शिमला: चुनावी साल की शुरुआत हिमाचल के कर्मचारियों के लिए सौगात लेकर आई. जयराम सरकार ने नए कर्मचारियों की नए वेतनमान का तोहफा दे दिया है. लेकिन सवाल है कि ये सरकार की मेहरबानी है या मजबूरी ? क्योंकि इस साल के आखिर में प्रदेश में विधानसभा चुनाव (Himachal Assembly Election 2022) होने हैं. चुनावी साल में इस मेहरबानी पर सवाल उठना लाजमी है लेकिन इस मेहरबानी से प्रदेश पर कर्ज का बोझ और बढ़ना भी (Debt burden on Himachal) लाजमी है.
नया वेतनमान और कर्ज का बोझ: सरकार के ऐलान के तहत प्रदेश के 2 लाख सरकारी कर्मचारियों को जनवरी 2016 से नये वेतनमान का लाभ मिलेगा. यानी कर्मचारियों को एरियर भी मिलेगा, सरकार ने बकायदा इसका एक हिस्सा दे भी चुकी है. एरियर से लेकर बढ़े वेतनमान से सरकारी खजाने पर 5 हजार करोड़ का बोझ (Debt on himachal pradesh) पड़ेगा और इसकी वजह से सरकार पर कर्ज का बोझ भी बढ़ेगा, जो बीते करीब एक दशक में पहाड़ सरीखा हो चला है.
हिमाचल पर कितना कर्ज है ?: हिमाचल पर करीब 65 हजार करोड़ का कर्ज है. सरकारी कर्मचारी लंबे वक्त से नए वेतन आयोग को लागू करने की मांग उठा रहे थे. अब हिमाचल में करीब 2 लाख सरकारी कर्मचारियों को जनवरी 2016 से संशोधित वेतनमान मिलेगा. इस फैसले के बाद इन कर्मचारियों को जनवरी 2022 से बढ़ा हुआ वेतन मिलेगा. नए वेतनमान के मुताबिक हर कर्मचारी के वेतन में औसतन करीब 16 हजार रुपये की वृद्धि होगी. 2016 से एरियर भी सरकार दे रही है, ऐसे में कर्मचारियों की जेब में पैसा तो जाएगा लेकिन सरकार के खजाने पर बोझ पढ़ेगा. जिससे भविष्य में अपने लक्ष्य पूरे करने के लिए सरकार को और कर्ज (Debt burden on Himachal) लेना होगा.
चुनावी साल में कर्मचारियों को तोहफा: कर्मचारी लंबे वक्त से नए वेतनमान की मांग कर रहे थे लेकिन 2022 की शुरुआत में सरकार की मेहरबानी को विशेषज्ञ सियासी मजबूरी बता रहे हैं. इस साल के आखिर में विधानसभा चुनाव (Himachal Assembly Election 2022) होने हैं ऐसे में सबको लुभाने की कोशिश है. सरकारी कर्मचारियों का भी एक वोट बैंक हैं. इस फैसले का फायदा तो 2 लाख कर्मचारियों को होगा लेकिन असर 2 लाख परिवारों पर पड़ेगा.
CAG ने भी किया अलर्ट: जयराम सरकार ने कर्मचारियों के लिए चुनावी साल में वेतन आयोग का तोहफा तो दे दिया है, लेकिन खजाने पर पड़ने वाले आर्थिक बोझ को लेकर सरकार के पास कोई ठोस विजन नहीं है. पहाड़ी राज्य हिमाचल के पास खुद के आर्थिक संसाधन नहीं है कैग (CAG) की रिपोर्ट में पिछले एक दशक से निरंतर चेतावनी दी जा रही है कि हिमाचल को आय के संसाधन तलाशने होंगे वर्ना कर्ज के जाल में प्रदेश बुरी तरह उलझ जाएगा. अब सरकार ने नए संशोधित वेतनमान का ऐलान (new pay commission implemented in himachal) कर दिया है, लेकिन सरकारी खजाने पर बढ़ने वाले इस बोझ की भरपाई कैसे होगी, इसकी कोई प्लानिंग नहीं की गई है. बीते साल आई सीएजी की रिपोर्ट के मुताबिक हिमाचल पर कर्ज का बोझ (CAG on Debt burden on Himachal) पिछले वित्त वर्ष के मुकाबले करीब 15 फीसदी बढ़ा है. कर्ज लेने की यही रफ्तार रही तो 2025 तक ये कर्ज एक लाख करोड़ तक पहुंच जाएगा
रेवेन्यू डेफेसिट ग्रांट से मिल रही मदद: हिमाचल की भाजपा सरकार ने सदन में बताया था कि सरकार 2018-19 में 5737 करोड़ रुपए मार्केट लोन ले सकती थी, लेकिन कुल 4120 करोड़ रुपए ही लोन लिया. वित्तीय वर्ष 2020-21 में सरकार की मार्केट लोन की सीमा 9187 करोड़ रुपए थी और लोन केवल 6000 करोड़ रुपए ही लिया गया. भाजपा का कहना है कि जयराम सरकार ने तीन साल में पूर्व की कांग्रेस सरकार के समय लिए गए 19199 करोड़ रुपए के कर्ज में से 19486 करोड़ रुपए वापस भी लौटाए हैं. हिमाचल प्रदेश को पंद्रहवें वित्तायोग से उदार आर्थिक सहायता मिली है. महीने में 952 करोड़ रुपए वित्तायोग की तरफ से मिल रहे हैं. इसके अलावा रेवेन्यू डेफेसिट ग्रांट से भी काफी मदद मिल रही है.
बजट से ज्यादा कर्ज: हिमाचल पर बढ़ते कर्ज का बोझ कितना बढ़ (Debt burden on himachal pradesh) चुका है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि हिमाचल के सालाना बजट से ज्यादा प्रदेश पर कर्ज है. बीते साल जयराम ठाकुर ने वित्त वर्ष 2021-22 के लिए 50,192 करोड़ का बजट पेश किया था जो कि अब तक का सबसे बड़ा बजट था. इस साल ये बजट और भी बढ़ा हो सकता है लेकिन प्रदेश पर मौजूदा कर्ज 65 हजार करोड़ का है जो लगातार बढ़ रहा है.
सरकार अपने कुल बजट में से 55 से 60 फीसदी हिस्सा वेतन, पेंशन देने के अलावा कर्ज और ब्याज चुकाने के लिए खर्च करती है जबकि बाकी 40 से 45 फीसदी बजट में तमाम तरह के विकास कार्य और सरकार के खर्चे होते हैं. ऐसे में सरकार का विकास कर्ज पर ज्यादा निर्भर करता है और यही वजह है कि कर्ज साल-दर साल बढ़ रहा है. नए वेतनमान से सरकारी खजाने पर और बोझ पढ़ना तय है.
सरकार की दलील: मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर कर्ज के इस बोझ के लिए पूर्व की कांग्रेस सरकार को मानते हैं. जयराम ठाकुर के मुताबिक उनकी सरकार ने अपनी सीमाओं में रहकर की कर्ज लिया है जबकि पिछली सरकार ने प्रदेश पर कर्ज के बोझ को बढ़ाया है और उनकी सरकार कांग्रेस राज में लिए गए कर्ज का ब्याज भी चुका रही है. साफ है कि पुराना कर्ज तो चुकाया जा रहा है लेकिन उससे ज्यादा नया कर्ज लिया जा रहा है और यही वजह है कि हर सरकार कर्ज के इस पहाड़ को और ऊंचा कर रही है.
कर्ज का मर्ज पुराना है: आज प्रदेश पर 65 हजार करोड़ का कर्ज है लेकिन इसमें से 60 फीसदी से ज्यादा कर्ज पिछले एक दशक में लिया गया है. ये भारी भरकम कर्ज लेने का सिलसिला 90 के दशक के शुरुआती सालों में शुरू हुआ. जो अगले 2 दशक में 25 हजार करोड़ के पार पहुंच गया था. साल 2012 में हिमाचल प्रदेश पर 28,760 करोड़ का कर्ज हो चुका था, ये वही चुनावी साल था जब बीजेपी की धूमल सरकार को जनता ने नकारते हुए कांग्रेस को सत्ता तक पहुंचाया. वीरभद्र सिंह मुख्यमंत्री बने लेकिन कर्ज लेने का सिलसिला जारी रहा.
वीरभद्र सिंह साल 2012 से 2017 तक मुख्यमंत्री रहे और उनका कार्यकाल खत्म होने तक प्रदेश पर कर्ज का बोझ बढ़कर 47,906 करोड़ रुपये हो चुका था. यानि 5 साल के कार्यकाल में वीरभद्र सरकार ने 19,146 करोड़ का कर्ज लिया था. साल 2017 में फिर चुनाव हुए और इस बार बीजेपी की सत्ता में वापसी हुई. हिमाचल की कमान जयराम ठाकुर को मिली.
जयराम ठाकुर सरकार ने भी कर्ज लेने का सिलसिला जारी रखा. जो आज बढ़कर करीब 65 हजार करोड़ पहुंच चुका है और लगातार बढ़ रहा है. मौजूदा बीजेपी सरकार की बात करें तो बीते 4 साल में जयराम सरकार करीब 17 हजार करोड़ का कर्ज ले चुकी है. सरकार के कार्यकाल के अभी 10 महीने बचे हैं.
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कर्ज और सियासत: हिमाचल पर बढ़ता कर्ज का बोझ चुनावी मुद्दा (Debt and politics in himachal pradesh) भी रहा है. हिमाचल में हर 5 साल में कांग्रेस और बीजेपी के बीच सत्ता की अदला-बदली हो जाती है, बीते करीब 3 दशक से प्रदेश में कोई भी दल सत्ता पर लगातार दो बार काबिज नहीं हो पाया है. कर्ज का मुद्दा उठते ही हर मौजूदा सरकार बीती सरकार के सिर ठीकरा फोड़ देती है और कांग्रेस-बीजेपी कर्ज की टोपी एक दूसरे के सिर पहनाते रहते हैं. चुनावों में ये मुद्दा जोर शोर से उठाया जाता है, कर्ज के जाल से मुक्ति का दावा किया जाता है लेकिन सरकार बनने के बाद कर्ज लेने का सिलसिला ज्यों का त्यों ही रहता है.
कैसे कम होगा कर्ज का मर्ज: सरकार चाहे कांग्रेस की रही हो या बीजेपी की कर्ज लेकर घी पीने के आरोप हर सरकार पर लगे हैं और फिर हर पार्टी कर्ज को चुनावी मुद्दा बनाती है. सरकारें पुराना कर्ज और ब्याज तो दे रही हैं, लेकिन नया कर्ज भी धड़ल्ले से ले रही है. ये हर सरकार की मजबूरी तो है लेकिन इस मजबूरी से पार पाने का पुख्ता हल कोई नहीं खोज रहा. केंद्र सरकार जीएसटी का हिस्सा राज्य को देती है लेकिन बीते दो साल से कोरोना के कारण इसमें भी कमी आई है ऐसे में और कर्ज लेना होगा. चुनावी साल में झमाझम वादे और योजनाओं की घोषणा होगी तो ये बोझ भी भविष्य पर लाद दिया जाएगा, जिसे पूरा करने के लिए कर्ज ही लेना पड़ेगा.
कर्ज के मर्ज को कम करने के लिए सरकारों को फालतू खर्चे कम करने होंगे, जिसकी बाते विपक्ष में रहते हुए कांग्रेस और बीजेपी दोनों करते हैं लेकिन सत्ता में आते ही ये खर्चे बढ़ते जाते हैं. इस पर अच्छी नीयत और हिमाचल के भविष्य को ध्यान में रखते हुए मंथन की जरूरत है. इसके अलावा प्रदेश की आय के साधनों को बढ़ाना होगा. पर्यटन, बागवानी, जल विद्युत हिमाचल की आर्थिकी में बड़ी हिस्सेदारी रखते हैं.
इन क्षेत्रों को विकसित करने के अलावा आय के अन्य स्रोत भी तलाशने होंगे ताकि उधारी से ज्यादा आमदनी हो और प्रदेश पर बढ़ते कर्ज के बोझ को कम किया जा सके. चुनाव को देखते हुए ताबड़तोड़ योजनाओं की घोषणा करना, जबकि पुरानी योजनाएं लंबित पड़ी हैं और वक्त पर पूरा ना होने के कारण उनका बजट बढ़ता रहता है. जिसके कारण सरकारी खजाने पर बोझ बढ़ता है. ऐसे में सरकारों को इस कर्ज का मर्ज ढूंढने के लिए अच्छी नीयत और नीति की जरूरत है.
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