकोर्ट ने ऐसे उत्पादों में गेहूं, मक्का, धान और चावल को तो शामिल किया ही था, साथ ही हिमाचल की पारंपरिक फसलों कोदा, चीना, बाजरा, दाल अरहर, मसूर, मूंग, माश, चना, राजमाह, सरसों, तोरिया, अलसी, मूंगफली, फलों में आम, संतरा, सेब, अनारदाना, आड़ू, नाशपाती, स्टोन फ्रूट, सब्जियों में फूलगोभी, बंदगोभी, मटर, फ्रासबीन, गाजर, शलगम के अलावा पशु उत्पादों अंडा, भेड़-बकरी की ऊन, मक्खन, घी, दूध को भी इस दायरे में लाने के लिए कहा था.
इसके अलावा राज्य के पहाड़ी इलाकों के उत्पादों अदरक, लहसुन, मिर्च, हल्दी, दंदासा (अखरोट की दातुन), गुच्छी, वनफ्शा आदि का भी समर्थन मूल्य निर्धारित करने के लिए प्रक्रिया अपनाने के आदेश दिए थे. फिलहाल, राज्य सरकार इन पारंपरिक अनाजों के संरक्षण और उन्हें देश भर में लोकप्रिय बनाने के लिए जुट गई है. देश के विभिन्न हिस्सों में लगने वाले कृषि व व्यापार मेलों (Agriculture and trade fair in kinnaur) में इन अनाजों के बीज भी प्रदर्शित किए जाएंगे. साथ ही लोगों को इन अनाजों के औषधीय गुणों और अन्य लाभों के बारे में भी बताया जाएगा.
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